Sunday, January 31, 2010

मिथ्या ही मान लो कि भगवान सब देखता है पर .. !


और यह रही मेरी पहली टिप्पणी अलग से मेरे ही पिछले लेख पर : आज जो हम लोग आम जीवन मे मानवीय मुल्यों का इतना ह्रास देख रहे है, उसकी एक खास वजह यह भी है कि हमारे धर्मो द्वारा निर्धारित जीवन के मुल्यों का कुछ स्वार्थी और तुच्छ लोगो द्वारा अपने क्षणिक स्वार्थो के लिये इनकी अनदेखी करना, इनका उपहास उडाना, खुद को इन मुल्यों से उपर बताना, इत्यादि । इसे मैं इस उदाहरण से समझाता हूं; मान लीजिये आपके आस-पास कहीं चोरी हो गई और आप पति-पत्नी घर पर बच्चो संग उसी विषय पर चर्चा कर रहे है, तो आपके चर्चा के दो नजरिये हो सकते है। एक यह कि चोरी करना बुरी बात है, और चोर को इसका फल जरूर मिलेगा । दूसरा नजरिया यह कि अरे भाई, उसको जरुरत थी तभी तो उसने चोरी की, अगर उसका भी पेट भरा हुआ हो तो भला वह चोरी करने ही क्यो जायेगा?( इस नजरिये को मानने वाले भी तभी तक उसे मान्यता देते है जब तक वह चोर दूसरों के घर मे चोरी कर रहा होता है ,उनके घर मे नही) आप इसमे से पहले नजरिये को धार्मिक अथवा आजकल की भाषा मे साम्प्रदायिक नजरिया कह सकते है और दूसरे नजरिये को सेक्युलर नजरिया, मगर साथ ही यह भी गहन विचार कीजिये कि आपकी इस चर्चा को सुन रहे आपके बच्चो पर कौन से नजरिये का क्या असर होगा?

जब कोई भी इन्सान यहां कोई अच्छा-बुरा काम करता है तो लगभग सभी धर्मो मे यह कहा गया है कि भग्वान उसे उसका फल अवश्य देता है ! अब मान लो कि चाहे यह बात मिथ्या ही क्यों न हो, लेकिन इसका समाज पर कम से कम यह असर तो पडता था कि गलत काम करने वाले के मन मे यह भय होता था कि भग्वान उसे ऐसा करते देख रहे है, और उसे इसका दुष्परिणाम भुगतना पड सकता है, अर्थात मिथ्या पूर्ण होते हुए भी वह बात समाज के हित मे थी, लेकिन आज इन स्वार्थी तथाकथित सेक्युलरों ने तो तरह-तरह के उदाहरण पेश कर इन चोरो के मन का यह भय भी खत्म कर दिया!

Saturday, January 30, 2010

लो जी, दादा-नाना का गोत्र भी स्वीडन मे पेटेंट हो गया !

आज इस दुनियां मे मौजूद हर धर्म का उद्देश्य उसे मानने वाले अनुयायियों को उनके द्वारा जीवन को जीने के अपने एक खास नजरिये के प्रति प्रेरित और सजग करना होता है। हर धर्म की जहां अपनी कुछ खास विषेशतायें होती है,वही कुछ कमियां भी है। और अक्सर देखा गया है कि यहां, हमेशा ही किसी एक धर्म की दूसरे धर्म के अनुयायियों द्वारा तरह-तरह की आलोचना की जाती रही है। लेकिन शायद इस दुनिया मे हिन्दु धर्म ही एक मात्र ऐसा धर्म है जो कि न सिर्फ़ दुनियां का सबसे पुराना धर्म है अपितु इस धर्म को, इस धर्म के ही मानने वाले तथाकथित सेक्युलरों ने समय-समय पर प्रताडित किया है। जबकि देखा जाये तो अब तक इस धर्म की अनेक मान्यताओं को भले ही परोक्ष तौर पर ही सही, मगर दुनिया के अन्य हिस्सों मे मौजूद दूसरे धर्म के अनुयायियों ने भी मान्यता दी है। यह तो आप सभी जानते है कि पूर्व मे दुनियां भर के वैज्ञानिकों ने बहुत सी ऐसी चीजों की खोज की, अनेक ऐसी बातों को अपने अलग तौर पर प्रमाणिक सिद्ध किया, जिन्हे कि हिन्दु धर्म ग्रंथ और विद्वान आदिकाल मे ही जीवन-शैली मे सम्मिलित कर चुके थे।

भले ही आज की पाश्चात्यपरस्त हमारी युवा शिक्षित पीढी बात-बात पर अपने हिन्दु धर्म की मान्यताओं और रीति-रिवाजों का मजाक उडाती हो, मगर आपको मालूम होगा कि हमारे हिन्दु धर्म की मान्यताओं मे विश्वास रखने वाले कुछ लोग आज भी अपने लड्के-लड्की का रिश्ता तलाशते वक्त लड्के और लड्की के खानदान, गोत्र इत्यादि का उनके पिछ्ली सात पुस्तों का लेखा-जोखा देखते है कि लड्के अथवा लड्की की मां-दादी किस गोत्र की थी, दादा-नाना किस गोत्र के थे, उनका खानदान और चालचलन कैसा था ? इत्यादि-इत्यादि, वह इसलिये नही कि वे अन्ध विश्वासी है, बल्कि इसलिये कि इन बातों का वैज्ञानिक प्रभाव आने वाली पीढियों पर पड्ता है। और अब तो हम-आप जैसे सेक्युलर लोग भी इस बात को मानने वाले है क्योंकि अब यह बात हमारे देश के और हिन्दु धर्म के मानने वाले वैज्ञानिको द्वारा नही वल्कि स्वीडन के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन के बाद सिद्ध कर दी है कि अगर दादा अथवा नाना का कभी हड्डियों का विकार रहा हो अथवा उनकी रीढ की हड्डी कभी किसी दुर्घट्ना की वजह से कभी टूटी हो तो उसका असर उनके पोते पर भी पड्ता है। इसीलिये हमारे यहाम वह कहावत बहुत प्रचलित है “ बाप की बिगाडी हुई पूत को भुगतनी पड्ती है। तो चलिये, आगे से ध्यान रखियेगा कि जब भी अपने बेटे-बेटी का कहीं रिश्ता करने जावो तो अपने आने वाली पुस्तों की सलामती के लिये यह भी पता कर लेना कि कभी लड्के अथवा लडकी के बाप-दादा की रीढ की हड्डी तो नही टूटी थी?

इक्कीसवीं सदी का हमारा शहरी युवा वर्ग !

आज हमारे देश के शहरी इलाके ज्यों-ज्यों तथाकथित प्रगति की ओर अग्रसर है, त्यों-त्यों इन शहरी इलाकों के वाशिन्दे नित शाररिक तौर पर क्षीणता की गर्त मे डूबे जा रहे है। इसके लिये जिम्मेदार बहुत सारे प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण विध्यमान है, जिनमे से कुछ प्रमुख है, भोग और विलासिता की वस्तुए, मनोंरजन के साधन, शहर, कस्बे और मुहल्ले मे खेलने-कूदने के लिये उचित और प्रयाप्त जगहों का न होना, बच्चे का अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक न होना, माता-पिता की लापरवाही और सरकारों की इस ओर उदासीनता ।

और कम से कम मोदी नगर के एक स्कूल मे कल की यह घटना तो यही सिद्ध करती है कि हमारी युवा पीढी शारिरिक तौर पर कितनी कमजोर है। कल मोदी नगर के टी आर एम पब्लिक स्कूल के १८ वर्षीय बारह्वीं कक्षा के एक छात्र पवनेश पंवार की शारिरिक व्यायाम की परिक्षा के दौरान चक्कर आने से दुखद मृत्यु हो गई। घटना के बाद विधार्थी का परिवार, प्रशासन और खबरिया माध्यम जितना मर्जी हो-हल्ला मचायें, स्कूल प्रशासन को जिम्मेदार ठहरायें, लेकिन हकीकत यही है कि बाहर से लम्बे-चौडे, हष्ठ-पुष्ठ दिखने वाले ये आज के मदर डेयरी और चौकलेट पोषित युवा अन्दर से कितने खोखले हैं।

मेरा यह मानना है कि कलयुग ज्यों-ज्यों अपने चरम की ओर बढ रहा है, त्यों-त्यों इस धरा पर सारी की सारी क्रियायें-प्रक्रियायें उलट-पुलट हुए जा रही है, और जिसके लिये इन्सान सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। खान-पान मे तो हमने खुद ही अपने हाथों पौष्टिकता का गला घोंट दिया है, मगर साथ ही भोग-विलासिता और मनोरंजन के साधनो ने आग मे घी का काम कर दिया है। आज भी अगर हम सडक पर किसी प्रौढ अथवा बूढे व्यक्ति को फुर्तीले अन्दाज मे चलते हुए देखते है, तो हमारे मुख से पह्ला शब्द यही निकलता है कि भाई अगले ने पुराने जमाने का माल खा रखा है। कभी हमने शायद ही इस बात पर गौर किया हो कि उस पुराने जमाने के माल मे ऐसी कौन सी चीज थी, जिसे खाकर वह इन्सान आज भी स्वस्थ है ? जबाब साधारण सा है कि उस समय मे भोजन मे पौष्टिकता होती थी।

दूसरी बात, आज का युवा अपने आन्तरिक शारिरिक विकास और मजबूती के लिये जरा भी प्रतिबद्ध नही दीखता। पहले जमाने मे घर के बडे- बुजुर्गो के मुख पर विधार्थी के लिये बस यही दो मूल मन्त्र होते थे, एक था; काक चेष्ठा, बको ध्यानम, स्वान निन्द्रा तथेवच, अल्प हारे, गृह त्यागे, विधार्थीवे पंच लक्षण, अर्थात एक सफ़ल विधार्थी वह है जिसके हाव-भाव कौवे जैसे, तीक्ष्ण ध्यान बकरी जैसा, नींद कुत्ते जैसी, खान-पान थोडा और पौष्टिक तथा अध्ययन के लिये घरेलु उपभोग और मनोरंजन की चीजों का परित्याग किये हो। और दूसरा मन्त्र होता था कि विधार्थी को रात को जल्दी सोना चाहिये और सुबह जल्दी उठ्ना चाहिये। मगर आज की हकीकत इन बातों से कोसों दूर है। मां-बाप की मेहनत तथा नम्बर दो की कमाई मे से बेटा हर घन्टे कुछ न कुछ खाये ही जा रहा है, रात को ग्यारह-बारह बजे तक टीवी पर चिपका रहता है, उसके बाद दो बजे तक वह तथाकथित पढाई करता है, और फिर सुबह अगर स्कूल जल्दी जाने की मजबूरी न हो तो दस बजे बाद मा-बाप के बार-बार उठाने पर जनाव जागते है। दो कदम अगर जाना हो, तो कार अथवा बाइक लेकर जाते है। और फिर नतीजा हमारे सामने है कि स्कूल मे व्यायाम भी नही झेल पाते, और फिर दोष स्कूल प्रशासन के सिर मढ देते है। मै यहां अपना भी एक उदाहरण देना चाहुंगा, भूतकाल मे मेरे साथ दो इतने खतरनाक ऐक्सीडेंट हुए कि मै मानता हूं कि भग्वान के आशिर्वाद के साथ-साथ मेरी शारिरिक क्षमतायें ही थी जो मैं बच गया (चुंकि मैने भी अपना बचपन का एक बडा हिस्सा गांव मे बिताया और खूब शारिरिक व्यायाम भी किये), अन्यथा मै दावे के साथ कह सकता हूं कि मेरी जगह अगर कोई आज का शहरी नौजवान होता तो शायद वह उसी वक्त अल्लाह को प्यारा हो चुका होता ।

कहने का निचोड यह है कि आज हमे अगर अपनी वर्तमान युवा पीढी को भविष्य के लिये सक्षम बनाना है तो हमे इन बातों पर गौर करना ही होगा,औरसरकार तथा संचार माध्यमों को भी इसमे सकारात्मक भूमिका निभानी होगी, सिर्फ़ बच्चे पर पढाई का दबाब और स्कूल प्रशासन की खामियों का रोना रोकर हम अपने युवा वर्ग को अत्यधिक विलासी बनाकर अपने देश के लिये भविष्य मे वही मुसीबत खडी करने जा रहे है, जिससे आज अमेरिका और कुछ युरोपीय देश जूझ रहे है। आज जरुरत है, अनिवार्य रूप से इनके शारिरिक ढांचे को सक्षम बनाने के लिये हर सम्भव प्रयास करना, क्योंकि स्वस्थ शरीर मे ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है ।

Wednesday, January 13, 2010

झोई-भात !

पिंटी और कृतिका की शादी को हुए अब तकरीबन तीन साल बीत चुके थे। उनके एक साल भर का बेटा भी था। दोनों के अगाध प्रेम, आपसी समझ-विश्वास और तालमेल का ही नतीजा था कि इन तीन सालो में एक बार भी दोनों में कभी ज़रा सी भी आपसी कहासुनी नहीं हुई थी। यूं तो दोनों ही ठंडे दीमाग वाले और बहुत सी चीजो में एक जैसी पसंद रखने वाले थे, और इस बात पर पिंटी बार-बार वह मुहावरा दुहराता भी रहता था कि 'राम मिलाये जोड़ी,एक अन्धा एक कोढ़ी', मगर दोनों के स्वाभाव में इतनी समानता होने के बावजूद भी दोनों ने ही एक-दूसरे से पहले ही यह स्पष्ट कर रखा था कि अगर कभी दोनों में से कोई एक भी गुस्से में हो तो दूसरा जुबान नहीं खोलेगा। बस, यही उनके सफल वैवाहिक जीवन का मूल-मन्त्र था ।

पिंटी को छोटी-छोटी बातो को भूलने की एक बीमारी सी थी । कभी ऑफिस जाने से पहले शेव करना भूल जाता तो कभी दन्त-मंजन करना । और हद तो तब हो जाती, जब कृतिका का उसके ऑफिस के लिए सजाया हुआ लंच बॉक्स वह टेबल पर ही भूल जाता । आज मकर संक्रांति और पोंगल की छुट्टी थी, मगर वह यह भी भूल गया और रोज की भांति सुबह-सबेरे बाथरूम में घुसकर नहा धो लिया, और जब बाथरूम से बाहर निकला तो उसे अचानक याद आया कि वह नहा तो लिया किन्तु दंत मंजन करना भूल गया है । फिर अपने उसी चिर-परिचित अंदाज में उसने आवाज निकाली 'शिट यार', बाथरूम के एकदम सामने रसोई में मौजूद कृतिका ने यह जानते हुए भी, कि वह जरूर कुछ भूल गया होगा, उससे पुछा, अब क्या हुआ । पिंटी ने उसके सवाल का सीधा जबाब न देते हुए कहा, मैं भी न यार, एक नंबर का गधा हूँ । कृतिका तपाक से चुटकी लेते हुए बोली, चलो शुक्र है भगवान् का कि तुम्हे पता तो चला, मैं तो उसी दिन समझ गयी थी, जब शादी की बेदी में मेरे आगे पीछे रेंग रहे थे।


पिंटी उसकी बात सुन थोडा हंसा और फिर उसी अंदाज में उसकी चुटकी का जबाब देते हुए बोला , मुझे मालूम है यार कि तुम्हे अपनी नश्ल को पहचानने की पूरी महारत हासिल है । ब्रश करने के बाद जब वह फिर बाथरूम से बाहर निकला तो बैठक में लगी दीवार घड़ी की ओर नजर दौडाते हुए बोला, कीर्ति ( वह कृतिका को इसी नाम से पुकारता था) जल्दी लगा नाश्ता यार, टाइम हो गया । कृतिका को पहले से मालूम था कि आज छुट्टी है किन्तु वह अब तक जानबूझकर चुप थी, क्योंकि अगर पिंटी को मालूम पड़ जाता कि आज पोंगल की छुट्टी है तो वह दस बजे से पहले बिस्तर से खडा नहीं उठता। कृतिका ने पूछा, कहाँ की देर हो रही है, कहाँ जावोगे? पिंटी की समझ में कृतिका के सवाल का खुद व खुद जबाब आ गया था और उसने हाथो से माथा पीटते हुए कृतिका से शिकायती लहजे में कहा, अबे यार, तूने बताया क्यों नहीं कि आज छुट्टी है । कृतिका ने चेहरे पर हंसी बिखेरते हुए उंगलियों से उसके गालो को खींचते हुए कहा, जानू, अगर बता देती तो फिर मुझे नाश्ते के लिए भी १०-११ बजे तक इन्तजार करना पड़ता न।

पिंटी यह बड़बढाते हुए कि आजकल की इन सती-सावित्रियों को तो पति की जरा सी भी खुशी बरदाश्त नहीं होती, नाश्ते की टेबल पर बैठ गया। कृतिका ने मूली के पराँठे बनाए थे, जो अक्सर वह छुट्टी के दिन नाश्ते में बनाती थी, पराठे और दही की कटोरी पिंटी के सामने रखते हुए उसने फिर व्यंग्य कसा, गुस्सा छोडिये और नाश्ते का लुफ्त लीजिये, मेरे सत्यवान । फिर काफी देर तक नाश्ते की टेबल पर ही उनका हंसी मजाक चलता रहा था और फिर दोनों टीवी देखने लगे थे। ग्यारह बजे के करीब कृतिका ने पिंटी से पूछा कि लंच में क्या बनाऊ ? पिंटी ने कहा, यार बहुत दिनों से कढ़ी नहीं खायी, मैं दूकान से दही लेकर आता हूँ, आज कढ़ी-चावल बनावो, हाँ कड़ी में घीया-बेसन का पकोडा डालना मत भूलना। पिंटी का इतना कहना था कि कृतिका सहसा उदास हो गयी और उसके गालो पर आंसू रेंगने लगे । पिंटी ने उसके गालो पर से आंसू फोंझते हुए पूछा कि क्या हुआ? कृतिका बिना कुछ कहे फफककर रो पडी ।

कुछ देर बाद माहौल जब शांत हुआ तो उसने पिंटी को बताया कि आज उसकी ठुलैईजा/जेठ्जा( अर्थात ताई जी) की पहली बरसी है । ठुलैईजा कृतिका को और कृतिका ठुलैईजा को बहुत प्यार करते थे। दोनों को झोई-भात (कढ़ी-चावल, कुमाऊ में कढ़ी को झोई कहा जाता है ) बहुत पसंद थी। और जब कभी भी घर में कोई स्पेशल खाना बनाने की बात चलती थी तो कृतिका की जुबान से जब कढ़ी-चावल शब्द निकलता था, तो ईजा (माँ) उसे बुरा-भला कहते हुए कहती कि यह कमवक्त तो एकदम अपनी ठुलैईजा(ताई जी) पर गयी है । इस कढ़ी शब्द पर भी घर में एक बहुत बड़ी समस्या थी। कृतिका का परिवार एक संयुक्त परिवार था, परिवार जब भी छुट्टियों में उत्तरांचल की पहाडियों में बसे कुमाऊ क्षेत्र में, अपने गाँव जाता था, तो कृतिका की माँ (ईजा) और ताई जी ( ठुलैईजा) के लिए चुलबुली कृतिका को संभालना मुश्किल हो जाता था। वह जब खाते वक्त जिद करती तो जोर-जोर से चिल्लाने लगती कि मुझे कड़ी-भात चाहिए । दरहसल कुमाऊं में कढ़ी को 'झोई' नाम से जाना जाता है, क्योंकि वहाँ पर कढ़ी शब्द को एक गंदे शब्द के तौर पर देखा जाता है।

ठुलैईजा उस जमाने की पांचवी कक्षा तक पढी एक समझदार महिला थी, उनका जन्म और लालन-पालन तो गढ़वाल क्षेत्र में हुआ था, कितु उनका विवाह उनके माता-पिता ने कुमाऊ में कर दिया था। घर गाँव की भरी महफिल के बीच जब १०-१२ साल की कृतिका कढ़ी,कढ़ी चीखती तो ठुलैईजा, सिर में धोती का पल्लू खींचकर,दांतों के बाहर लम्बी जीभ निकालकर, उसे आँखे दिखाते हुए, हे पातर कहकर झट से उसका मुह दबा देती । लेकिन कृतिका को कैसे समझाए कि कड़ी शब्द को लोग यहाँ पर किस तरह लेते है, वह उसे बस इतना कहती कि 'झोई' बोल, 'झोई'!

और अब जब कृतिका को भाषा का अंतर समझ में आया तो तब तक वह बड़ी हो चुकी थी, परिवार उसकी सगाई के लिए गाँव आया हुआ था। कृतिका ने ही रसोई संभाली थी, जैबा / ठुल्बा(बड़े पापा / ताऊ) की मौत के बाद से ठुलैईजा की तबियत भी ठीक नहीं चल रही थी । अतः एक दिन जब कडाके की ठण्ड में दोपहर के वक्त भोजन में कृतिका ने कढ़ी बनायी थी तो वह एक बड़ा कटोरा कढ़ी का लेकर ठुलैईजा के कमरे में गयी थी, और सिर पर चुनरी ओढे कृतिका ने जब मुस्कुराते हुए कढ़ी का कटोरा ठुलैईजा की चारपाई के पास रखते हुए ठुलैईजा से कहा था कि :"ईजू झोई" , गरम-गरम एक कटोरी पी ले, तो ठुलैईजा ने पहली बार उसके मुह से 'झोई' शब्द सुनते हुए उसे अपने सीने से चिपका लिया था, और कहा था कि अब मेरी चेली ( बेटी ) ज्वान (बड़ी) हो गयी है ।


शादी के बाद कृतिका को पता चला था कि गाँव में कुछ समय से ईजा और ठुलैईजा के बीच तनातनी चल रही थी । ईजा बात-बात पर बीमार ठुलैईजा को ताने देती रहती थी। कृतिका ने कई बार अपने ढंग से ईजा को समझाने की कोशिश भी की थी, लेकिन ईजा ने कृतिका को यह कह कर झिड़क दिया था कि तू ठुलैईजा का ज्यादा पक्ष मत लिया कर। कृतिका यह सुनकर चुप रह गयी थी, वह उस दौरान ससुराल और मायके, दोनों तरफ से दुखी थी। ससुराल की तरफ से इसलिए कि वह गाँव की महिलावो को मुफ्त शिक्षा और सिलाई बुनाई की ट्रेनिंग देती थी और ससुराल वालो को इस बात का गम था कि वह उनके बेटे की कमाई इस तरह से उड़ा रही है। कृतिका ने ठुलैईजा को भी अपना दुखडा सुनाकर उसे भी समझाने की कोशिश की, कि वह ईजा की बातो का बुरा न माने, किन्तु ज्यादा असर नहीं हुआ ।

पिछले साल चौदह जनवरी को अचानक जब गाँव से फोन आया कि ठुलैईजा गाँव की औरतो के साथ मकर संक्रांति के दिन स्नान के लिए पास की एक नदी में गयी थी, तो पैर फिसल जाने से डूब गयी और उसकी मृत्यु हो गयी, यह खबर मिलने पर कृतिका एकदम टूटकर रह गयी थी। यह पिंटी का ही प्यार था कि धीरे-धीरे कृतिका उस सदमे को भुला सकी,जिसे लोग दुर्घटना समझ रहे थे, वह महज आत्महत्या थी, जिसे समझदार ठुलैईजा ने इस तरह से अंजाम दिया था कि ताकि लोग इसे दुर्घटना समझे। यह बात सिर्फ कृतिका को मालूम थी, क्योंकि उनकी मृत्यु के तीन दिन बाद ही कृतिका को ठुलैईजा का लिखा वह पत्र मिला था, जिसे ठुलैईजा ने पहाडी भाषा में लिखा था और लिखा था;

चेली(बेटी) ,मुझे क्षमा करना, अब और चल पाने की हिम्मत मुझमे नहीं रह गयी है, बेटी, दूसरो के प्रति उदारता का फल इंसान को अवश्य मिलता है। मैं तुझे देखती रहती थी, तुझे पढने की हमेशा कोशिश करती रहती थी । दया, करुणा, सहानुभूति तुम्हारी शक्ति है , अपने उस पक्ष को एक अभिव्यक्ति देने में कोई बुराई नहीं है, लोग यहाँ अभी इतने समझदार नहीं हुए कि इस प्रकार के भाव की सराहना कर सके, तुम अपना अच्छा काम जारी रखना।
तुम्हारी ठुलैईजा,

कृतिका नम आँखों से रसोई में इत्मीनान से चांवल-कढ़ी पका रही थी और सोच रही थी कि वह आज एक पूडी पर झोई-भात अपने छत की मुंडेर पर अपनी ठुलैईजा के लिए भी रखेगी। उसे मायके से खबर मिली थी कि ठुलैईजा की पहली बरसी पर उसके परिवार वालो ने हफ्ते भर की धार्मिक पूजा-अनुष्ठान और पूरे गाँव के लिए पितृ-भोज की व्यवस्था की थी। उसे भी परिवार वालो ने आने को आमंत्रित किया था, किन्तु वह चाहकर भी नहीं जाना चाहती थी । वह सोच रही थी कि इंसान कितना स्वार्थी और मूर्ख होता है । एक व्यक्ति को तो उसके जीते जी मार देते है और फिर दुनिया के दिखावे के लिए यह सब ढ़कोसलेबाजी करने पर उतर आते है ।

Monday, January 11, 2010

समझदार पत्नी !

एक बार एक पहाडी गाँव के नए-नए बने एक गरीब प्रधान जी के घर पर मेहमान को कुछ देर ठहरने का सौभाग्य मिला तो उनकी धर्म- पत्नी की बुद्धिमता की प्रशंसा किये बगैर नहीं रह सका ! आइये आपको भी सुनाते है ! प्रधान जी को चावल का गरम-गरम मांड पीने का शौक था! उनकी धर्मपत्नी ने चावल अभी चूल्हे में रखे ही थे कि हम यानी मेहमान टपक गए ! बाहर प्रधान जी मेहमानों के साथ गपो में व्यस्त थे ! उनकी पत्नी ने उबलते चावलों में से मांड निकाल कर एक गिलास में उनके लिए रख दिया था! लेकिन अब प्रश्न प्रधान जी की नाक का था कि कहीं मेहमानों के सामने मांड उन्हें पीने को देकर नाक न कट जाए ! लेकिन मांड भी ठंडा हो रहा था, ठन्डे मांड से प्रधान जी भी उस पर गुस्सा कर देंगे! अब क्या करे? अत: कुछ देर इन्तजार करने के बाद अन्दर किचन से उसने जोर से गाने के से अंदाज में बोला " धान सिंह का बेटा मांड सिंह , पीना है तो आओ नहीं तो शीतलपुर को जाता है" !

बस प्रधान जी समझ गए, और "आप बैठिये मैं अभी आया" कहकर मांड पीने चले गए !