Friday, May 29, 2009

सिपै चचा !

सूबेदार पूरण सिंह अपने गाँव के वे पहले व्यक्ति थे, जो आजादी के बाद सेना में भर्ती हुए थे । अतः रंगरूटी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद जब वह पहली बार गाँव आये तो गाँव के बच्चो ने उनका नया नामकरण कर डाला था 'सिपै चचा' यानि सिपाही चाचा । कुछ सालो बाद न सिर्फ बच्चे, अपितु गाँव के बड़े-बूढे सभी उनके लिए इसी नाम का संबोधन करने लगे थे, और तब से आज तक वे इसी नाम से जाने जाते है। अपने जवानी के दिनों में जब सिपै चचा छुट्टी आते थे और अपनी फौजी ड्रेस में एक बिस्तरबंद और एक काला बक्सा लिए गाँव की पहाडी धार वाली सड़क में बस से उतरते थे, तो गाँव में एक अलग ही किस्म का उत्साह सा फैल जाता था। गाँव के कुछ युवा दौड़कर सड़क में ही पहुच जाते और कोई चचा का बैग उठाता, कोई बक्सा और कोई विस्तरबंद । वे ज्यों-ज्यों गाँव के नजदीक पहुँचते, शाम को हुक्का गुडगुडाते हुए चौपाल में बैठे लोग आपस में काना-फूसी करते " सिपै चचा लगता है इस बार माल-ताल काफी लाया है, बक्सा भारी प्रतीत हो रहा है। " माल-ताल से उनका एक ही तात्पर्य होता था, वह था, रम की बोतल ।

इस बार सिपै चचा की भतीजी, रूपा तकरीबन २ साल के बाद गर्मियों की छुट्टिया बिताने दिल्ली से कल ही अपने मायके आयी थी। साथ में वह चचा के लिए कुछ फल-फ्रूट लाई थी, इसलिए आज दिन में ही वह अपने मायके के घर से करीब १५० मीटर की दूरी पर स्थित, सिपै चचा के कुटिया-नुमा घर में उनसे मिलकर आयी थी, और चचा की दयनीय हालत देखकर मन ही मन बहुत खिन्न थी । उनके पैर पर लकवे के दुबारा मार जाने की वजह से वे अब ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे । चचा के प्रति वह सालो से मन में पल रहे एक अपराधबोध से घुटती रहती थी । जब कभी वह रणु और उसकी पत्नी तारा को आपस में खिलखिलाकर हँसते हुए देखती थी तो उसका खून खौल जाता था, और उसका मन करता कि वह इन दोनों का क्या कर दे। रणु तो रूपा से ठीक से नजरें भी नहीं मिला पाता था, उसे देखते ही उसकी घिग्घी सी बंध जाती थी, किन्तु तारा पर उसके सामने होने न होने का कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता था ।

चूँकि गर्मियों के दिन थे, अतः रात्री भोजन के उपरांत अपने डेड बर्षीय बेटे को कमरे में सुला, वह पिता द्बारा हाल ही में बनाये गए ईंट, सीमेंट और कंक्रीट के नए मकान की छत पर बैठ, ख्यालो में गुमसुम, भीनी-भीनी चांदनी में दूर सिपै चचा की कुटिया को निहारते हुए कहीं अपने अतीत में खो गयी थी । वह तब ८ साल की थी, जब उसने वह भयावह मंजर अपनी नन्ही आँखों से देखा था। उसे याद है कि सिपै चचा और चाची अपने इकलौते बेटे रणु को कितना प्यार करते थे, और शायद उनका उसके लिए वह अपार प्यार, प्रेम ही एक नासूर बन बैठा था । चाची अपने इस कुपूत को बस दिन भर कुछ ना कुछ खिलाती रहती थी। और जब भी वह आस-पास होता था, बार-बार उसे यही पूछती रहती कि बेटा तुझे भूख तो नहीं लगी । अगर उसने थोड़ी देर पहले ही पेट भर खाना खाया भी हो तो भी एक-दो घंटे बाद पुनः चाची कहती, बेटा आज तूने खाना कम खाया, तुझे भूख लग गयी होगी, ठहर मैं तेरे लिए एक-दो गरमा-गरम रोटी पकाती हूँ । और फिर कुछ देर बाद उसे रोटी और घी की कटोरी थमा देती थी । सिपै चचा भी जब छुट्टियां लेकर गाँव आते तो पूरे दो महीने की छुट्टियों भर उसी के आगे पीछे घूमते रहते । चचा की दिली तमन्ना थी कि रणु के साथ उसकी एक बहन भी हो, किन्तु रणु के जन्म के समय चाची को अनेक शल्य-चिकित्साओ से गुजरना पड़ा था, और उसकी वजह से यह नामुमकिन हो गया था ।

माता-पिता को इस अपने इकलौते बुढापे के सहारे, रणु से बहुत अपेक्षाए थी, मगर माँ-बाप के अथाह लाड-प्यार ने रणु के दिमाग को कदाचित सातवे आसमान पर पंहुचा दिया था । पंद्रह साल का होते होते उसने न सिर्फ कई व्यश्न अपना लिए थे अपितु पास के गाँव की ही अपनी हमउम्र तारा से इश्क का चक्कर भी शुरु कर दिया था । नतीजन, पढाई-लिखाई सब चौपट हो गए थे । दसवी में फेल होने और उसके बाद उसके तारा से संबंधो का पता चलने के बाद चाची भी दुखी थी । अब वह उसे डांटने के साथ-साथ उस पर कभी-कभार हाथ भी उठा देती थी। लेकिन सत्रह साल की उम्र तक पहुंचते-पहुँचते रणु के दिमाग और ज्यादा खराब हो गए थे, और अब तो जब कभी चाची उससे पढने की बात को लेकर, लड़ते-झगड़ते उस पर हाथ उठाने की कोशिश करती थी तो वह भी साथ में चाची पर हाथ चला देता था।

और उस दिन तो उसने अपनी सारी हदे ही पार कर दी, जब सुबह के वक्त चाची उसे स्कूल जाने के लिए कह रही थी, मगर वह था कि मना कर रहा था। जब लाख बोलने पर भी वह नहीं माना तो घर के ऊपरी हिस्से में बने बरामदे में चाची पास पडी एक लकडी उठा गुस्से में मारने के लिए उसकी तरफ बड़ी तो उसने चाची को खींच कर तकरीबन चार मीटर ऊँची घर की मोटे-मोटे नोकीले पत्थरों की सीडियों से नीचे धकेल दिया था । पास खडी रूपा यह देख हतप्रभ रह गयी और उसके मुह से चीख निकल गयी। आस-पास के घरो के लोग या तो घर के अन्दर काम में व्यस्त थे या फिर खेत-खलिहानों में निकल गए थे। नोकीले पत्थरो में टकराने से चाची के सिर पर गहरी चोट लग गयी थी, और थोड़ी देर छटपटाने के बाद उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। रणु ने जल्दी से रूपा का मुह दबाया और उठाकर अन्दर कमरे में लेजाकर उसे डराने धमकाने लगा कि अगर उसने इस बात के बारे में किसी को भी बताया, तो वह उसको भी कहीं पहाडी से फ़ेंक देगा । साथ ही उसने उसे रोज एक टॉफी लाकर देने का लालच भी दिया था। थोड़ी देर बाद जब रूपा की माँ की नजर सीडियों के नीचे औंधे मुह गिरी, खून से लथपथ चाची पर पडी तो उसने चीख-चिल्लाकर गाँव के लोगो को इकठ्ठा किया। रणु अन्दर कमरे में बैठा इस तरह का नाटक कर रहा था, मानो उसे इस बारे में कुछ भी पता नहीं। जब माँ ने उसे रणु-रणु की आवाज लगाईं थी, तो तब जाकर वह कमरे से बाहर निकला था और चाची के शव पर लोटकर रोने का नाटक करने लगा था।

गाँव के लोग इसे चाची के सीढियों से फिसलकर गिरने की महज एक दुर्घटना मान बैठे थे । सिपै चचा उस समय सियाचिन में पोस्टेड थे, उन्हें टेलीग्राम किया गया । आनन-फानन में चचा तीसरे दिन घर पहुचे थे और पत्नी के इस असामयिक निधन से टूट गए थे । लेकिन दूसरी तरफ मानो रणु की लॉटरी खुल गयी थी, गाँव के बड़े-बुजुर्गो ने जब चचा को रणु की शादी कर देने की सलाह दी तो रणु ने भी झट से तारा से शादी करवाने की बात कही । न चाहते हुए भी चचा ने लडकी वालो की रजामंदी के बाद उसकी शादी तारा से कर दी, क्योंकि उन्हें वापस अपनी ड्यूटी पर लौटना था और घर में रणु अकेला हो गया था । मगर वो कहावत है कि मुसीबत जब आती है तो चारो तरफ से आती है। चूँकी चचा सियाचिन के उस हाई अल्टीट्युड इलाके में पिछले काफी समय से पोस्टेड थे, और उस समय सियाचिन को हथियाने के लिए पाकिस्तानी सैनिक कई नाकाम कोशिश कर चुके थे, इसलिए वे हर वक्त अपनी टुकडी के साथ पेट्रोलिंग पर रहते थे। कदाचित उन्हें वहाँ अनेको मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा था, जिसमे से एक प्रमुख समस्या यह भी थी कि घंटो पेट्रोलिंग पर रहते हुए तमलेट में मौजूद पीने का पानी जम जाता था, अतः सैनिको के पास कोई व्यैकल्पिक साधन न होने से प्यास से बुरी तरह जूझना पड़ता था। दिन के समय ऊपर से तेज धूप और नीचे बर्फ ही बर्फ । चचा ने इसका तोड़ यह निकाला कि खाली तमलेट में आधे से अधिक जगह में कैम्प से बाहर निकलते वक्त गरम पानी भर देना और फिर उसके ऊपर एक गिलास रम डाल देना । इससे तमलेट में पानी के साथ एल्कोहल मिल जाने की वजह से पानी शीघ्र जमता नहीं था। साथ ही वे लोग अपने शरीर में गर्मी भी महसूस करते थे । सामान्य परिस्थितियों में इस तरह के हाई अल्टीट्युड जगहों पर सैनिको को भेजने-लाने से पहले उस माहोल में रहने के लिए उन्हें उचित जगह पर तैयार किया जाता है, किन्तु जब अचानक चचा को इमरजेंसी छुट्टी आना पड़ा तो उनके शरीर पर इसका बुरा असर हो गया, और उनके दाहिने पैर के एक हिस्से को लकवा मार गया था ।

करीब एक साल तक दिल्ली के सुब्रतो पार्क स्थित आर-आर सेंटर में इलाज करवाने के बाद चचा ठीक भी हो गए थे, और उसके छह महीने बाद उनका रिटायर्मेंट भी हो गया था। लेकिन घर पहुँचने पर उनको शकून नहीं मिला । तारा और रणु की हरकतों से तंग आकर उन्होंने वहीं गाँव में थोड़ी दूरी पर एक चौडे खेत में अपनी कुटिया बना डाली और उसमे वे आस-पास के गाँव के गरीब बच्चो को पढाने का काम भी करने लगे थे। लेकिन रणु इतने से भी कहा मानने वाला था, उसने बहला-फुसला और जोर जबरदस्ती से चचा का सारा जो रिटायरमेंट का फंड था, वह भी हड़प लिया था। चाची की हत्या के बाद वह कुछ दिनों तक रूपा को टॉफी खिलाकर बहलाता-फुसलाता रहता था, वह कई बार सोचती थी कि घरवालो को साफ़-साफ़ बता दे, लेकिन फिर रणु की धमकिया याद आने पर वह डर जाती और उसके करीब तीन साल बाद रूपा के पिता रूपा और परिवार को अपने साथ कुछ सालो के लिए शहर ले गए थे । रूपा जब समझदार हुई तो उसे हरवक्त यही अपराधबोध सताता रहता था कि उसने उस घटना की सच्चाई लोगो को उस समय साफ़-साफ़ क्यों नहीं बताई ।

आज जब उसने चचा की हालत देखी तो उसका रोम-रोम रो उठा था । कभी दुश्मन के दांत खट्टे करने वाला वह हृष्ट-पुष्ट इंसान जीवन के इस मोड़ पर शारीरिक विकलांगता और अपने घर में अपनों से ही जंग हारकर अलग एक कुटिया में बैठा, अपनी कर्कश आवाज में रोज देर रात को सोने से पहले दो लाईने 'पिंजडे के पंछी रे...' वाले गीत की गाया करता। वह इन्ही सोचो में डूबी मन ही मन भगवान् से प्रार्थना कर रही थी कि हे भगवान्, इस जालिम कुपूत रणु को इसी जन्म में यह अहसास अवस्य दिलाना कि माँ-बाप को अपनी बिगड़ी औलाद के प्रति क्या दुःख रहता है, तथा औलाद का माँ-बाप के प्रति क्या फर्ज बनता है, कि तभी माँ ने ऊपर छत में आकर रूपा के कंधे पर हाथ रखकर पुछा था कि बेटी, बहुत रात हो चुकी, तू यहाँ अकेली बैठी क्या कर रही है, अब जा सो जा । उसे उदास देख सिर पर हाथ फेर उससे फिर पुछा था कि क्या उसे विनय की याद आ रही है ? उसने न माँ में जबाब दे, अपनी भीगी पलकों को पोंझ, ज्यों ही खड़े होकर अपने कमरे की और रुख किया कि सिपै चचा की वही कर्कस आवाज उन शांत और सुनशान पहाडी फिजावो में एक बार फिर गूँज उठी;

चुपके-चुपके रोने वाले, रखना छुपा के दिल के छाले रे,
ये पत्थर का देश है पगले, कोई न तेरा होए,
तेरा दर्द न जाने कोए...... !

2 comments:

Sachi said...

सुन्दर कहानी, मगर कई सच ऐसे होते हैं, जो अगर समय पर बताये न जाए तो आप उन्हें कभी भी बता नहीं सकते!

बस माँ बाप का प्रेम ही इस दुनिया में शास्वत है. कई उसे भी गंवा देते हैं. माँ बाप भी कई बार इसके लिए जिम्मेवार होते हैं.
गहन चिंतन की ओर ले गयी आपकी ये कहानी.

पी.सी.गोदियाल said...

Thankyou, so much Sachi ji, aapke shabdo se prerna milee !!