Saturday, September 19, 2009

लघु कथा- और ताऊ मर गया !

सन् ८७-८८ की बात है, महानगरी में ताऊ ( दोस्तों द्वारा दिया गया उपनाम ) की पहली नौकरी लगी थी। सुदूर गाँव से चलते वक्त ताऊ को उसके दोस्तों और परिवार के छोटे बडो ने महानगरी के बारे में काफ़ी हिदायते दी थी; मसलन सड़क ढंग से पार करना, पैसे/पर्स जेब में संभाल के रखना, किसी से झगडा मत करना, इत्यादि -इत्यादि ।

धोखे ही धोखे है चिरागों की चकाचौंध में,
दर्रे-दर्रे पर वहाँ कई राज छुपे बैठे है !
हर चीज़ को ज़रा खुली आँखों से देखना,
कबूतर के चेहरे में बाज़ छुपे बैठे है !!

ताऊ का क्रूरता से तो सामना उसी वक्त हो गया था, जब अंतराष्ट्रीय बस अड्डे पर रोडवेज से उतर उसने नारायणा के लिए डीटीसी की मुद्रिका बस पकड़ी थी। हुआ यह कि उसने कंक्टर से पूछना चाहा कि भाई साहब ,क्या यह बस नारायणा जायेगी, तो तपाक से जबाब मिला था "हौर तन्ने के यह मारे घर जात्ती दिख री सै, बोर्ड नि दिख रिया कै" वो तो भला हो उस दूसरे सवारी का जिसने कहा, हां जायेगी, चढ़ जा।

कुछ दिन बाद लाजपत नगर में ताऊ को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में एक ७५०/- रूपये प्रतिमाह की नौकरी मिल गई। मालिक था एक खूसट बनिया । कर्मचारियो का शोषण कैसे किया जाता है, कोई उनसे सीखे । महानगरी में ताऊ कुछ ही दिन में एक कोल्हू का बैल बन के रह गया । दिन भर लाला ऑफिस में काम करवाता और शाम होते ही कहता कि आज तुझे ट्रक के साथ मुज़फ्फरनगर जाना है, वहां पर लाला को एक पाइप फैक्ट्री लगाने का ठेका मिला था। और आखिर ताऊ के लिए एक मनहूस दिन आया। लाला ने उसे सुबह बिक्री-कर विभाग जाने और वहा से सी फार्म लाने का हुक्म सुनाया। साथ ही १०० रूपये( पचास-पचास के दो नोट) भी दिए और कहा कि यह बाबू को दे देना, साथ ही हिदायत भी दी कि पहले सिर्फ़ एक पचास का नोट ही पकडाना, नही माने तो तब पचास और दे देना। बिक्री कर विभाग पहुच कर ताऊ ने वही किया जो लाला ने सिखा कर भेजा था, लेकिन बाबू नही माना, फ़िर उसने पूरे १०० रूपये और ऍप्लिकेशन फार्म बाबू को दिए और सी फार्म देने को कहा। बाबू ने १०० रूपये जेब में रखे और ताऊ को ५ सी फार्म पकड़ाकर बोला, अन्दर साहब से साइन करवा ले। ताऊ फार्म लेकर अन्दर बैठे उस बाबू के पास गया। उसने पुछा क्या है ? ताऊ ने कहा " साब ये सी-फार्म साइन करने थे ", बाबू बोला कितने लाया है? ताऊ बोला, ५ फार्म । बाबू चिड़ते हुए और हाथ का अंगूठा ऊँगली पर रगड़ते हुए बोला " अरे वो कितने लाया है ?" ताऊ उसका इशारा समझ कर बोला, साब १०० लाया था, मगर जिन साब ने ये फार्म दिए, उन्होंने ले लिए। बाबू बोला "तो ठीक है साइन भी उसी से करवाले, मेरे पास क्यो आया ? "..... ताऊ हडबडाकर उस बाबू की सीट की तरफ़ लपका जिसने फार्म दिए थे, मगर बाबू सीट से गायब था ! ताऊ अन्दर वाले बाबू के पास जाकर इंतज़ार करने लगा। आधा घंटा बीत गया, मगर वह नही लौटा। अन्दर वाला बाबू बोला, चल १००/- रूपये निकाल, मैं साइन कर देता हू। ताऊ क्या करता, अपने पैसो में से १००/- रूपये उसको दिए, उसने साइन किया और कहा कि चपरासी से स्टैंप लगा ले।

ताऊ चपरासी के पास गया, चपरासी ने स्टैंप लगायी और २० रूपये मागने लगा, ताऊ ने किसी तरह १० रूपये में जान छुडाई। चपरासी बोला अरे साब! यहाँ एक फार्म पे स्टैंप लगाने के ५ रुपए होते है, सो आपके २५ रूपये बनते थे, मैं तो २० ही मांग रहा था । चलो खैर, मानो वह ताऊ के ऊपर एहसान कर रहा हो। ऑफिस पहुंचकर ताऊ ने फार्म लाला को दिए, लाला बोला रूपये ५० ही दिए न ? ताऊ इस डर से की कही लाला नौकरी से न निकाल दे, बोला नही साब, १०० रूपये लिए उसने ! और लग गया सीधा सीधा ११०/- रूपये का चूना ताऊ पर ! रात को लाला ने फिर ताऊ को सामान के साथ मुज्ज़फरनगर जाने का हुक्म सुनाया। ताऊ ट्रक लेकर मुज्ज़फरनगर के लिए चल पड़ा। ट्रक में सेरामिक ईंट लदी थी, जबकि बिल में लाला ने लिखवाया था गलवानाइजिंग प्लांट एक्सेसरीज। बागपत चुंगी पर जब ड्राईवर फार्म और बिल लेकर पास बनाने गया, तो उसने फार्म भरने वाले से फार्म पर ईंट लिखा दिया।

फार्म और बिल में अंतर्विरोध देख चुंगी वाले बाबु की बांछे खिल उठी। उसने सारे कागजाद अपने टेबल की दराज में रख दिए और चाय पीने लगा। एक घंटा गुजरा, दो घंटे गुजरे, मगर कागजाद नही मिले। बाबू ने ड्राईवर से ५००/- रुपयों की मांग की थी, रात के ग्यारह बज चुके थे। ड्राईवर लोगो के लिए तो मानो यह रोज की दिनचर्या थी। ड्राईवर पास के ढाबे में खाना खाने चला गया । ताऊ उस उमस भरी गर्मी में ट्रक में बैठा एक अखबार के टुकड़े से हवा कर अपने व्यथित मन को शांत करने में लगा रहा, भूखा-प्यासा! ड्राईवर और क्लीनर खाना खा कर लौटे तो बाबू अंदर की बेंच पर खर्राटे भर रहा था। होते-करते सुबह के तीन बज गए। ड्राईवर ने हिम्मत कर बाबू को उठाया। बाबू ड्राईवर को लगभग गालिया देता हुआ उठा और बोला, यह कंपनी मुझे संदेहास्पद लगती है, इसके सारे बिल पहले मेरे पास लावो, फिर गाड़ी छोडूंगा। ड्राईवर वापस ताऊ के पास आया और उसे एक कहानी समझाई और बाबू के पास भेजा। ताऊ हाथ जोड़कर बाबू के पास पंहुचा और उससे कहा, साब मेरी अभी-अभी नौकरी लगी है, यह मेरा पहला जॉब है, मुझे एक्सपीरिएंस नही है, इसलिए फार्म में यह गलती कर गया। मगर साब, लाला मेरे को नौकरी से निकाल देगा । प्लीज़, कुछ करे ! बाबू को मानो दया आ गई हो , बोला अच्छा तेरी बात पर मै गाड़ी छोड़ रहा हूँ, मगर बर्रिएर वाले को २०० रूपये दे देना ! ताऊ मन ही मन सोच रहा था कि घूस खाने का यह भी एक अच्छा तरीका है। क्या करता, बाप बोलकर बैरियर पर बैठे शख्स को २०० रूपये दिए।

सुबह के चार बज चुके थे, ट्रक अपने गंतव्य की और निकल पड़ा। ताऊ सोच रहा था की ३१ दिन काम करने के ७५० रूपये मिलेंगे और ३६० रूपये अब तक वह अपने जेब से लगा चुका, यानि पहली पगार सिर्फ़ ३९० रूपये। चूँकि यह गलती सीधे-सीधे लाला की ही थी , जिसने ड्राइवर को खुद ही ईंट लिखवाने को कहा था! ताऊ झूट नहीं बोल सकता था क्योंकि वह उसने अपने सस्कारों में नहीं पाया था । मगर उसकी जेब पर घर से लाये जो भी पैसे थे वह ख़त्म हो चुके थे। लाला वेतन तो अभी देगा नहीं, झूठ वह बोल सकता नहीं कि चुंगी वाले ने ५००/- रूपये ही लिए ! अब क्या करे ? बड़ी दिमागी कशमकश के बाद उसने दृढ निश्चय लिया, ट्रक ड्राइवर से कुछ खुसफुसाहट की, उसे अपनी सारी मजबूरी बयान की । ड्राइवर नरम दिल हो गया और गाडी रोक, ताऊ से यह कहा कि अगर लाला तुम्हे फ़ोन पर आने को कहे तो तुम भी यही कहना कि हां, बाबू १०००/- रूपये मांग रहा है, पास के पी सी ओ पर लाला को फोन करने गया,और बोला कि गाडी पकड़ ली गई है, और बाबू १०००/- रूपये मांग रहा है। लाला ने पूछा, तुम्हारे पास इतने पैसे है ? ड्राइवर बोला हाँ ! और इस तरह ताऊ मर गया, हमेशा के लिए, इस महानगरी में !

Sunday, September 13, 2009

गरीब-गुरबों की भाषा का दिवस !

बडी खुशी की बात है कि आज हमारा देश ’राष्ट्र भाषा हिन्दी दिवस’ इस खास दिन पर मना रहा है । मगर वास्तविक तौर पर इस राष्ट्र भाषा की स्थिति क्या है, यह बताने की जरुरत नही। तारीफ़ करनी होगी उन अंग्रेजो की, जिन्होने न सिर्फ़ दुनिया को गुलामी की जंजीरो मे जकडा, अपितु हर एक इन्सान पर गुलामियत की एक ऐसी अनोखी छाप भी छोड दी जो, अब शायद मिटाये ना मिटे। उनकी वह भाषा अब सभ्य और अमीर कहलाने वाले लोगो की भाषा बन चुकी है। हमारे इस भारत देश मे ही देख लीजिये कि हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी आज एक गरीब-गुरबे की भाषा बन कर रह गई है। भाषा ने दिमागी तौर पर भी इन्सान-इन्सान मे अमीर-गरीब का एक ऐसा खासा अन्तर खडा कर दिया है कि यहां आपके मुख से निकले शुरुआती शब्द आपकी पह्चान और समाज मे आपकी हैसियत का माप-दण्ड बन जाते है। इसे एक उदाहरण के तौर पर इस तरह से देख सकते है कि मान लीजिये, आप देश के किसी अजनवी शहर मे जाते है, और एक होटल मे कमरा पूछने हेतु उसके स्वागत कक्ष मे पहुचकर कमरे और किराये के बारे मे जानकारी लेते है। अगर आपने अपना सुरुआती परिचय हिन्दी मे देकर पूछताछ की तो आप पायेंगे कि आपके साथ उस होटल के कर्मचारियों का व्यवहार उतना गर्मजोशी भरा नही है, जितना कि तब होता, यदि आपने अंग्रेजी मे पूछताछ की होती ।


मै यह एक भाषायी मानसिकता का अन्तर बता रहा हूं, जो हमारे बीच है। दक्षिण के राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु मे चले जाइये, आपको अंग्रेजी और हिन्दी की मह्ता मे क्या फर्क है, एकदम साफ मह्सूस हो जायेगा। ऐसा भी नही है कि सारा दक्षिण भारत ही हिन्दी से नफ़रत करता हो , कुछ लोग इसके अपवाद भी है, जो अपनी इस राष्ट्र भाषा से लगाव भी रखते है, ऐसे ही लोगो मे यहां इस चिठठा जगत मे अनेकों सम्मानित चिठ्ठाकार भी है, जो दक्षिण से सम्बद्ध होते हुए भी, जिन्हे हिन्दी से प्रेम है, कुछ उम्र दराज दक्षिण भारतीय चिट्ठाकारो का हिन्दी प्रेम मुझे नितांत सराह्नीय लगा ।

खैर, इन सब बातों से आप सभी लोग भी भली भांति परिचित है, इसलिये इस बारे मे अधिक कुछ नही कहुंगा ! जो मै आज के इस सुअवसर पर यहां कहना चाहता हूं, वह यह कि आज हम हिन्दी के हजारों चिठ्ठाकार यहां अपनी-अपनी मौलिक, समसामयिक, राजनैतिक, आर्थिक और मनोरंजनात्मक रचनाओ और विचारो को इस प्लेटफार्म पर एक दूसरे से न सिर्फ़ बांटते है अपितु एक दूसरे के सुख-दुख मे भी भागीदार बनते जा रहे है । और यह सब सम्भव हो पाया है उन लोगो और सस्थाओं के अथक प्रयास से, जिन्होने हमे यहां हिन्दी मे लेखन की सुविधा उपलब्ध कराई ।

तो आईये, आज हम सब "गरीब" हिन्दी चिठ्ठाकार मिलकर इस खास अवसर पर और कुछ नही तो उन सब लोगो और संस्थाओ का अभिनन्दन एवं हार्दिक धन्यवाद करें, जिन्होने अपने अथक प्रयास से हमारे लिये हिन्दी लेखन को आसान बनाने मे अपना मह्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
तज दिया सबल ने, निर्बल के मुख है डेरा,
हिन्दी हूँ मै, वतन है हिन्दोस्तां मेरा !!
जय हिन्द !

Tuesday, September 8, 2009

लघुकथा- कमीना शेर !

अभी शादी हुए मात्र चार ही साल तो हुए थे! बहुत खुश रहती थी ऋचा अपने उस भरे पूरे परिवार के साथ ! पति के साथ ही उसी दफ्तर में नौकरी करती थी! बेटा जब तीन महीने का था, दोनों बेफिक्र हो उसे उसके दादा- दादी के पास छोड़ उसी बाइक में सवार हो ऑफिस आते-जाते, जो ऋचा को उसके मामा ने शादी पर उपहार में दी थी! ऋचा के जेठ-जेठानी भी दोनों बैक मैं नौकरी करते थे, घर में हर तरफ खुशहाली थी! मगर अचानक एक दिन न जाने उनकी खुशहाली को किसकी नजर लग गई ! ऋचा फिर एक बार उम्मीद से थी, और तबियत ढीली होने की वजह से उस दिन छुट्टी कर गई थी ! दीपक सुबह अकेले ही ऑफिस गया था! और शाम को लौटते वक्त ब्लू लाइन बस रूपी काल का ग्रास बन गया!

अशक्त ऋचा बहुत तड़पी! बार-बार सिर पीटकर किस्मत को यही कोसती रही कि मैं क्यों नहीं आज दीपक संग दफ्तर गई ! खैर, समय बलवान होता है, और उसके समक्ष सभी को झुकना पड़ता है! कुछ दिनों के रोने पीटने के बाद घर के हालात कुछ सामान्य तो हुए, मगर अमूमन जैसा कि देखने में आता है, हवाए अब बदली-बदली सी थी!सास-ससुर और घर के अन्य सदस्यों का बर्ताव एकदम अलग था, ऋचा के साथ ! तंग आकार ऋचा उस घर को सदा के लिए छोड़, पिता के घर वापस आ गई !

दोनों बच्चो, प्रतीक और दीपिका को नाना-नानी की देखरेख में छोड़ उसने फिर से अपनी नौकरी ज्वाइन कर ली ! लेकिन बूढे माँ-बाप दिन रात इसी चिंता में डूबे थे कि हमारे बाद ऋचा किस तरह इतना लंबा जीवन सफ़र तय करेगी? काफी सोच विचार कर, और गहमा-गहमी के बाद उन्होंने ऋचा को दोबारा शादी के लिए राजी कर लिया था ! अखबारों में इश्तिहार दिए गए, लेकिन कोई सुयोग्य रिश्ता नहीं मिला! फिर एक दिन शाम को कालोनी के पार्क में बैठे-बैठे मोहल्ले के एक अन्य वृद्ध सज्जन ने उन्हें अपनी जान-पहचान में एक रिश्ता बताया!

साहिबाबाद के एक स्टील प्लांट में मैनेजर, मुकेश सिंह एक नहीं, अपितु दो बार का विधुर था ! पहली शादी के चंद रोज के बाद कुल्लू में हनीमून के दौरान ही एक दुर्घटना में पत्नी को खो देने के बाद, उसने दूसरी शादी की थी, मगर प्रसव के दौरान वह भी चल बसी ! माता-पिता द्बारा प्रारम्भिक जांच पड़ताल के बाद मुकेश और ऋचा की मुलाकात कराई गई, और दोनों ने एक दूसरे को पसंद कर लिया! मुकेश को ऋचा की सारी शर्ते भी मंजूर थी! अतः साधे ढंग से दोनों की शादी करा दी गई! प्रारम्भिक छह महीनो तक तो ऋचा ने अपने दोनों बच्चे, सात साल के प्रतीक और तीन साल की ऋचा को माँ-बाप के पास ही छोडे रखा, लेकिन मुकेश की बच्चो के प्रति आत्मीयता और लगाव को देख, अच्छी तरह से आस्वस्थ हो जाने के बाद, जुलाई में अपने घर के नजदीकी पब्लिक स्कूल में दोनों का दाखिला करवा कर अपने साथ ले आई थी! करीब दो महीने तो सब कुछ सामान्य चला, बच्चे भी नए घर में काफी खुश थे!

मगर जंगल के उस नए राजा के दीमाग में तो कुछ और ही पक रहा था! चूँकि शेरनी ने उससे पहले ही यह शर्त मनवा ली थी कि उसके इन दो बच्चो के अलावा तीसरा नही ! मगर जंगल का वह कमीना राजा कैसे दूसरे शेर के बच्चो को अपना बच्चा मान लेता! उसे तो अपना बंश आगे बढाने की चिंता खाए जा रही थी! शैतानी दिमाग झाडियों में पड़े-पड़े तरकीबे सोचने में लगा था! और फिर उसके दिमाग ने वह शैतानी चाल चलने की सोच डाली जिसकी शेरनी ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी! कमीने शेर को तो बस शेरनी को किसी तरह आगे संतान उत्पत्ति के लिए विवश करना था! स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चे सीधे क्रेच में जाते थे, और शाम को जब ऋचा घर लौटती तो उन्हें भी साथ घर ले आती ! एक दिन जब शेरनी भोजन की तलाश में गई थी, मौका पाकर शेर ने दोपहर के समय ही बच्चो को क्रेच से उठा लिया और फिर ...................! पुलिस ने नाले से दोनों बच्चो के अवशेष निकाल पोस्ट मॉर्टम के लिए भेज दिए थे ! पुलिस की शक्ति बरतने के बाद मुकेश ने भी सच्चाई उगल दी थी, और जड़-पत्थर बनी ऋचा सोच रही थी कि एक शिक्षित और सभ्य सा दिखने वाला इंसान भी कहां तक अपने कमीनेपन की हदे लाँघ देता है !

घर में अगर कुछ बचा-खुचा भोजन है तो दे दे माई !

इ-मेल के मार्फ़त यह मेसेज मुझे अभी प्राप्त हुआ ! मुझे भी नहीं मालूम कि इसको मैं अगर अपने ब्लॉग पर डालू तो क्या किसी के लिए लाभदायक सिद्ध होगा ! लेकिन हाँ , अगर यहाँ पोस्ट करने से यह सचमुच किसी के काम आता है तो मैं खुद को धन्य समझूंगा !
If you have a function/party at your home and if there is excess food available at the end, don't hesitate to call 1098 (only in India) - child helpline. They will come and collect the food.

Please circulate this message which can help feed many children.

PLEASE, DON'T BREAK THIS CHAIN....

"Helping hands are better than Praying Lips".

Pass this to all whom you know and whom you dont know as well.
फोटो को अगर बड़े आकर में देखना चाहते हो तो कृपया फोटो पर किल्क करे !