२४ जून २००९, हफ़्ते के कार्य दिवस का तीसरा दिन यानि बुधवार था, दफ़्तर के किसी काम से गाजियाबाद गया था । अपराह्न करीब दो बजे का वक्त था, सुर्यदेव आग उगल रहे थे, अन्दाजन उस समय बाहर का तापमान करीब ४५-४६ डिग्री के आस-पास रहा होगा । दफ़्तर को लौटते मे चुंकि गाडी गर्म हो रही थी, इसलिये इत्मिनान से चालीस की स्पीड मे ड्राइव कर रहा था । मोहन नगर का आर.ओ.बी ( रेल ओवर ब्रिज) पार किया तो मेरे आगे-आगे सड़क की बाहरी लेन पर धीमी गति से एक मारुती वैन चल रही थी, मैंने भी अपनी गाडी उसी के पीछे-पीछे लगा दी। वसुंधरा, वैशाली पार करने के बाद, डाबर चौक की लाल बत्ती पार की। लाल बत्ती पार कर अभी मुश्किल से पचास मीटर आगे ही बढा हूंगा कि मेरे आगे-आगे चल रही मारुति वैन की खिड्की से एक बीयर की खाली बोतल उछलती हुई सामने फुट्पाथ पर लगे एक छोटे होर्डिंग से टकराई । और टकराकर, दो हिस्सो मे विभक्त होकर एक हिस्सा वापस सडक पर आकर मेरी गाडी के अगले बाये टायर से टकराकर चूर-चूर होकर सडक पर बिखर गया । यह सब देख, मेरा मस्तिष्क, बाहर के उस उच्च तापमान के अनुकूल क्रोध से तमतमा सा गया । एक बारी सोचा कि स्पीड बढ़ा कर उसके आगे गाडी लगाऊ और उसे रोककर उसकी बेहुदी हरकत के लिए दो चार उपदेश झाडू । फिर सोचा कि आगे गाजीपुर बॉर्डर पर जाकर पुलिस से शिकायत करू कि यह शराब पीकर गाडी चला रहा है । मगर जैसा कि अमूमन मेरे साथ होता है, कुछ देर बार खुद ही ठंडा पड़ गया, यह सोचकर कि फालतू के लफडे में पड़कर फायदा क्या ?
अब मैं दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर गया था, और खीजे हुए मन से यूँ ही विचार मग्न था । यूपी बॉर्डर क्रोस करने के बाद फ्लाई ओवर से गुजरा तो अन्य लोगो की भांति मैं भी एक बारी यह सोचने पर मजबूर हो गया कि यह फ्लाई ओवर किस वजह से वहाँ पर( गाजीपुर मुर्गा मंडी के सामने ) बनाया गया ? शायद इसका सही उत्तर बनाने वाले भी नहीं जानते होंगे । जहाँ पर(गाजीपुर चौक पर) बहुत पहले बन जाना चाहिए था, वहाँ पर अब जाकर फ्लाई ओवर का काम चल रहा है। खैर, ये तो हमारा सिस्टम है और हमें इसी सिस्टम के अधीन चलना है । चौराहे से बहुत पहले ही एक लंबा ट्रैफिक जाम लगा था, काफी देर तक रेंगते-रेंगते जब लाल बत्ती के बहुत करीब पहुंचा तो देखा कि चौराहे पर दो ट्रैफिक पुलिस वाले निर्माणाधीन पुल के पिल्लर की छांव में बैठे सुर्ती फांक रहे थे और चौराहे पर यातायात नियंत्रण की कमान निर्माणाधीन पुल के ठेकेदार के दो कर्मचारी संभाले हुए थे । मैं तुंरत समझ गया था इतने लम्बे लगे ट्रैफिक जाम का राज ।
फिर मेरी नजर अपने से कुछ दूरी पर आगे खड़ी उस मारुती वैन पर गई, जिसके पीछे-पीछे मैं गाजियाबाद से चला आ रहा था। उस वैन का चालक बियर पीने के बाद शायद थोडा झांझ में आ गया था और चौराहे पर एक पानी की बोतल बेचने वाले बच्चे से उलझा हुआ था। शायद उस बच्चे से सस्ती दर पर पानी की बोतल देने को कह रहा था, किन्तु बच्चा बोतल के दस रूपये मांग रहा था । वह यही कोई ९-१० साल का बच्चा था, एक फटी नेकर और बिना बाजू की पुरानी मैली सी बनियान पहने था। और जब मेरी नजर उसके नंगे पैरो पर गई, एक बारी तो हल्की सी सिहरन मेरी रीड की हड्डी के पार उतर गई थी । ४५-४६ डिग्री तापमान और तेज धूप में, उस गरम आग उगलती कोलतार की सड़क पर वह बच्चा नंगे पाँव खडा था । शायद जब उसका पैर ज्यादा जल जाता था तो एक पैर वह थोड़ी देर ऊपर उठाके रखता, फिर कुछ देर बाद उस पैर को नीचे रखता और दूसरा पैर ऊपर उठाता था। मारुती वैन वाले वे सज्जन मानो लाल बत्ती पर खड़े-खड़े अपना समय गुजारने के लिए फालतू में ही उस बालक से झक मार रहे थे, क्योंकि उस चौराहे पर एक बार अगर लाल बत्ती हो गई तो पूरे ८ से १० मिनट का स्टोपेज है, और उसके बाद ही हरी बत्ती होती है । उन्हें इसकी ज़रा भी परवाह नहीं थी कि यह बच्चा इस चिलचिलाती धूप में नंगे पैर खडा है, शायद उनकी बला से यह सब तो एक आम बात जैसी थी। वह बच्चा बार-बार उस पानी की बोतल को गाडी की खिड़की से अन्दर को ठेलता और वे सज्जन उसे बाहर ठेलते, यही सब चल रहा था ।
उसे देख मैं मन ही मन उसकी तुलना अपने बच्चो से कर रहा था, और सोच रहा था कि इनके माँ-बाप कैसे निठुर होते होंगे जो इस बात की तनिक भी चिंता नहीं करते कि इस तपती गर्मी और लू के थपेडो में अगर उसे कुछ हो गया तो ? हम तो बच्चे जब स्कूल से लौटते है तो उनके लिए छाता लेकर बस स्टाप पर खड़े रहते है कि कहीं उन्हें धूप ना लगे । एक तरफ़ मन यह भी कह रहा था कि हो सकता है यह बच्चा इसके तथाकथित माँ-बाप अथवा गैंग ने कहीं से चुराकर अथवा उठाकर इस काम के लिए अपने पास रखा हो, अतः उन्हें इस बात की क्या फिकर कि इसे अगर कुछ हो जाए.........???
मैं इन्ही ख्यालो में उलझा था कि वह बच्चा उस गाडी को छोड़, बगल वाली गाडी की और बढा। वहाँ से भी कोई जबाब न मिलने पर वह मेरी गाडी की तरफ लपका, वह बार-बार अपने ओंठो पर अपनी जीभ फेर रहा था। मैं अभी मन बना ही रहा था कि मैं इससे यह बोतल खरीद लूँगा कि तभी इस बीच मेरी और की कतार में खड़े वाहनों के लिए हरा सिग्नल हो चुका था। दनादन गाडियों के हार्न बजने लगे थे, मैं भी गाडी को पहले गेयर में डाल, एक्सीलेटर पर दबाव बनाने जा ही रहा था कि अचानक मेरे ठीक आगे वह बच्चा चक्कर खाकर, बेहोश होकर सड़क पर गिर पड़ा। हाथ में पकडी उसकी बोतल कुछ दूर लुड़ककर चली गयी थी। मैंने गाडी वहीं पर बंद की और तुंरत बाहर निकल कर उस बच्चे को गोदी में उठा सड़क के किनारे पर ले गया । सड़क किनारे खड़े बैरिकेड की छाव में उसे लिटा, मैं फिर उसकी उस पानी की बोतल को लेने लपका, जिसे कुछ देर पहले वह पकडे, बेचने की कोशिश कर रहा था।
मैंने जल्दी से बोतल की सील तोड़, ढक्कन खोलकर, ठंडा पानी उसके चेहरे पर उडेला, इस बीच उसी के कुछ साथी तथा आसपास के कुछ लोग वहाँ पर घेरा बनाकर खड़े हो गए थे। मैंने उसके साथियो से उसके हाथ पैर मलासने को कहा और उसका मुह खोल बोतल के ढक्कन से तीन चार ढक्कन पानी उसके मुह में उड़ेले। थोड़ी देर बाद उसे होश आ गया और वह आँखे खोल धीमे से बडबडाने लगा, बाबूजी, दस रूपये की बोतल है.... बाबूजी दस...........! मैंने अपना पर्श निकाल दस रूपये उसे थमाए और पूछा कि उसे क्या हुआ और क्या अब वह ठीक है ? उसने जमीन में टिके अपने सिर को हाँ में हिलाया और बोला, बाबूजी मुझे बहुत प्यास लग गई थी, इसलिए चक्कर आ गया। उसकी बात सुन मेरा दिल पसीज गया था, मैंने सहारा देकर उसे वहीं जमीन पर बैठाया और वह पानी की बाकी बची आधी बोतल उसे पीने को दी, उसने संकोच भरी नजरो से मुझे देखा, मैंने कहा, पी लो, घबरावो नहीं, मैं तुमसे पैसे वापस नहीं मांग रहा । बस, फिर वह सारा पानी एक ही सांस में घटका गया था । थोडा रुकने के बाद मैंने उसे पुछा कि क्या अब वह ठीक है ? उसने कहा हां, बाबूजी मैं बिलकुल ठीक हूँ । मैंने पर्श में से उसे दस रूपये और दिए और कहा कि आस-पास में कहीं से कुछ लेकर खा लेना। दस का नोट हाथ में पकड़ते ही उसके बुझे चेहरे पर एक रौनक सी आ गई थी।
फिर से हरा सिग्नल हुआ और मैं चल पड़ा अपने गंतव्य की ओर। रास्ते में सोच रहा था कि इंसान का नसीब देखो कि हाथ में पानी की बोतल होते हुए भी प्यास से तड़प-तड़प कर मरना पड़ रहा है क्योंकि मजबूरिया उसे वह पानी पीने नही देती , और एक वह भी इंसान था, जिसने एक बियर की बोतल खरीदने के लिए शराब की दूकान पर तो खुसी-खुसी ७०-८० रूपये खर्च कर दिए होंगे (गाजियाबाद में इतने से कम की नहीं मिलती), लेकिन एक गरीब बच्चे से पानी की एक बोतल खरीदने के लिए बोतल पर डिस्काउंट मांग रहा था।
Friday, June 26, 2009
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3 comments:
आपकी इस घटना ने मन मस्तिष्क को झिंझोड़ कर रख दिया है...हम कितने निष्ठुर होते जा रहे हैं...जब इस तरह की घटनाएँ अपने सामने घटित होते देखते हैं हैं तो जेहन में सवाल उठ खडा होता है..हे इश्वर अगर तू है तो कहाँ है?
नीरज
यही विडंबना है जो दुखी कर देती है.
Niraj jee & Udan Tashtariji:
कहानी में दिलचस्पी लेने के लिए आप दोनों का हार्दिक शुक्रिया !
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