Thursday, April 30, 2009

नई लोकसभा और मेरी अपेक्षायें/ सुझाव !

अब तकरीवन दो हफ़्ते बाद (१६ मई ) इस चुनाव के परिणाम घोषित हो जायेंगे, और उसके बाद संसद मे नई लोकसभा के गठन की तैयारियां शुरु हो जायेंगी ! अगर किसी एक पार्टी को वांछित बहुमत नही मिला(जिसकी उम्मीद ना के बराबर ही है ) , तो समझो कि फिर वही जोड-तोड, वही पुराना घोडे-गधो का व्यापार(होर्स ट्रेडिंग) शुरु ! और आज के इस राजनैतिक दौर मे, अपने मौजूदा नेतावो से किसी अच्छे की उम्मीद रखना ही सरासर ज्यादती और खुद से बेईमानी होगी, खुद को धोखे मे रखने वाली बात है!

फिर भी एक नागरिक होने के नाते, मेरी इस बार की लोक सभा से कुछ अपेक्षायें थी ! जैसा कि आज सभी लोग जानते है कि हमारे नेतावो की साख, उनकी करतूतो और काले कारनामों से एकदम मिट्टी मे मिल चुकी है ! फिर भी अगर भारतीय राजनीति मे अभी भी कुछ ऐसे लोग है जो लोकतन्त्र की मर्यादा के प्रति सजग और निष्ठावान है, तो मै उन नेतावो/लोगो से यह निवेदन करूंगा कि जो नव-निर्वाचित सांसद लोक सभा में आयेंगे, वे शपथ ग्रहण के लिये जब जाये तो साथ मे अपने बच्चे अथवा पोते ( जो बाल-बच्चेदार नेता है), अथवा माता-पिता (जो युवा नेता है और अभी परिवार वाले नही है) को भी साथ ले जाये, और शपथ लेते वक्त उन बच्चो अथवा माता-पिता के सिर पर हाथ रखकर शपथ ले, ताकि आम जनता का आपके ऊपर कुछ भरोषा जागे ! मै जानता हूं कि जिनके खून मे ही भ्रष्ठता मौजूद हो वे तो इसका भी तोड निकाल लेगे, अतः उनका और उन अन्य नेतावों का जो भगवा धारणकर इस सांसारिक सुख से ही विमुख है, तो भगवान ही फैसला करेंगे !

दूसरा यह कि शपथ के सार को भी बदला जाना चाहिये ! सब जानते है कि ये लोग संविधान के प्रति कितने कर्तव्यनिष्ठ है, अत: उनकी देश भक्ति पर शंका न करते हुए, इनसे वो सब इम्ला बुलवाने की क्या जरूरत, सिर्फ़ एक लाइन की शपथ होनी चाहिये कि “ मै अपने बच्चे/ पोते/ माता/ पिता के सिर पर हाथ रखकर/ साक्षी मानकर, यह शपथ लेता हू कि इस लोकसभा/ राज्य सभा का सांसद रह्ते हुए मै, जाने, अनजाने किसी भी किस्म का भ्रष्ठ तरीका नही अपनाऊंगा” ! शपथ ग्रहण के बाद, रोज सुबह जब संसद की कार्यवाही शुरु हो तो सभी सदस्य के लिए यह अनिवार्य हो कि वे अपनी सीट पर खडे होकर इस संस्कृत के श्लोक को बोले- "मान्धाता च महिपति कृत्युगालंकार भू तो गत; … " और फिर लोक सभा / राज सभा के अध्यक्ष उसका हिन्दी और अंग्रेजी मे सदस्यों को अनुवाद बताये कि हे नेता !, हे सांसद , हे मंत्री ! , बड़े बड़े राजा महाराजा आये और गए, लेकिन किसी के साथ भी यह पृथ्वी,उनकी धन दौलत, कुछ भी साथ नहीं गया, सब यहीं छूट गया, लेकिन जिस तरह तुम लोग, भ्रष्ट तरीके अपनाकर धन बटोर रहे हो, दूसरो का बुरा कर रहे हो, उसे देखकर तो लगता है कि यह पृथ्वी और तुम्हारी ये सब धनदौलत जरूर तुम्हारे ही साथ जायेगी!

क्या सचमुच ऐसा हो पायेगा ? काश !

Wednesday, April 29, 2009

अल्पसंख्यकों ने भी खूब उडाया इस लोकतन्त्र का मजाक !

अभी हाल ही मे एक हिन्दी अखबार मे जसपाल भटटी जी की देश की वर्तमान राजनीति पर एक सटीक टिप्पणी पढ रहा था, जिसमे उन्होने कहा कि यह तो सबको मालूम है कि आज के हमारे इन राजनेतावों का सफ़ेद कपडो के अन्दर छुपा कितना काला दिल है ! और अब तो इन्होने एक नई परम्परा भी डाल दी है कि अपने साथ-साथ एक-एक कर ये लोग अपने बच्चो को भी राजनीति मे ला रहे है ! आज जितने भी युवा राजनीति मे दिख रहे है ज्यादातर उसी घराने के है जो पहले से राजनीति को गन्दा किये है ! कहने का मतलब है, बीज तो वही है फिर आप और हम आगे चलकर अच्छे और मीठे फल की अपेक्षा कैसे कर सकते है ?

अब सवाल उठता है कि यह गन्दी राजनीति हमारे लोकतन्त्र मे आई कहां से ? इसे लाया कौन ? इसे प्रोत्साहन मिला कहा से ? सीधा जबाब है अनपढ गवार, स्वार्थी एवम संकुचित मानसिकता वाले वोटरो के द्वारा! अब फिर सवाल यह कि आखिर ये वोटर है कौन ? सीधा जबाब, जिन्हे देश से कुछ नही लेना-देना, कोई गुन्डा, मवाली, उठाईगिर कोई भी जीते, बस वह इनका ध्यान रखे, इनके धर्म, इनकी आज़ादी पर कोई आंच न आने पाये, कोई इनसे यह न पूछे कि इस मंहगाई के जमाने मे तुमने १२ बच्चे क्यो पैदा किये, बस! बाकी देश जाये भाड मे इनकी बला से ! आज ही एक अखबार मे मेरठ संसदीय क्षेत्र के एक पूर्व सांसद और प्रत्याशी का रिपोर्ट कार्ड पढ रहा था ! चालीस साल के इन जनाव ने अभी तक सिर्फ़ और सिर्फ़ सात बच्चे पैदा किये है! जरा सोचिये ये आगे कहां तक जायेंगे ! इस समाज के किसी तथाकथित बुद्धिजीवी से जब इस बात का जिक्र करो तो वह दो बाते कहेगा, एक तो कि आप क्योकि कट्टर हिंदुत्व के समर्थक है इसलिए पंचजन्य पढ़-पढ़ कर आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है और दुसरे , क्योंकि इस समाज में शिक्षा का अभाव है, गरीबी है, इसलिए ये इतने बच्चे पैदा करते है ! मगर यहाँ जिन सांसद महोदय की मैं बात कर रहा हूँ उनके पास तो सब कुछ है ! हकीकत यह है कि इस समाज का पुरुष वर्ग निहायत स्वार्थी है और जिसके चलते वह महिलावो को शिक्षित नहीं होने देना चाहता , इसलिए महिला शिक्षा का विरोध करता है ताकि वह पढ़-लिखकर, अपना भला बुरा ठीक से न समझने लगे, अपने हक़ के लिए ना लड़ बैठे ! इसलिए ये उसे सिर्फ एक बच्चे पैदा करने वाली मशीन बना कर रखना चाहते है ! ये जो जनाव का जिक्र हो रहा है , आज इनके पास प्रचूर धन-दौलत और ऐशोआराम उप्लब्ध है ! उसके बाद कल भले ही इनके बच्चो की फ़ौज, जिस मंच से आज ये जनता से वोट मांग रहे है, उसी मंच पर खड़े होकर कल देश और दूसरे धर्मो के सम्पन्न लोगो को अपनी अशिक्षा और पिछडेपन के लिये उन्हें दोष दे, उन्हें कोशे ! आज इनके किसी बुद्धिजीवी से देश के हालत के बारे में पूछो तो वह बस बाबरी मस्जिद और गुजरात के दंगो का ही रोना रोता है, विकास शब्द उसके लिए अनजान है !

इनके वोट धुर्बीकरण का ही नतीजा है कि आज देश का असंतुलित विकास हो रहा है ! ये भ्रष्ट नेतागण अपने लाभ के लिए, तुष्टीकरण के मार्ग पर चलते हुए, बहुसंख्य्को का हक छीनकर इनकी तुष्ठी पर उसे व्यर्थ गवा रहे है ! इसका एक उदाहरण मै इस तरह से देता हू; अगर आप कभी दिल्ली में सरिता विहार से कालिंदी कुज के तरफ जाए तो बीच में ओखला से सटी एक अल्पसंख्य वस्ती है, उस वस्ती के सामने सरिता विहार कालिनिदिकुंज सड़क पर एक लोहे का पैदल पार पुल आज से ५-७ साल पहले बन गया था ! और जब आप आज भी वहा पर जाकर देखो उस पुल को दिन भर में मुस्किल से ५ लोग भी इस्तेमाल नहीं करते, मगर पुल बन गया क्योंकि अल्प्संखयको की तुष्टि का सवाल था ! दूसरी तरफ कभी निजामुद्दीन पुल से गाजियाबाद की तरफ जावो तो नॉएडा मोड़ के पास बंद पड़े पैट्रोल पम्प के समीप थोड़ी देर दोपहर के समय रूककर देखो किस तरह उस भारी यातायात में एक माँ-बाप अपने स्कूल से लौटे बच्चे को जान हथेली पर रखकर सड़क पार करवाते है, लेकिन किसी ने वहाँ पर आज तक एक ओवर ब्रिज बनाने की नहीं सोची, क्योंकि वहा वोट बैंक नहीं रहता है !

यह इस देश का दुर्भाग्य है और हमारे लिए इससे बढ़कर शर्म की बात और क्या हो सकती है कि एक खूनी दरिंदा आज इस देश की न्याय और कानून व्यवस्था का मजाक उडाते हुए एक हाई प्रोफाइल लाइफ स्टाइल की मांग कर रहा है ! जिसे मूत्र छिड़ककर नवाजा जाना चाहिए था, वह इत्र मांग रहा है !

टूटा भ्रम !

बात करीब १८-२० साल पुरानी है। तब मैं और मेरा हिमांचली दोस्त सत्येन्द्र लाजपत नगर रेलवे कालोनी में रेलवे फाटक के समीप फ्लैट किराए पर लेकर रहा करते थे। हम दोनों एक ही लिमिटेड कंपनी में एक्जीक्यूटिव थे। उस समय मैं अविवाहित था, जबकि मेरे दोस्त सत्येन्द्र की करीब तीन महीने पहले ही शादी हुई थी। जब सत्येन्द्र की शादी हुई थी तो हम उसके गाँव में, जोकि मनाली वाले रूट पर मंडी के समीप एक पहाडी घाटी में स्थित है, पूरे एक हफ्ता रुके थे । सत्येन्द्र के पिता तब हिमांचल में प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ट अधिकारी थे, अतः गाँव में उनका अच्छा खासा रुतवा था। अब उसकी शादी के तीन महीने बाद ही उसकी बहन की भी शादी थी। अतः हम लोग यानि मैं, सत्येन्द्र और उसकी पत्नी पूर्व-निर्धारित प्लान के मुताविक पांच दिन पहले ही दिल्ली से निकल पड़े थे। सत्येन्द्र को अपनी शादी में इस बात का मलाल था कि व्यस्तता के कारण वह मुझे मनाली घुमाकर नहीं लाया था। उसके पास उस समय मारुती ८०० कार थी, अतः हमने पहले सीधे मनाली का ही रुख किया था, ताकि शादी के बाद थकान की वजह से फिर मनाली जाने से ना चूके। सुबह तड्के चार बजे हम दिल्ली से निकले और आपस में दोनों अदल-बदल कर ड्राइव करते हुए करीब ६०० से अधिक किलोमीटर का पूरा सफ़र तय कर, शाम को मनाली पहुँच गए।

अगले दिन दोपहर तक हम मनाली में ही रुके और उसके बाद शाम तक वापस सत्येन्द्र के गाँव, जोकि नेशनल हाइवे न. २१ से थोडा हटकर था, पहुँच गए थे। चूँकि मैं पिछली बार गाँव में एक हफ्ते रुका था, इसलिए गाँव के काफी युवा मुझे अच्छी तरह से जानते थे और मैं उन लोगो से काफी घुल मिल भी गया था। अगली सुबह से हम शादी की तैयारियों मे जुट गये थे, वह करीब बीस-पचीस परिवारों का गांव था और प्रथा के हिसाब से बारात लड्की वालों के घर पहले दिन शाम को आकर अगले दिन दोपहर मे दुल्हन लेकर वापस अपने गांव लौटती है। हालांकि बारातियों के ठहरने हेतु गांव के ही स्कूल मे इन्तजाम किया गया था, फिर भी मेहमानो की बडी तादात के मद्यनजर हम लोग व्यैकल्पिक इन्तजामों मे जुटे थे । वहां गांव मे बाकी कोई दिक्कत वाली बात नही थी, सिवाये रात को मेहमानों के ठहराने की समस्या के । दूर-दूर तक कोई होटल भी नही था और यधपि गर्मी का मौसम था, फिर भी पहाडी गांवो मे रात को काफ़ी ठन्ड होती है ।

काफ़ी दीमाग लडाने के बाबजूद भी, जब मेहमानों के ठ्हरने की प्रयाप्त व्यवस्था नही हो पाई, तो सत्येन्द्र के पिताजी ने सत्येन्द्र से सलाहकर कुछ मजदूर लेजाकर गांव के उस एकमात्र पुराने मकान को खुलवाने और साफ़ सफ़ाई करवाने को कहा, जो बर्षो से सुनसान पडा था । पिता का यह निर्णय, सत्येन्द्र के लिये किसी बडी चुनौती से कम न था । पिछ्ली बार उसकी शादी पर भी जब उस मकान को खुलवाने की बात चली थी तो उसके विरोध पर ही मामला टाल दिया गया था । मुझे याद था कि जब हम दोनो ही बेचुलर थे तो दिल्ली मे छुट्टी के दिन कमरे पर बैठे-बैठे हम अपने बचपन और गांव के अनुभवों को एक दूसरे को सुनाते थे । सत्येन्द्र अपने बचपन के उस अनुभव को बार-बार दोहराता था, जब वह सात साल का था और गांव मे रहता था, और अक्सर एक खास किस्म की अनोखी आकृति को अपने सामने देखा करता था, कभी घर के आंगन मे तो कभी पास के तालाब के पास । वह जब यह बाते करता था तो मै उसे यह कह्कर झिडक देता था कि वो यार, भूत-पिचाश सब इन्सान के दिमाग का फतूर है और कुछ नही । मै भी काफ़ी सालो तक गांव मे रहा, मैने तो कभी कोई ऐसी चीज नही देखी ।

इस घर के बारे मे भी मैने कई बार सत्येन्द्र के मुह से सुना था कि इस घर के मालिक ने पत्नी से कहासुनी होने पर उसके सिर पर किचन मे तव्वे से वार कर उसकी हत्या कर दी थी, और खुद भी उसी रात घर के आगे खेत में खडे एक पेड से लटककर फांसी लगा ली थी । तबसे यह घर निर्जन पडा था, और गांव वाले उस घर मे रात को अजीव सी हलचल होने की ढेरो कहानियां सुनाते रह्ते थे । दो मजदूरो को लेकर वहां जाने की जब बारी आई तो सतेन्द्र के ना-नुकुर करने पर मैने उसे एक बार पुन: यह कहकर झिड़क दिया कि ओय यार, तू मर्द का बच्चा नही है, बडा ही डरपोक किस्म का इन्सान है । ला चावी मुझे दे, वहां का काम मै करवाता हूं, तु यहाँ के और काम देख। उसने चावी मेरे को पकडाते हुए मुझे एक बार फिर सावधान किया कि अपनी होश्यारी से घुसना उस घर मे । मैने चावी लेते हुए कहा, तू भी न..., जरा आये तो सही वो भूत का बच्चा मेरे सामने, मैं भी तो देखू कैसा होता है भूत ।

वह तीन कमरों का एक पुराना लकडी, लाल मिट्टी और पत्थर का मकान था। पहाडो में भूतल वाला हिस्सा लोग अपने मवेशियों के रहने के लिए और उपरी हिस्सा ( पहली मंजिल) अपने रहने के लिए प्रयोग में लाते है । उस उपरी हिस्से की छत लकडी और चौडे-चौडे पत्थरो की बनी थी, जबकि कमरे का फर्श सिर्फ लकडी और लाल मिटटी से बना था । फर्श पर चलने पर पूरा कमरा हिलता था। शाम होते-होते मजदूरों ने सफाई और पुताई का काम पूरा कर लिया था। अतः मैंने फिर कमरों पर ताले लगाए और वापस सत्येन्द्र के घर आ गया। मुझे इस दौरान कुछ भी असामान्य नहीं लगा था। दो दिन बाद बारात दरवाजे पर पर थी। शाम को स्वागत के बाद खाना-पीना हुआ और फिर बारातियों और मेहमानों को सुलाने का इंतजाम होने लगा। एक दोस्त के नाते मैं सत्येन्द्र के एक भाई की तरह सारे कामो में उसका हाथ बँटा रहा था। ज्यादातर बाराती और घरेलु मेहमान स्कूल के कमरों में ही सुला दिए गए थे, कुछ जो बाकी रह गए थे, उन्हें मैंने उस मकान के दो कमरों में सुला दिया। अब एक कमरा खाली था, रात करीब बारह बजे जब हम लोग भी खा पी चुके तो सत्येन्द्र के पिता ने सत्येन्द्र से कहा कि मुझे और सतेंद्रे के अन्य दोस्तों को भी सुलाने का इंतजाम करे, क्योकि लग्नानुसार शादी के फेरे सुबह पांच बजे होने है, अतः अब सुबह तक के लिए कोई काम नहीं था। मैंने सत्येन्द्र और उसके अन्य दोस्तों से कहा कि ऊपर उस मकान में अभी एक कमरा खाली है, हम लोग वहाँ चलकर सोते है। मेरा इतना कहना था कि सतेंद्र और उसके अन्य दोस्त एक साथ बोल पड़े, ना भाई ना, हम लोग यहीं पर लकडिया जलाकर रातभर आग सेक लेंगे, लेकिन वहाँ नहीं सोयेंगे।

मेरे काफी मनाने पर भी जब वे लोग नहीं माने तो मैंने कहा, ठीक है तुम मरो, मैं तो जा रहा हूँ, आराम से सोने के लिए । कमरे की चावी मेरे ही पास थी, अतः मैंने सत्येन्द्र से एक लालटेन माँगी और चल पड़ा सोने के लिए। कमरे में पहुच मैंने लालटेन एक कोने पर रखी, कमरे के किवाड़ बंद किये और वहाँ खड़ी रखी चारपाई को सीधा कर उसपर एक चद्दर बिछा लेट गया। अभी मुश्किल से पंद्रह मिनट ही हुए होंगे कि बाहर दरवाजे पर दस्तक हुई । लालटेन की धीमी रोशनी कमरे में थी, मैं उठा और हौले से दरवाजा खोला, मगर बाहर कोई नहीं था । मैं समझ गया कि ये जरूर सत्येन्द्र के दोस्तों की मुझे डराने की शरारत होगी। मैंने फिर किवाड़ बाद किये और वापस विस्तर पर आ गया। करीब पांच मिनट बाद फिर दस्तक हुई, मैंने लेटे- लेटे पूछा, कौन है ? मगर कोई जबाब नहीं मिला था, मैं उठा नहीं, लेटा रहा । थोड़ी देर बाद फिर दरवाजा बजा, मैंने थोडा गुस्से में कहा, अबे कौन है, क्यों परेशान कर रहा है, सामने क्यों नहीं आता? मगर बाहर से कोई उत्तर नहीं आया। थोड़ी ही देर और हुई थी कि मैंने महसूश किया कि कमरे के उस कच्चे फर्श पर कोई चल रहा है और उसके चलने से फर्श की लकडी आवाज कर रही है। मैंने गौर से उस आवाज पर अपने कान लगाए तो मुझे लगा कि सिर्फ दो बार लकडी पर ठक-ठक की पैरो की आज आ रही थी, मैं चारपाई से उठा और पैर फर्श पर टिकाते हुए बैठ गया। फिर मैंने भी दो बार पैर की एडी फर्श पर ठोकी तो तुंरत उसी अंदाज में दो बार फिर फर्श से उठने वाली वह ठक-ठक की आवाज मुझे सुनाई दी । मैंने एक बार फिर पैर के तलवे को जमीन पर चार बार ठोका तो जबाब में फिर से चार बार ठक-ठक की आवाज आयी । मेरे दिमाग में अचानक एक बात सूझी कि कहीं कोई बगल वाले कमरे से तो यह ठक-ठक की आवाज नहीं निकाल रहा ? अतः मैंने दरवाजा खोला एक बार बाहर इधर-उधर देखा और फिर बगल वाले कमरे के दरवाजे पर कान लगाए तो अन्दर से वहा सोये लोग गहरी नीद में थे, और उनके नाक से खर्राटे भरने की आवाजे आ रही थी । कुछ पल चुपचाप मैं वहा दरवाजे पर कान लगाए खडा रहा, लेकिन कोई सुराग नहीं मिला, वापस अपने कमरे में लौटने के लिए मुड़ा तो एक पल के लिए मेरी रीढ़ की हड्डी में यह देखकर सिहरन सी दौड़ गयी कि कुछ ही दूरी पर स्थित तालाब के पास एक लम्बी आकृति खड़ी थी और उसके अगल-बगल एक रोशनी का घेरा सा बना था, मानो उस पर कोई टॉर्च की रोशनी फ़ेंक रहा हो। कुछ देर तक मैंने उस आकृति को देखा और फिर आखे मली, पुनः जब उस और नजर डाली तो आकृति गायब थी । मैं जल्दी से कमरे में घुसा और किवाड़ एक बार फिर बंद किये, कमरे में लालटेन की मंद-मंद रोशनी थी । किवांड पर सांकल (कुंडा) लगाने के बाद मैं चारपाई की तरफ मुड़ा तो क्या देखता था कि चारपाई पर बिछा चद्दर अपने आप खिसककर नीचे आ गिरा था । मैं अब काफी सहम सा गया था, मैंने धीरे से झुककर चद्दर उठाई और उसे पुनः चारपाई पर फैला दिया और ज्यों ही मैं फिर से लेटने को हुआ कि एक जोर का घूंसा मेरे चेहरे पर पडा, और मेरे आँखों के आगे तारे टिमटिमाने लगे । मैं अब बुरी तरह सकपका गया था। एक बारी सोचा कि नीचे वापस सत्येन्द्र और दोस्तों के पास चला जाऊ, मगर फिर दिमाग में आया कि वापस जाकर उनसे क्या कहूँगाऔर वे लोग मेरा मजाक उडाएंगे कि बड़ा निडर बना फिरता था । अब तक मुझे भी किसी अदृश्य शक्ति का अहसास हो चुका था, मेरे दिमाग में फिर एक बात आई कि हो न हो उस अदृश्य शक्ति का इस चारपाई से कोई नाता हो, और वह नहीं चाहता कि मैं इस चारपाई पर लेटू, जभी तो उसने वह चद्दर नीचे गिराई और मेरे दुबारा बिछाने पर मेरे एक घूँसा जड़ दिया । अतः मैंने चारपाई में से चद्दर उठाई और उसे नीचे बिछा वहां बैठ गया।

रात के दो बज चुके थे, मैंने जागकर दो और घंटे बिताने का निश्चय किया, वैसे भी अब नींद तो आने से रही थी । चार बजे मैं लालटेन उठा नीचे सत्येन्द्र के घर चला गया और उन्हें यह कहकर उठाने लगा कि पांच बजे से फेरे स्टार्ट है, अतः खड़े उठो चाय-वाय का इंतजाम करते है । सत्येन्द्र और उसके दोस्तों ने सवाल किया कि तू सोया नहीं क्या? मैंने कहा, दो-तीन घंटे सो गया था, अभी उठकर आ गया ताकि तुम लोगो को जगा सकू । मैंने उन्हें उस घटना के बारे में न बताने का फैसला कर लिया था । उन्होंने फिर पूछा कोई दिक्कत तो नहीं हुई वहा? मैंने कहा, अरे दिक्कत कैसी? अकेले कमरे में आराम से सोया । वे सभी लोग मेरा मुह ताक रहे थे ।

फिर अगले दिन बारात बिदा हुई, उसके दो दिन और हम वहाँ रुके । इन दो दिनों में मैं सत्येन्द्र के घर ही सोया था, क्योकि ज्यादातर मेहमान उसी दिन चले गए थे । लेकिन मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि कोई साया लगातार मेरा पीछा कर रहा है । दो दिन बाद हम सुबह वापस दिल्ली के लिए चल पड़े सत्येन्द्र को किसी काम से दो दिन चंडीगढ़ रुकना था, अतः उसने मुझे भी एक दिन चंडीगढ़ ही रुकने को कहा । जब घर से चले तो मैंने उसे कहा, तू आराम से पीछे भाभीजी के साथ बैठ, गपशप लगा, चंडीगढ़ तक ड्राइव मैं करता हूँ । नेशनल हाइवे पर पहुँचने के बाद मैंने गाडी की स्पीड बढा दी । सत्येन्द्र पीछे की सीट पर अपनी बीबी के साथ गपो में मग्न था जबकि मैं नोट कर रहा था कि आगे की मेरी बगल वाली सीट जो कि खाली पडी थी, वह कई बार आगे पीछे हुई थी, मानो कोई सीट ऐडजस्टमेंट कर रहा हो। एक जगह पर कुछ सेकंड के लिए गाडी रोकनी पडी और मैंने गियर न्यूट्रल में छोड़ दिया कि तभी गाडी धक् से आगे झटका मारकर रुक गयी । मैंने देखा कि खड़े खड़े गाडी का गियर एक पर पहुच गया था। मैंने गियर न्यूट्रल में लाकर पुनः गाडी स्टार्ट की और चल पडा, लेकिन अब मैं ज्यादा सतर्क हो गया था, मुझे अन्दर से एक डर सताने लगा था कि हो न हो, यह अनजान चीज कही पर गाडी का स्टेरिंग घुमा कर हमें किसी नाले में पंहुचा दे, या फिर किसी ट्रक से भिडा दे ।

भगवान् का शुक्र था, कि हम लोग ठीक-ठाक चंडीगढ़ पहुच गए थे । एक होटल में हमने दो कमरे लिए और रात का भोजन कर थके होने की वजह से जल्दी सो गए। कमरे में एयर कन्डीशन चल रहा था, इसलिए मैंने चद्दर ओढ़ ली थी । अभी मुश्किल से एक घंटा ही सो पाया हूँगा कि अचानक किसी ने मेरे ऊपर ओढी हुई चद्दर को जैसे एक तरफ को खींचा। मैं कमरे की बत्ती बंद करके सोया था क्योकि आदतन उजाले में मैं ठीक से सो नहीं पाता । कमरे में घुप अँधेरा होने के वावजूद सामने दीवार कर सटे ड्रेसिंग टेबल के शीशे में मेरी शक्ल एकदम साफ़ नज़र आ रही थी, आर्श्चयचकित नजरो से अपना चेहरा शीशे में निहारने के बाद मैंने लाईट जलाई तो कुछ भी असमान्य नहीं था। थोड़ी देर तक सोच में बैठे रहने के बाद, मैंने लाईट खुली छोड़कर एक बार फिर चद्दर ओढ़ ली और लेट गया कि तभी अचानक हाई वोल्यूम पर कमरे में मौजूद टीवी चल पडा। मैं हैरान था, क्योंकि मैंने कमरे में घुसने के बाद टीवी को छुआ तक नहीं था। अब मैं बुरी तरह डर गया था, मैंने दरवाजा खोला और सत्येन्द्र के कमरे के आगे पहुच बेल बजाई । मुझे बदहवास स्थिति में देख सत्येन्द्र ने पूछा कि क्या हुआ । मैंने कहा, क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ । सत्येन्द्र की पत्नी भी उठकर बाहर आ गयी थी और उसने भी मुझे पूछते हुए कहा क्या हुआ भाईसाब ? मैंने कहा कि मैंने तुम लोगो से यह घटना छुपाये रखी मगर...., मैंने उन्हें सारी घटना के बारे में बताया । सत्येन्द्र भी सुनकर हैरान था और उसने मुझे लगभग गाली देते हुए कहा कि तूने उस भूत के बारे में बुरा भला कहा, इसीलिए वह तुझसे नाराज है। सुबह वापस चलकर हमें किसी ओझा के पास जाना होगा। इसीलिये कहता था बेटा कि ज्यादा स्मार्ट मत बनो, गुड रूल ऑफ़ थम्ब, अ हैप्पी स्पिरिट इज अ गुड स्पिरिट ( चाणक्य नीति यह है कि एक खुश आत्मा ही अच्छी आत्मा होती है। )

-गोदियाल

Sunday, April 26, 2009

निशानदेह सपना !

सावन अपने प्रचन्ड पर था, और उस साल देश के उत्तरी भागों मे सामान्य से कहीं अधिक बारिश हो रही थी । आज की तरह, तब संचार के बहुत अधिक साधन उप्लब्ध न थे, खासकर उत्तरांचल के पहाडो मे । मै अपने को अन्य गांव वालो से इसलिय अधिक भाग्यशाली समझता था, क्योंकि अपने घर मे तब एक तीन बैन्ड का रेडियो होता था, जिसका कि उस जमाने मे हर साल, पास के पोस्ट आफिस मे सालाना लाइसेन्स फ़ीस जमा करवानी पड्ती थी । रेडियो पर रोज सुबह-शाम समाचारों मे यह जानकारी मिलती रहती थी कि बारिश के कारण आयी बाढ ने कहां क्या तवाही मचाई है । बात सन १९७८-७९ की है । मै तब गांव के पास के ही एक उच्चत्तर माध्यमिक स्कूल मे दसवीं का छात्र था ।

उस रात बादलों की गडगडाहट और बिजली की कड्कन रह-रहकर दिल को यह अह्सास दिला जाती थी कि यहां सब कुछ भगवान भरोसे है, और अगली सुबह का सूरज देख भी पायेगें या नही । रुक-रुक कर पहाडी चट्टानों के टूटकर गिरने की आवाजे दिल को दहला देती थी । एक-एक पल मानो जैसे भारी पड रहा था और मै अपने दादाजी-दादीजी संग एक कमरे मे बैठा, पिताजी की उसी साल सीएसडी कैन्टीन से खरीदकर मुझे दी गयी एचएमटी की घडी को लालटेन के समीप ले जाकर, हर दस-पन्द्रह मिनट बाद समय देखता था।

आखिरकार आसमान मे सब कुछ शान्त हो गया था, एक काली-लम्बी रात के बाद भोर हो गयी थी । मगर सब कुछ पहले जैंसा नही था । आज हमारे घर के आगे के पंया के बडे दरख्त पर भयावह रात के सहमे पक्षियों का कोई शोरगुल नही था । बाहर आकर अपने चारों ओर नजर दौडाई तो पास की सभी पहाडियां जगह-जगह से धंसी पडी थी । कुछ देर बाद स्कूल की घन्टी सुनाई दी तो मैने भी सब कुछ भुलाकर कमरे मे बिखरी अपनी कापी-किताबों को बस्ते मे समेट्ना शुरु किया और कुछ देर बाद स्कूल जा पहुचा । लेकिन स्कूल मे भी सब कुछ सामान्य न था, स्कूल की टिन-चद्दर की छत आधे हिस्से से गायब थी । स्कूल की तीसरी घन्टी बजने पर रोज की तरह सुबह की प्रार्थना के लिये स्कूल प्रागण मे लाईन मे खडे हुए तो हेड-मास्टर साहब ने घोषणा की कि आज न तो प्रेयर होगी और न स्कूल मे पढाई । छठी से आठवीं तक के विद्यार्थी घर जा सकते है , लेकिन नवीं और दसवीं के छात्रो को अध्यापकों के साथ बगल के गांव मे श्रमदान के लिये जाना है जहां रात को बारिश और जमीन धसने से गांव मे भारी तवाही मची है ।

वहां पहुचने पर हमने देखा कि मामला काफ़ी गम्भीर और मंजर भयावह था । गांव के दो मकानों का मलवा तो ऊपर से भुस्खंलन के कारण आये मलवे के साथ नीचे की छोटी पहाडी नदी के किनारे जाकर ठहरा था। जिसमे से एक लाश की सिर्फ़ दोनो टांगे ऊपर की ओर खडी थी और बाकी शरीर मलवे के नीचे दबा पडा था । आस-पास के छोटे-छोटे गांवो से धीरे-धीरे चन्द लोग इकठ्ठा होने लगे थे । फिर हम सभी लोग वहां उपलब्ध औजारो की मदद से जोर-शोर से मलवा हटाने और लाशों तथा घायलो की तलाश मे जुट गये । सरकारी मदद के भरोषे रहते तो चार दिन इन्तजार करना पडता ।

अगले दिन दोपहर तक सारा मलवा खोद्कर हम पांच लाशे निकाल चुके थे । लेकिन गांव के जीवित बचे लोगो के हिसाब से गुमशुदा लोगो की सूची मे कुल आठ लोग थे, पांच लोगो की लाशें तो मिल चुकी थी, मगर बाकी के जिन तीन लोगो का अभी भी कोई अता-पता नही था,वह था लाल सिंह का परिवार, उसकी पत्नी और दो बच्चे । लालसिंह फ़ौज मे कार्यरत थे और उस समय मेघालय मे पोस्टेड थे । उन्हे भी इस दुर्घट्ना के बारे मे टेलीग्राम भेजकर सूचित कर दिया गया था । अब उस घट्ना को चार दिन बीत चुके थे, आकाशबाणी पर इस दैवीय विपदा का समाचार प्रसारित होने के बाद नजदीकी कस्बे से एस एस बी के जवानों की एक टुकडी भी अब मदद के लिये पहुच चुकी थी । लेकिन कोई खास फायदा नही हुआ । लोग कयास लगाने लगे थे कि हो न हो लाल सिंह का परिवार मलवे के साथ आई बरसात के पानी की तेज धार मे बहकर आगे उस छोटी पहाडी नदी मे बह गया हो । अत: इस आशंका के चलते हम दो तीन बच्चे, गांव के दो लोग और दो एस एस बी के जवान नदी के किनारे-किनारे उन्हे ढूढते हुए करीब दो कीलोमीटर नीचे तक चले गये थे कि तभी नदी के किनारे-किनारे पग्डन्डी पर लाल सिंह आता देखाई दिया । वह नजदीकी कस्बे से पैदल ही आ रहा था, क्योंकि भारी बारिश और भूस्खंलन की वजह से एक मात्र मोटर रोड जगह-जगह टूट गयी थी । एकदम समीप आने पर लाल सिंह अपने उन दो गांव वालो के पास टूट कर रह गया और फूट-फूट कर रोने लगा । हम तीनो बच्चे नम आंखो से वह तमाशा देख रहे थे और वो गांव के सयाने लोग तथा एस एस बी के जवान, लाल सिंह को समझाने और दिलाशा देने की कोशिश कर रहे थे ।

कुछ देर तक यह सब चलता रहा, उसके बाद लाल सिंह ने पूछा कि आप लोग कहां जा रहे हो ? तो उन दो गांव वालो ने सारी वस्तुस्थिति उसे समझाई । एक बार पुन: थोडी देर तक रोने के बाद लाल सिंह ने कहा, यहां आप लोगो को कुछ नही मिलेगा, वो लोग ऊपर ही दबे पडे है, मुझे मालूम है वे लोग कहां पर है, वापस चलो । हम लोग बिना कुछ बोले एक बारी सभी लाल सिंह का मुहं ताकने लगे और उसके साथ-साथ वापस गांव की तरफ़ लौट पडे । गांव पहुंच, एक बार फिर काफ़ी देर तक गांव की औरतों का और लाल सिंह का रोना-धोना चलता रहा था और फिर लाल सिहं ने उन एस एस बी के पांच-सात जवानो को एक ऐसी जगह पर से सावधानी से मिट्टी-मलवा हटाने को कहा, जहां पर कि इस भीषण भूस्खंलन के बाद कोई भी सहज अन्दाजा नही लगा सकता था कि इस छोटे से मलवे के ढेर के नीचे तीन जिन्दगियां चिर-निन्द्रा मे सोई पडी होंगी । एस एस बी के जवान फावडे की मदद से धीरे-धीरे मलवा हटा रहे थे, और वहां मौजूद सभी लोग सांस रोके तमाशा देख रहे थे ।

कुछ ही मिनटो मे मिट्टी के नीचे दबे इन्सानी जिस्मों के हिस्से बाहर झांकने लगे थे । लाल सिंह रोये जा रहा था, और गांव के बडे-बुजुर्ग उसे ढाढस बंधा रहे थे । पन्द्रह साल का मै और मेरे कुछ हमउम्र साथियों की मन:स्थिति बडी अजीबोगरीब थी । जहां एक ओर इतने दिनो बाद उन अभागे मृतकों के मिलने की एक अजीब सी खुशी हो रही थी, वहीं मन मे एक अपराध बोध हो रहा था कि उस बेचारे का सब कुछ लुट गया और तू लाशे मिलने पर खुश हो रहा है । हम लोग कभी लाल सिंह के मुह पर देखते थे तो कभी उन लाशो पर । एस एस बी के जवानो ने अब तक सारा मलवा हटा लिया था। वह अभागी मां ( लालसिंह की पत्नी) अपनी दोनो कोहनियों के तले अपनी सात साल की बेटी और दस साल के बेटे को दबाये हुई थी । सारा माहौल एक बार पुन: गमगीन हो गया था । दूसरी तरफ़ एक कौतुहल हमारे नन्हे दिमाग मे भूचाल पैदा किये जा रहा था कि हम लोग तो मृतकों को ढूढ्ने के लिये पिछ्ले चार दिन से भूखे-प्यासे, रात दिन एक किये थे और आखिर लाल सिहं को कैसे मालूम पडा और वह कैसे इतने इत्मिनान से कह रहा था कि ये लोग, यहां इस खास जगह पर दबे पडे है ?

हम बच्चो से जब रहा नही गया तो हम लाल सिंह के पास जा पहुचे । वैसे तो ऐसे मौको पर गांव के बडे-बूढे लोग, बच्चो को ड्पटकर भगा देते थे किन्तु पिछले चार दिनो से वे देख रहे थे कि ये बच्चे कितनी मेह्नत और लगन से इस काम मे जुटे रहे, इसलिये किसी ने हमे कुछ नही कहा । हमने थोडी देर चुपचाप खडे रहकर लाल सिंह को निहारा और फिर एक साथ पूछ बैठे, चाचा, आपको कैसे पता था कि ये लोग यहां….. ! लालसिंह सुबकते हुए बोला, कल रात को यहां आते वक्त, थोडी देर के लिये रेल के डिब्बे मे मेरी आंख लग गयी थी । वो( उसकी पत्नी) मेरे सपने मे आई थी और उसने कहा कि जल्दी गांव पहुचो, वो लोग हमे ढूंढ्ते हुए काफ़ी परेशान है ,जबकी हम तीनो मावत, ऊपर जहां पर हमारा घर था, उसी के बगल मे दबे पडे है, मै बच्चो को निकालने की कोशिश कर रही थी किन्तु निकाल न पायी । लालसिंह फिर जोर-जोर से रोने लगा था और हम सभी बच्चे, आश्चर्यचकित मुद्रा मे एक दूसरे के मुंह ताक रहे थे ।
-गोदियाल

Sunday, April 12, 2009

आदर्श नागरिक बने !

कद पांच फुट आठ इंच, रंग सावला और चेहरा गोल
मुख मुद्रा ऐसी मानो, मुंह से अभी फूट पडेंगे बोल,
उम्र पचास, सफ़ेद लिबास उसके बदन पर खूब भाता है
शक्ल से वह किसी अच्छे ब्रांड का चोर नजर आता है !

पांच वर्ष हुए,करबद्ध होकर मेरी गली मे आया था
वादो का एक बडा पुलिंदा,संग अपने वह लाया था
मांगता फिरता था विनम्र होकर वह लोगो से वोट
अपने विरोधी पर करता था वादाखिलापी की चोट

अबके नही आया,गत जुलाई मे ऊंचे दाम बिका जो
वादा निभाना तो दूर, पांच साल से नही दिखा वो
कोई जानकारी, सुराग मिले इस गुमशुदा के बारे मे
सूचित करने का कष्ट करे, आकर जनता दरवारे मे

राजनीति के गटर मे,एक लावारिश शव पड़ा मिला है
सफ़ेद कफ़न मे लिपटा, कई दिनो का सडा-गला है
भ्रष्टाचार के धागे से किसी ने उसकी जुबान सिली है
जेब से फटी-पुरानी एक आचार संहिता भी मिली है

इस सन्दर्भ मे कहीं एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज है
इन्सान होने के नाते, पहचान करना आपका फर्ज है
कोई जानकारी, सुराग मिले गर दिवंगत के बारे मे
सूचित करने का कष्ट करे जनता जनार्धन के द्वारे मे
- धन्यवाद !

Wednesday, April 8, 2009

उन्हे मित्र और दुश्मन मे फर्क करना सीखना होगा !

मै उन लोगो की इस बात से पुर्णतया सहमत हू जो कहते है कि मुस्लिम समुदाय आज भी बहुतायात मे अशिक्षित और अज्ञानी है ! यह समुदाय दकियानूसी परम्परा और रूढिवाद के जाल मे इतनी बुरी तरह फ़ंसा है कि इनके तथाकथित धर्मगुरु अपने स्वार्थो के लिये इनका भरपूर शोषण करते आये है! सच ही कहा है कि इनके लिये आरक्षण के भी कोई मायने नही है! पढ़ा लिखा होगा तभी तो आरक्षण का भी फायदा उठा पायेगा ! लेकिन आश्चर्य इस बात पर होता है कि कम से कम इस देश मे तो इनके इतनी शुभचिन्तक पार्टियो जैसे कोंग्रेस, बामपंथी पार्टिया, एसपी, बीएसपी.. इत्यादि, इत्यादि, लगभग सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियो के रह्ते हुए भी, ऐसी स्थिति क्यो है? इस पर न तो किसी राजनैतिक दल ने ज्यादा प्रकाश डालना उचित समझा और न ही मुस्लिम बुद्धिजीवियो ने यह जानने की कभी कोशिश की ! पिछ्ले साठ बर्षो से ये पार्टिया, मुसलमानों की शुभचिन्ता के नाम पर इनसे वोट मांगते आये है और इन्होने भी इन्हे खूब जिताया है! बद्ले मे इन्होने इन्हे लौलीपोप के अलावा क्या दिया? कितनी हास्यास्पद बात है कि पिछ्ले पांच सालो तक सत्ता सुख भोगने के बाद आज इनके मातहत मुस्लिम दरीद्र्ता के लिये भी हिन्दुवादि पार्टियो को दोष देती है, यहा भी झांसा देने की कोशिश ! कोई इनसे पूछे कि अपनी आंखो से हिन्दुत्व का पर्दा उतारकर, एक बार ईमानदारी से एनडीए और यूपीए की सरकारो की उप्लब्धियो और कामो का तुलनात्मक अध्य्यन करे, तो पावोगे कि एनडीए इनसे कही बेह्तर सरकार थी, बीजेपी पर दोषारोपण किया जाता है कि उसने अपने कार्यकाल मे ऐसा किया, वैसा किया ! मै कह्ता हू, उन्होने कुछ किया तो सही, मगर तुमने एक दूसरे की टांग खीच, घडियाली आंसु बहाने के सिवाये और कुछ किया क्या? बार-बार गुजरात दंगो का भूत दिखाकर मुसलमानो और अन्य अल्पसंख्य्को को डराते रहते हो,ताकि वे तुम्हारे पाले में बने रहे ,मगर तनिक अपने गिरेवान मे भी तो झांककर देखो कि तुमने नन्दीग्राम मे क्या किया ? दिल्ली और अन्य स्थानों पर क्या किया, बिहार में क्या किया ? और अब उन्ही नवीन पट्नायक के साथ क्या कर रहे हो जिनके ऊपर अभी कुछ महिनो पहले तक कन्ध्माल हिंसा का दोष लगाकर थूक रहे थे ? क्योंकि वो अब आपके खेमे संग हो लिये, तो वे पाक-साफ़ हो गये ?


यह मुस्लिम समुदाय की शिक्षा की ही खामिया है कि ये लोग आज भी अपने सच्चे मित्र और असली दुश्मन मे फर्क कर पाने मे असमर्थ है! और इनकी इसी कमी अथवा खामियो के चलते इस बात का सीधा फ़ायदा हो रहा है, हमारे इन राजनैतिक दलो को, जो सेक्युलरिज्म की दुहाई देकर इन्हे सरेआम उल्लू बना रहे है ! किसी ने अंग्रेजो के नक्शे कदम पर चलकर प्यार से फूट डालो और राज करो की नीति अपनाकर अपना उल्लु सीधा किया तो कुछ अन्य तथाकथित सेक्युलर पार्टिया और उनके दिग्गज नेता है, जो इन्हे किसी की छाती पर रोलर चलाने और किसी के हाथ काट डालने का झुनझुना पकडा रहे है ! ध्यान रहे कि सच्चा मित्र वो नही होता जो आपसे हमेशा मीठा बोलकर अपना उल्लू सीधा करता है, बल्कि सच्चा मित्र वह है जो आपके मुह पर आपकी कमियां आपकी खामियां गिनाता हो, ताकि आप अन्धेरे मे न रहे, और सुधार लाने का प्रयत्न कर सकें ! इन तथाकथित सेक्युलर पार्टियो ने पिछ्ले साठ-बासठ सालो से आपसे सिर्फ़ मीठा बोला है और नतीजा आप यह भुगत रहे है कि मुसलमान हर क्षेत्र मे पिछड गया है !


इसलिये अभी भी वक्त है सही दोस्त् और दुश्मन को पह्चानिये और बाद मे पछ्ताने से बचिये! सिर्फ तुष्टीकरण से कुछ नहीं होने वाला! और एक बार इमानदारी से देखो कि पिछले ६०-६२ सालो में इस तुष्टिकरण से चाँद मौलवियों को छोड़ आपको क्या फायदा हुआ ? जैसा कि मैंने पहले कहा, हमारी यह राजनीति एक कूडे का ढेर बन चुकी है और इसी कूडे में से हमें कुछ उपयोगी वस्तुए ढूँढनी है ! यह आप भी जानते है और मैं भी कि आज कोई भी राजनैतिक दल ईमानदार नहीं रहा, मगर वो कहावत है कि डाकुवो में भी वो डाकू थोडा ठीक लगता है जो कुछ तो वसूल रखता हो ! इसलिए अपना वोट सोच समझकर, धार्मिक चश्मा उतारकर और संकीर्णता से ऊपर उठकर करे !