गौर से देखे तो आज हमारी पूरी क़ानून व्यवस्था ही एक जर्जर अवस्था में पहुँच चुकी है । जो अंग्रेजो के काल से चली आ रही जटिल न्यायिक व्यवस्था इस देश में मौजूद है वह आज अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। और यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश के तथाकथित तीन महत्वपूर्ण किन्तु भ्रष्ट खम्बो में से एक जो यह खम्बा भी है, इस पर से भी लोगो का विश्वास धीरे-धीरे उठता जा रहा है। हमारी न्यायिक व्यवस्था को पाकिस्तान से आया आतंकवादी कसाब आज मुह चिढा रहा है। सब कुछ खुला-खुला है कि इस आतंकवादी ने क्या किया, मगर सालभर से अधिक का वक्त और ३१ करोड़ रूपये खर्च करने के बाद भी हमारी न्याय व्यवस्था उसके साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेल रही है। दूसरी तरफ लिब्राहन आयोग, और अन्य इसी तरह आयोग हमारी जांच प्रणाली पर ही सवालिया निशान लगा रहे है। खोदा पहाड़ और निकली चुहिया, यह कहावत सिर्फ अयोध्या के ही केस में नहीं चरितार्थ होती अपितु अन्य मामलो जैसे बोफोर्स, १९८४ के दिल्ली दंगे, नब्बे के दशक के मुंबई दंगे और बमकांड, चारा घोटाला इत्यादि-इत्यादि सभी पर लागू है।
सरकारिया काम-काज के तरीके और राजनीतिज्ञो के आचरण से भी नहीं लगता कि कोई इस बारे में गंभीर भी है। आज जरुरत है कि जनता एक स्वर में उठ खडी हो, और इन तीनो खम्बो में सुधार की मांग करे। यदि सरकार किसी जांच के लिए कोई आयोग बनाती है और आयोग को रिपोर्ट देने के लिए तीन महीने का समय देती है, लेकिन यदि तीन महीने बाद वह इस जांच के लिए समय अवधि में फिर से विस्तार करती है, तो यह समझ लेना चाहिए कि या तो सरकार या फिर जांचकर्ता ईमानदार नहीं है, उनमे से किसी एक अथवा दोनों के दिलो में खोट है । कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों और देश हित में अगर इस समयाविस्तार की जरुरत पड़ती भी है, तो सरकार को यह क़ानून बनाना चाहिए कि कोई भी आयोग किसी भी स्थिति में एक साल से अधिक का समय नहीं ले सकता, और कोई भी न्यायालय किसी केस को दो साल से अधिक नहीं खींच सकता, चाहे केस भले ही कितना भी जटिल क्यों न हो। उसे दो साल के अन्दर हर हाल में फैसला सुनना ही पड़ेगा,फिर देखिये कैसे नहीं आती न्याय व्यवस्था पटरी पर ।
सरकारिया काम-काज के तरीके और राजनीतिज्ञो के आचरण से भी नहीं लगता कि कोई इस बारे में गंभीर भी है। आज जरुरत है कि जनता एक स्वर में उठ खडी हो, और इन तीनो खम्बो में सुधार की मांग करे। यदि सरकार किसी जांच के लिए कोई आयोग बनाती है और आयोग को रिपोर्ट देने के लिए तीन महीने का समय देती है, लेकिन यदि तीन महीने बाद वह इस जांच के लिए समय अवधि में फिर से विस्तार करती है, तो यह समझ लेना चाहिए कि या तो सरकार या फिर जांचकर्ता ईमानदार नहीं है, उनमे से किसी एक अथवा दोनों के दिलो में खोट है । कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों और देश हित में अगर इस समयाविस्तार की जरुरत पड़ती भी है, तो सरकार को यह क़ानून बनाना चाहिए कि कोई भी आयोग किसी भी स्थिति में एक साल से अधिक का समय नहीं ले सकता, और कोई भी न्यायालय किसी केस को दो साल से अधिक नहीं खींच सकता, चाहे केस भले ही कितना भी जटिल क्यों न हो। उसे दो साल के अन्दर हर हाल में फैसला सुनना ही पड़ेगा,फिर देखिये कैसे नहीं आती न्याय व्यवस्था पटरी पर ।