Wednesday, December 30, 2009

ठीक दस साल पहले मिली थी वो मुझे ! (दूसरा और अंतिम भाग)

...धीरे-धीरे शाम का धुंधलका जमीन पर पसरने लगा था, मैं फिर चलने के लिए खडा हुआ तो वह वह भी उठ खडी हो गई। अभी तक की इस मुलाक़ात से मानो किसी अधिकार पूर्ण अंदाज में जब एक बार फिर से मैंने उसे साथ चलने का इशारा किया, तो वह भी तुरंत मेरे साथ चल दी। पार्क के बाहर खडी गाडी के पास पहुँच मैंने गाडी की ड्राइविंग सीट के बगल वाली सीट के सामने का दरवाजा खोला तो वह झट से गाडी में चढ़कर सीट पर बैठ गई। और फिर मैं ड्राइव करता हुआ इंडिया गेट पहुंचा । अब तक घुप अँधेरे में पूरा इलाका डूब चुका था, मगर इंडिया गेट पर बिखरी बिजली की रोशनी से पूरा राजपथ जगमगा रहा था। एक जगह गाडी को पार्क कर हम गाडी में ही बैठे रहे। नए साल की पूर्व संध्या होने की वजह से मैंने अपने खाने-पीने का भी पहले से ही गाडी में पूरा इंतजाम रख छोड़ा था। वहाँ घूमते लोगो, ख़ासकर नए जोड़ो को निहारते और व्हिश्की के हल्के घूंटो के साथ मैं चिकन का सेवन करता और एक चिकन पीस उसकी तरफ बढ़ा देता था। वह भी बड़े चाव से आराम से बैठ कर खा रही थी, सलीके के साथ। फिर जब अचानक आकाश में कुछ आतिशबाजी दिखी, तो मैं समझ गया कि रात के बारह बज चुके है। ड्रिंक और खाने-पीने का सामान भी समाप्त हो चुका था। हमारी दिन भर की इतनी लम्बी मुलाक़ात के बावजूद भी अब तक दोनों के बीच एक भी लफ्ज का आदान-प्रदान नहीं हुआ था, बस इशारों में ही बाते हुई थी । अत: मैंने एक बार फिर से उसके सिर पर हाथ फिरते हुए कहा 'हैप्पी न्यू इयर माई डियर', अगर मैं तुम्हे 'स्वीटी' कहकर पुकारू तो तुम्हे बुरा तो नहीं लगेगा ? मेरा इतना कहना था कि उसने एक हल्की कूँ-कूँ की आवाज गले से निकाली और जोर से अपनी पूँछ हिलाते हुए, अपने दोनों अगले पंजे मेरे कंधे पर रखते हुए, दो बार भौ-भौ किया, तो मैं समझ गया कि इसे मेरे द्वारा दिया गया नाम पसंद आ गया है । बस फिर मैंने झट से गाडी स्टार्ट की और अपनी लिखी कविता की इन लाइनों को गुनगुनाता हुआ उसे अपने घर ले आया, और तबसे वह मेरे साथ है ;

कल उषा की पहली किरण पर
दिनकर उगेगा नव-बर्ष का,
उज्जवलित कण-कण तुषार का
जगत को पैगाम देगा हर्ष का !

साक्षी बनेगा रोशनी का बांकपन ,
भोर शीतल सुहाने दृष्ठि बंधन का,
मृदु विहगों का कलरव संगीत और
लय भरा जीवन सृष्ठि स्पंदन का !

अब और न व्यग्र जीवन होगा
अस्तित्व के संघर्ष का,
नव उमंग और नव तरंग संग
उदय होगा उत्कर्ष का !

हो सभी की इच्छाए पूर्ण
ऐसा उस उदित प्रभा को बनायें,
नूतन बर्ष की नव बेला पर
सभी को मेरी हार्दिक शुभकामनाये !
Wishing you & all your family members a very joyous new year-2010 !!!!

Tuesday, December 29, 2009

ठीक दस साल पहले मिली थी वो मुझे !

कब न जाने यु ही पलक झपकते दस साल गुजर गये, पता ही न चला। अचानक मुझसे मिलना और फिर कुछ ही लम्हों मे सदा के लिये मेरे साथ ही ठहर जाने का घडी भर मे लिया उसका वो फैसला आज भी वक्त बे-वक्त मुझे उन लम्हों के बारे मे सोचने पर मजबूर कर देता है। मैं समझता हूं कि इतनी जल्दी फैसला कोई भी प्राणि दो ही परिस्थितियों मे लेता है, एक तो तब जबकि उसे जो मिला है उसको पाने की उसकी चाहत बहुत पुरानी हो और अचानक वह उसे मिल जाये, दूसरा तब जबकि उसके पास और कोई विकल्प हो ही ना । मेरे हिसाब से उसके लिये भी शायद दूसरी परिस्थिति ही ज्यादा प्रबल रही होगी।

बच्चो से बेहद लगाव रखने वाली स्वीटी ने दो बार दस सालो के दर्मियां मां बनने का असफ़ल प्रयास भी किया, लेकिन उसका दुर्भाग्य कि वह मातृत्व सुख पाने से वंचित रही, पैदा होने के चंद रोज बाद ही बच्चे चल बसे। स्वभाव से बहुत सरल और एक अजनवी से भी शीघ्र घुल-मिल जाने की उसकी खूबियों ने उसे शीघ्र ही मुह्ल्ले मे भी सबकी चेहती बना दिया। मौका मिलने पर हल्के-फुल्के मजाक करने से भी नही चूकती, मसलन सर्दियो मे जब सुबह-सबेरे बिस्तर से उतरते ही पैर चप्पल अथवा स्लिपर ढूढने लगते है, तो उसे जैसे ही यह अहसास होने लगता है कि मैं पलंग से नीचे उतरने वाला हूं, तो वह तुरन्त मेरे चप्पलों को उठाकर दस कदम दूर ले जाकर रख देती है । मेरे लाख आग्रह के बावजूद भी क्या मजाल कि मै उसे चप्पल वापस जगह पर लाने के लिये मना सकू, लेकिन ज्यों ही नंगे पांव दूर पडे चप्पलों को लेने बढता हूं, वह खुद ही लाकर चप्पल मेरे पैरों के पास रख देती और फिर मेरे से आलिंगनबद्ध हो जाती है। शाम को दफ़्तर से जब घर लौटता हूं तो मेरे घर से सौ मीटर दूर गली के मोड पर मै अक्सर ही गाडी का हौर्न बजाता हू, और वह हौर्न सुनते ही तुरन्त घर के मेन गेट पर आकर खडी होकर बेसब्री से मेरा इन्तजार करने लगती है।

३१ दिसमबर, १९९९ और दिल्ली का बुद्धा गार्डन, यही तो थी वो तिथि जब मैं शरद ऋतु की एक ठंडक भरी दोपहर को अकेला गुम-सुम सा पार्क की हरी दूब मे लेटकर धूप का आनन्द लेते हुए एक मैग्जीन के पन्ने पलटे जा रहा था। वह कब न जाने मेरे एकदम समीप आकर बैठ गई, और मुझे पता भी तब चला, जब मैने कुछ आहट सुनकर मैगजीन से अपना ध्यान हटाया था। वह दीखने में एक खाते-पीते घर की लग रही थी, सुनहरा डील-डौल बदन, खिले हुए चेहरे पर तिरछी नजरों से मुझे कुछ इस तरह देख रही थी, मानो मुझसे कुछ कहना चाहती हो। मैं भी उसके मन के अन्दर के भावो को भांप चुका था। कुछ देर मैंने भी जब उसे निहारा और उसने मुझ पर से नजरे नहीं हटाई तो, मैंने अपना हाथ आगे उसकी तरफ बढ़ा दिया। अरे, यह क्या, उसने भी झट से अपना हाथ मेरे हाथ में रख दिया था। मैं उसी अध्-लेटी हुई स्थिति में घास पर खिसकता हुआ उसके करीब जा पहुचा और उसके बालो को सहलाने लगा था। बस फिर क्या था, मानो वह भी इसी वक्त की प्रतीक्षा में थी, उसने भी बैठे-बैठे अपनी गर्दन मेरे काँधे पर सटा दी और मेरे चेहरे को चूमने लगी। मैं भी अपने ओंठो को गोल-गोल घुमा कर एक हिन्दी गीत "तुम आ गए हो नूर आ गया है ...." सीटी बजाने के अंदाज में गुनगुनाता हुआ उसके सिर पर हाथ फेर उसके बालों को सहलाता चला गया था।
………॥ इस संस्मरण का दूसरा और अंतिम भाग कल॥

Wednesday, December 2, 2009

फ्रांस की क्रांति जैसी क्रांति क्या इस देश मे भी….. ?



शुरु करने से पहले, संक्षेप मे आये देखें कि क्या थी फ्रांस की क्रान्ति और कैसे आई थी वह क्रांति।१७८९ -१७९९ फ्रांस के इतिहास में राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल और आमूल परिवर्तन की अवधि थी, जिसके दौरान फ्रांस की सरकारी सरंचना, जो पहले कुलीन और कैथोलिक पादरियों के लिए सामंती विशेषाधिकारों के साथ पूर्णतया राजशाही पद्धति पर आधारित थी, अब उसमें आमूल परिवर्तन हुए और यह नागरिकता और अविच्छेद्य अधिकारों के प्रबोधन सिद्धांतों पर आधारित हो गयी। आर्थिक कारकों में शामिल थे अकाल और कुपोषण, जिसके कारण रोगों और मृत्यु की सम्भावना में वृद्धि हुई, और क्रांति के ठीक पहले के महीनों में आबादी के सबसे गरीब क्षेत्रों में भुखमरी की स्थिति पैदा हो गयी। अधिक बेरोजगारी और रोटी की ऊँची कीमतों के कारण भोजन पर अधिक धन व्यय किया जाता था, और अन्य आर्थिक क्षेत्रों में धन का व्यय अल्प होता था। भ्रष्टाचार अपने चरम पर था, और यह भी एक उलेखनीय बात है की इस क्रांति को सुलगाया वहाँ की महिलाओं ने । कहा जाता है की एक बार जब तंग आकार महिलाओ ने उस होता को घेरा जिसमें शाही परिवार ठहरा था, तो जब राजकुमारी ने उनके आन्दोलन करने का कारण पूछा तो लोगो ने कहा की हम भूखे है हमें रोटी नहीं मिलती तो उसका जबाब था की अगर रोटी नहीं है तो ब्रेड क्यों नहीं खा लेते ? बस, राजकुमारी के इस कथन ने एजी में घी का कम किया और फ़्रांस जल उठा।



एक अन्य कारण यह तथ्य था कि लुईस XV ने कई युद्ध लड़े, और फ्रांस को दिवालिएपन के कगार पर ले आये, और लुईस XVI ने अमेरिकी क्रांति के दौरान उपनिवेश में रहने वाले लोगों का समर्थन किया, जिससे सरकार की अनिश्चित वित्तीय स्थिति और बदतर हो गयी। आखिरकार 9 नवंबर 1799 को (18 Brumaire of the Year VIII) नेपोलियन बोनापार्ट ने 18 ब्रुमैरे के तख्तापलट का मंचन किया जिसने वाणिज्य दूतावास की स्थापना की. इससे प्रभावी रूप से बोनापार्ट की तानाशाही को मदद मिली और अंत में (1804 में) उसे सम्राट (Empereur) बनाया गया. जो फ्रांसीसी क्रांति की रिपब्लिकन अवस्था को विशेष रूप से करीब ले आया।


आज हालात तो हमारे देश मे भी उस क्रांति के पहले के फ़्रांसिसी हालात से ज्यादा भिन्न नजर नही आते है। आज जब हमारा यह देश, जहां मंदी, महंगाई और बेरोजगारी की वजह से भुखमरी के कगार पर खडा है, जहां आज देश का गरीब तबका सौ रुपये किलो की दाल खरीदने को मजबूर है, आज जहां एक अस्सी रुपये की धिआडी कमाने वाला मजदूर अपने परिवार को दो जून की रोटी मुहैया करा पाने मे असमर्थ है, वहीं दूसरी तरफ़ महाराष्ट्रा की कौंग्रेस-एनसीपी सरकार अपने नेताऒं के युवा होनहार नौनिहालों को न सिर्फ़ अनाज से दारू बनाने के लाइसेंस बांट रही है, अपितु उन्हे अन्य सुविधायें भी सरकारी खर्च पर मुहैया करवा रही है। अब जरा सोचिये, एक तरफ़ देश की जनता के पास अपने बच्चो को भरपेट खिलाने के लिये अनाज उप्लब्ध नही है, वहीं दूसरी तरफ़ ये देश के राजनीतिज्ञ उस बहुमुल्य अनाज से दारू बनाकर मोटी रकम कमाने पर आमदा है। इनकी बला से देश और देश की गरीब जनता जाये भाड मे। हमारे इस देश के सेक्युलर मीडिया ने भले ही अपने निजी स्वार्थो के चलते इसे बडी खबर न बनाया हो लेकिन आपको शायद यह’ याद हो, कि करीब डेड साल पह्ले हमारी सरकार ने हजारों टन गेहुं आयात किया था, मगर चुंकि वह गेहुं जानवरों को खिलाने के लिये भी उपयुक्त न था, अत: उसे, जैसा कि कुछ खबरों मे बताया गया था, समुद्र मे ही डुबा दिया गया । आपको शायद मालूम हो कि हजारों टन दाल जो आयात कर कलकता पोर्ट पर आई थी, वह समय पर न उठा पाने की वजह से बन्दरगाह पर पडे-पडे ही सड गई। इन सब घटनाओ से तो ऐसा ही लगता है कि देश और जनता की किसी को कोई फिक्र नही।

लगता तो यह है कि शायद अपने अच्छे कर्मो ( मालूम नही इस जन्म या पिछले जन्म) की वजह से मौन सिंह एकदम मौन बैठा अपनी रिटायरमेंट जिन्दगी मजे से गुजार रहा है, और उनकी प्रोक्सी तले, और इस देश की मूर्ख वोटर जमात की वजह से देश की सत्ता पर काबिज लोग, दोनो हाथों से देश को लूटने मे लगे है। गरीब और अमीर न कहकर यों कहे कि गरीब और लुटेरों के बीच खाई निरन्तर बढती ही जा रही है। अब सवाल यह उठता है कि क्या यह सब कुछ यों ही चलता रहेगा या फिर लोग फ़्रांस जैसी किसी क्रांति के लिये अपने हक मे उठ खडे होने का साहस दिखा पायेंगे ? दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते है कि क्या ये लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकारे भी इस देश की जनता को उस स्थिति तक पहुँचने के लिए मजबूर कर रही है ?