Thursday, June 18, 2009

बेईमान बड़ा भाई !

भरी महफ़िल में लोग आज बुजुर्ग और सम्मानित शास्त्रीजी की वे छोटी-छोटी कहानियाँ ध्यान लगाकर और बड़े चाव के साथ सुन रहे थे, जिसमे शास्त्री जी हर परिवार के बड़े बेटे को बेईमान ठहराने पर तुले थे। शास्त्री जी अपने इस तर्क को कि परिवार में जो सबसे बड़ा पुत्र होता है, वह अक्सर बेईमान और धोखेबाज होता है, सही ठहराने के लिए अब तक तीन-चार छोटी-छोटी कहानिया सुना चुके थे, कि कैसे परिवार के बड़े पुत्र ने अपने छोटे भाई-बहनों के साथ धोखा किया। उनकी कहानिया और उस पर आधारित तर्क सुनकर कुछ लोग तो स्तब्ध थे, मगर कुछ लोग, जिन्हें वह कहानिया और तर्क सूट करते थे, या यों कहे कि जिन्हें परिवार का बड़ा बेटा होने का दुर्भाग्य प्राप्त नहीं हुआ था, वे शास्त्री जी की जय-जयकार कर रहे थे, और साथ ही उस अज्ञात 'बड़े भाई ' को दिल खोल कर बुरा भला भी कहे जा रहे थे। उनमे से एक-आध का बस चलता तो वे यहाँ तक सुझाव देने को तैयार बैठे थे कि सरकार को चाहिए कि किसी भी परिवार में बड़ा बेटा पैदा होने पर ही प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए, और अगर कोई गलती से पैदा हो भी गया, तो पैदा होते ही उसका गला दबा दिया जाना चाहिए । ताकि आगे चलकर वह भी बेईमान और धोखेबाज न बने ।

उनकी बात ख़त्म हो जाने के बाद, अब तक पास में चुपचाप बैठे विकाश ने वाह शास्त्री जी वाह, कहकर ताली बजाई और कहा कि आपने तो पूरी की पूरी 'बड़े भाई' की जाति पर ही बेईमानी का ठप्पा लगा दिया । क्या बात है । और हाँ आपने यहाँ पर कुछ जख्मो को भी हरा कर दिया है। एक बारी उसका दिल किया कि शास्त्री जी से पूछे कि आप अपने परिवार में भाइयो में कौन से स्थान पर आते है? और अगर उनका जबाब यह रहता है कि वे परिवार के सबसे बड़े पुत्र नहीं है तो वह कहेगा कि शास्त्री जी, जभी तो आपने बिना सोचे-परखे बड़े भाई पर इतना बड़ा लांछन लगा दिया। लेकिन फिर वह कुछ सोच कर चुप रह गया। शायद उसके चुप रहने का एक कारण यह भी था कि उसने भी बचपन से आज तक अपने संस्कारों में, अपने व्यावहारिक जीवन में, बस सब्र करना और चुप रहना ही तो सीखा था । आज भले ही उसके जीवन के आधे पडाव पर उसके लिए उन बातो का कोई ख़ास महत्व नहीं रह गया हो, लेकिन परिवार में सबसे बड़ा होने के नाते उसको उसके संस्कारों में बचपन से लेकर जवानी की देहलीज तक, बस एक ही घुट्टी पिलाई गई थी कि "क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात, का रहीम हरी को घट्यो, जो भृगु मारी लात" ।

विकाश वहां से चुपचाप उठकर अपने घर की और चल पडा था, लेकिन शास्त्री जी के उस तर्क ने उसे अन्दर तक विचलित और व्यथित करके रख दिया था। उसका मन उसे अन्दर से इस बात के लिए बार-बार उकसा रहा था कि वह अभी वापस जाए और शास्त्री जी को बताये कि आज के अधिकाँश बच्चे तो काफी सौभाग्यशाली है कि वे या तो दो भाई ही है या फिर एक भाई-एक बहिन है, इसलिए बड़े भाई द्बारा बेईमानी और धोखेबाजी की तथाकथित गुंजाइश बहुत कम रह जाती है, लेकिन चंद दशको पूर्व तक जब माँ-बाप घर में बच्चो की एक पूरी फौज ही खडी कर डालते थे, तब अगर आप परिवार के सबसे बड़े पुत्र होते तो शायद आपने जरूर महसूस किया होता कि बड़ा बेटा या भाई होने का दर्द क्या होता है?

चलते-चलते उसकी आँखों में उसका अपना भूतकाल उसके सामने था । वह जब दो साल का हुआ था तो पीछे से परिवार में एक और भाई आ गया, और बस तभी से शुरू हो गई उसके भावनात्मक, पारिवारिक और सामाजिक शोषण के नए युग की शुरुआत । जब दो-तीन बर्ष का वह नन्हा विकाश आंगन में किसी खिलोने से खेल रहा होता था, और माँ की गोदी में बैठे उसके साल भर के छोटे भाई ने खिलोना उसे देने की जिद कर दी तो माँ कहती कि बेटा विकाश, तू बड़ा है, खिलौना छोटे को दे दे । कभी जब वह कोई टॉफी वगैरह खा रहा होता तो छोटा भाई अपने हिस्से का खा चुकने के बाद भी जिद कर दे तो माँ कहती कि बेटा अपने हिस्से में से भी उसे दे दे, तू बड़ा भाई है । अगर कभी मान लो कि नन्हे विकाश ने न देने की जिद कर दी तो माँ उसके एक-दो झांपड लगाने में भी देर न करती । मानो उस नन्ही जान की अपनी कोई ख्वाइश नहीं, कोई अपना बचपन नहीं । और फिर कुछ सालो में एक के बाद एक, पांच-छै बच्चो की घर में लाइन लग चुकी थी, और माँ-बाप की इस अय्याशी का दंश, ऊपर वाले की देन समझकर मुख्यत विकाश को ही हरवक्त झेलना पड़ता था।

पिता की एक अच्छी सरकारी नौकरी होने के वावजूद, बड़े परिवार की वजह से उसने न कभी बहुत अच्छा
खाया-पिया, और न कभी पहना । जैसे-तैसे सरकारी स्कूल से बारहवी पास की तो पिता ने हाथ खड़े कर दिए कि चूँकि अभी उसके पांच और छोटे भाई-बहन भी पढने लिखने वाले है इसलिए उसे आगे नहीं पढाया जा सकता । आगे पढने की प्रबल इच्छा के वावजूद हालात का मारा विकास अपने एक रिश्तेदार के साथ नौकरी करने मुम्बई पहुँच गया। होटलों में नौकरी करते-करते भी उसने ग्रेजूएसन कर दिया था। वह कभी-कभी सोचता था कि अगर माँ-बाप ने बच्चो की इतनी लम्बी लाइन नहीं लगाईं होती तो उनकी आर्थिक स्थिति भी इतनी खराब नहीं होती और वह मनचाहे ढंग से आगे तक पढ़ सकता था, एक बड़े परिवार के चलते सबसे बड़े बेटे को ही अपनी इच्छाओ और सुख-सुबिधावो की कुर्बानी देने पड़ रही थी ।

कुछ समय बाद उसे मर्चेंट नेवी में नौकरी मिल गई थी, और ट्रेनिंग ख़त्म करने के बाद वह खुशी-खुशी अपने जीवन की उस पहली लम्बी समुद्री यात्रा पर निकल पड़ा था। दूर पहाडो में बैठे उसके परिवार वालो को जब यह खबर मिली कि उनका बेटा मर्चेंट नेवी में लग गया है तो उनकी खुसी का कोई ठिकाना न था । माता-पिता भी बड़े-बड़े सपने देखने लगे थे । कुछ महीनो बाद जब वह गाँव वापस लौटा तो पिता ने पैसे का रोना रोते हुए उसकी छोटी बहन के हाथ पीले करने की जिम्मेदारी भी बड़ा भाई होने के नाते उसके कंधो पर डाल दी । और फिर उसने अपनी अब तक की कमाई से अपनी हैसियत के हिसाब से, बहन की धूम-धाम से शादी कर दी। और फिर एक साल बाद उसकी भी इलाके की ही एक लडकी से शादी कर दी गई । चूँकि उसे पूर्वनिर्धारित तिथि पर जहाज पर शिपमेंट लेकर जापान जाना था, अतः शादी के सात दिन बाद ही अपनी नई-नवेली दुल्हन को अपने घर वालो के पास छोड़कर वह ड्यूटी पर लौट गया था।

दुर्भाग्यवश, जापान से लौटते वक्त कोरयाई समुद्र में उनका जहाज एक बड़े तूफ़ान में फंसकर समुद्र में डूब गया। कुछ दिनों बाद जब यह खबर उसके घर पहुँची तो उसे मृत समझकर घटना के एक साल बाद परिवार ने उसकी विधवा की शादी उसके छोटे भाई से कर दी । लेकिन उधर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था, जहाज डूबने पर मौत से लड़ते-लड़ते लाइफ बोट के सहारे वे दक्षिण कोरिया के समुद्र तट पर पहुँचने में कामयाब हो गए थे, लेकिन अभी मुसीबतों ने साथ नहीं छोडा था। वहाँ की सरकार ने इन्हें गैर कानूनी ढंग से वहा घुसने पर जेल में डाल दिया।

करीब पांच साल बाद जेल से छूटने के उपरांत जब वह अपने गाँव पहुंचा तो दुनिया ही बदल चुकी थी। उसकी अपनी पत्नी अब उसके छोटे भाई की पत्नी थी, और उनके दो बच्चे भी हो गए थे । पिता गुजर चुके थे । भाइयों में जायदाद बंट चुकी थी । और कुछ ने तो अपने हिस्से की बेच भी डाली थी । माँ ने जब फिर से हिस्से करने की बात उन भाइयो के सामने रखी तो वे सभी भाई मुकर गए । विकाश ने शालीनता से खुद ही उनका सब कुछ छोड़-छाड़ दिया और कहा कि तुम लोग खुश रहो, मुझे कुछ नहीं चाहिए । कुछ साल बाद उसने फिर पास के कस्बे में जमीन ख़रीदी, मकान बनाया और फिर शादी की। मगर सवाल यह था कि क्या विकाश उस नई जिन्दगी को उतने सहज ढंग से जी सका ? अगर वह घर का बड़ा बेटा न होता, अथवा वही सिर्फ घर का एक बेटा होता तो जिन परिस्थितयों से वह गुजरा, क्या तब भी उसे उन हालातो से होकर गुजरना पड़ता ?

( नोट: मै शास्त्री जी का इस बात के लिए तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ कि उनकी बात ने मुझे यह कहानी लिखने को प्रेरित किया )

10 comments:

alka sarwat said...

गोदियाल जी ,कहीं आप वो विकास तो नहीं !

Vivek Rastogi said...

वैसे ऐसा भी कभी कभी ही घटित होता है।

परमजीत सिँह बाली said...

आप की यह पोस्ट पढने से पहले पिछली पोस्ट पढ़ी। पता लगा आप तो कहानीकार है । अच्छी कहानी लिखी है।जहाँ तक शास्त्री जी की बात है उन्होनें कुछ घटनाओ का जिक्र किया था। सो सभी ने अपनी अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं।शास्त्री जी यह बात जानते और समझते होगें।
आप ने अच्छी कहानी लिखी बधाई।

हिमांशु । Himanshu said...

बेहतर कहानी ।
सच्चा शरणम्: यह हँसी कितनी पुरानी है ?

sudhanyaa said...

आप सही हैं !
शास्त्री जी कहानियां सुनायें, कोई प्रोब्लम नहीं पर सिद्धांत गढ़ दें ? ये सहज बुद्धि नहीं है !

Ratan Singh Shekhawat said...

आपकी कहानी के अनुसार कई बड़े भाई बड़े होने के नाते जिम्मेदारियां निभाते हुए अपनी कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने छोटे भाई बहनों पर खर्च कर देते है और जब उनकी अपनी संतानों की जिम्मेदारिया निभाने की बारी आती है तब तक सभी भाई अलग-अलग होकर बड़े भाई से किनारा कर चुके होते है | ऐसे मैंने कई उदाहरण देखे है | लेकिन उसके उलट कई लोग बड़े होने का पूरा फायदा भी उठा जाते है यह हर व्यक्ति की सोच ,संस्कारों आदि पर निर्भर करता है | इसे सिद्धांत नहीं समझा जाना चाहिए |

पी.सी.गोदियाल said...

अल्काजी, विवेकजी, परमजीत जी,हिमांशु जी, सुधन्यजी एवं रतन जी , सर्वप्रथम मैं आप सभी लोगो का इस बात के लिए दिल से आभार व्यक्त करता हूँ कि आप लोगो ने मेरी इस कहानी में रुचि दिखाई ! अल्काजी, अगर कहानी में कुछ ऐसा न लगे कि उसमे कोई सत्यता नहीं है तो फिर कहानी का मजा ही कुछ नहीं रहता ! आप की बात से मुझे करीब डेड साल पुरानी वह घटना याद आ गई, जब मैंने एक छोटी सी कहानी लिखी थी "एक सच यह भी" जिसमे दिल्ली में मैंने एक दुर्घटना का वर्णन किया था और जिस दिन वह कहानी मेरे घर वालो ने पढी तो मेरे बीबी और बच्चे मुझ पर आग बबूला हो गए कि तुम्हारे साथ ऐसा हुआ और तुमने हमें नहीं बताया! वह कहानी इसी ब्लॉग पर उपलब्ध है अगर आप रूचि रखती है, तो पढ़ सकती है !

बाकी जहां तक इस कहानी का सवाल है मैं आप सभी से यही कहूँगा कि सच कह रहा हूँ कि जब मैंने शास्त्री जी का वह तर्क पढ़ा तो मन तो किया था कि उनके ब्लॉग पर अपनी प्रतिक्रया दू, मगर फिर मैंने सोचा कि मैं अपनी बात इस कहानी के माध्यम से आप लोगो तक पहुँचाऊ ! जहां तक शास्त्री जी का तर्क था मैं मानता हूँ कि एक हद तक वे ठीक थे, मगर सारा दोष बड़े भाई पर डाल देना, कुछ हजम नहीं हुआ ! अपवाद हर जगह है लेकिन हमें उन तथ्यों को भी नहीं नकारना चाहिए जिसमे इस देश का इतिहास पता पड़ा है कि सदियों से परिवार के बड़े भाई या सबसे बड़े पुत्र ने बड़ा होने के नाते बाकी परिवार पर अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया ! और छोटे भाई- बहनों ने उसे उसका फर्ज का नाम देकर खुद सिर्फ हमेशा हक़ ही जताया, उनकी अपनी खुद की क्या जिम्मेदारियां बनती थी, जानबूझकर कभी उस और ध्यान नहीं दिया ! एक बात और, कि जिन बड़े भाइयो के धोखेबाजी का जिक्र हम लोग करते है हमें यह भी समझना होगा कि उसके लिए भाई कम और भाई की बीबी ज्यादा जिम्मेदार होती है ! भाई की कमी यह है कि वह उसके आगे अपनी जुबान नहीं खोलता !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

मान्यवर P.C.G. महोदय।
आपकी कहानी रोचक भी है और इसमें तथ्य भी हैं।
लेकिन इसका दूसरा भाग भी कल पोस्ट किया था।
कृपया उसे भी पढ़ ले तथा एक कहानी और गढ़ लें।
आभार सहित।

पी.सी.गोदियाल said...

शास्त्री जी, अगर आपको मेरी बात का कहीं भी बुरा लगा हो तो मैं उसके लिए आपसे क्षमा मांगता हूँ !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

भैय्या जी।
बुरा क्यों लगेगा।
सार्वजनिक ब्लॉग है।
मैं सभी प्रकार की टिप्पणियों का
स्वागत करता हूँ।