Friday, August 8, 2008

सेठ की मंदबुद्दी संतान !

उत्तरांचल के गढ़वाल क्षेत्र में ( विशेषकर टेहरी गढ़वाल में ) स्थानीय पहाडी भाषा मे एक मुहावरा बहुत प्रचलित है “सेट्ठुगा लाटा-काला” जिसका अर्थ है सेठ लोगो के मंद बुद्धि बच्चे ! इस मुहावरे के पीछे की कहानी कुछ इस तरह है : हुआ यूँ कि एक गाँव में एक सेठ ( धनी साहूकार ) परिवार रहता था, सेठ उसकी पत्नी यानि सेठानी और उनके चार बच्चे ! फसल कट चुकी थी, और फसलों की कुठायी और सफाई का काम चल रहा था, सेठ के खलिहान में एक बहुत बड़ा ढेर भट्ट ( स्थानीय एक किस्म की दाल ) का लगा हुआ था। रात को सेठ-सेठानी आपस में बात कर रहे थे, सेठानी ने सेठ से कहा ” आजू सी भट्ट भी छन रयाँ फूकण थै ( अर्थात साधारण हिन्दी भाषा में जिसका मतलब है कि अभी फूकने के लिये यह भट्ट भी रहे हुए है, जबकि वास्तविक कहने का सेठानी का मतलब था कि बाकी फसल का अनाज तो हमने सम्भाल दिया है मगर कूठाई-सफ़ाई के लिये अभी भट्ट बाकी रहे हुए है ) सेठ जी के बच्चे उनका वार्तालाप सुन रहे थे। अगले दिन सेठ और सेठानी एक शादी में सरीक होने के लिये पड़ोस के गाँव गए और जब शाम को लौटे तो खलिहान में राख का एक बड़ा ढेर देख दंग रह गए , बच्चो से पूछा कि ये सब कैंसे हुआ? बच्चे बोले आप लोग कल कह रहे थे न की भट्ट फूकने के लिये रहे हुए है इसलिये आज हमने सोचा की माँ-बाप का काम हल्का कर देते है, और हमने पूरे भट्ट के ढेर को आग के हवाले कर, पूर भट्ट का ढेर फूक दिया, जलते वक्त उनसे पटाखे के जैसे फूट्ने की आवाजे आ रही थी। सेठ सेठानी, उन लाटे बच्चो की बात सुन माथा पकड़ कर बैठ गए। इसीलिये यह कहावत बनी ‘सेठुगा लाटा-काला’ !!

ऐसे ही एक पहाडी गाँव में एक सेठ फतेसिंह मेवार अपने परिवार के साथ रहते थे। उनका बड़ा बेटा विजय काफ़ी होनहार किस्म का लड़का था। गढ़वाल विश्वविद्यालय से एम्. काम. करने के बाद वह दिल्ली चला आया। चूँकि पीछे से माँ-बाप का काफी सपोर्ट था, इसलिए बेटे ने आईसीडब्लूए करने की सोची और लोधी रोड संस्थान में दाखिला ले लिया, जैंसा कि विजय एक होनहार किस्म का लड़का था अतः तीन साल के अन्दर ही उसे कॉस्ट एकाउंटेंट की उपाधि मिल गई और साथ ही एक पब्लिक लिमिटेड कम्पनी में अच्छी तनख्वा की नौकरी भी।

दिन मजे से गुजरने लगे ! सेठ जी गाँव में लोगो के पास अपने बेटे की तारीफ करते नही थकते थे ! वक्त कब गुजर गया किसी को पता ही न चला और विजय जिन्दगी की ३० वी देहलीज पर पहुँच गया। ! माँ-बाप को बेटे की शादी की चिंता होने लगी, मगर क्योंकी सेठ जी गाँव के सेठ साहुकार थे, इसलिये अपने बेटे के लिए कुछ अलग ही कर दिखाना चाहते थे।

विजय गर्मियों में एक हफ्ते की छुट्टी गाँव गया था, माँ बाप ने शादी की बात छेड़ी, कॉस्ट एकाउंटेंट बनने के बाद सेठ जी के लाटे के दिमाग भी अब सातवे आसमान पर थे, अतः उसने सीधे कह दिया कि मैं उत्तरांचल की लड़की से शादी नही करूँगा क्योकि मुझे दिल्ली में हाई प्रोफाइल लोगो के बीच रहना है और गाँव की लड़की उस हाई जेनेट्री के लोगो के साथ मैच नही कर पायेगी… इंग्लिश की प्रॉब्लम, वहाँ के रहन-सहन का तरीका, भाषा की फ्लुएंसी की प्रॉब्लम इत्यादी, इत्यादी। सेठ जी ने सोचा कि बेटा कह तो ठीक ही रहा है अत: वे भी सपना देखने लगे कि जब उनका बेटा एक शहरी मेम के साथ गाँव में आएगा तो लोग देखते ही रह जायेंगे………………………………………………!!

सेठ जी ने दुल्हन खोजने की जिम्मेदारी स्वयं विजय पर ही डाल दी। विजय दिल्ली लौटकर अखबारों और इंटरनेट पर दुल्हन तलाशने में लग गया। करते-करते दो साल और बीत गए। एक दिन इंटरनेट पर एक विज्ञापन और उसमे छपी लड़की की फोटो पर विजय की नज़र टिक गई , मन ही मन ठान लिया कि इसी लड़की से शादी करूंगा। रविवार के दिन अपने एक जानकार को साथ लेकर इंटरनेट पर दिए गए पते पर जा पहुचे, क्योंकि विजय ने फ़ोन पर इस मुलाकात का वक्त पहले से ही ले लिया था, इसलिए लड़की घर पर तैयार बैठी थी। वहा पहुच कर विजय ने धीरे से डूअर बेल पर अपनी ऊँगली से प्रेस किया। एक ३०-३५ साल के हट्टे-कट्ठे व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला। विजय ने अपना परिचय दिया तो उसने अन्दर आने का इशारा कर दिया। फ्लैट एकदम सुनसान सा था,

व्यक्ति ने अपना परिचय लड़की के बड़े भाई के रूप में दिया। और घर में मौजूद घरेलु नौकर को चाय पानी सर्व करने का आदेश दे दूसरे कमरे में चला गया। फिर वह वापस लौटा और थोडी देर बाद एक सुन्दर,शोभर लिवास में एक खूबसूरत युवती बाहर आई। उस लड़की को देख विजय की आँखे फटी की फटी रह गई। इंटरनेट पर जो फोटो देखी थी उससे भी कई गुना खूबसूरत। लड़की की खूबसूरती, उसके बात करने का स्टाइल देख, विजय यह पूछना भी भूल गया कि घर में भाई-बहिन के अलावा और कोई भी है। कुछ ही देर में सब कुछ तय हो गया, बातो के बीच में लड़की ने एक शर्त रख डाली कि वह सादे तरीके से मन्दिर में शादी करेगी, विजय तो जैसे अपना धैर्य ही खो बैठा था, इसलिए बिना कुछ सोचे उसने इसके लिए हामी भर दी।

अगले दो तीन महीने काफ़ी गहमागहमी भरे रहे विजय के लिए। गाँव से सेठ और सेठानी को भी बुला भेजा लड़की देखने के लिए। एक होटल में डिनर पर मुलाकात करायी गई सीमा मल्होत्रा ( विजय की होने वाली बीबी ) से, सेठ जी भी बहु की खूबसूरती देख प्रफुलित थे। इसके बाद तय समय पर दिल्ली में ही शादी भी हो गई। सब कुछ ऐसे हुआ मानो कोई नाटक खेला जा रहा हो। शादी के बाद विजय और सीमा, विजय के पहाडी गाँव पहुचे! सेठ जी ने नवविवाहित बेटे-बहु के आगमन पर गाँव में एक शानदार रात्रि भोज रखा था। लोग दुल्हन को देखते और सेठ जी और उनके बेटे की तारीफों के पुल बांधते। सेठ जी फ़ूले नही समां रहे थे। कुछ दिन गाँव में हर तरफ़ बस उनकी ही चर्चा रही । कुछ दिन रुकने के बाद दूल्हा-दुल्हन हनीमून मनाने मसूरी जा पहुचे।

मौज-मस्ती और रंगरैलियों में ६ महीने कब गुजर गए कुछ भी पता नही चला। रोज़ दिन और रातो को साथ जीने मरने की कसमे खाई जाती। इस बीच सीमा ने विजय को बताया कि वह माँ बनने वाली है कि अचानक तभी एक दिन जब शाम को विजय काम से लौटा तो फ्लैट पर ताला लगा मिला। शायद आस-पड़ोस में गई होगी किसी काम से, यह सोच वह दरवाज़े पर पीठ टिका इंतज़ार करने लगा। आधा घंटा बीत गया मगर सीमा का कंही कोई अतI पता न था। उसके माथे पर लकीरे पड़ने लगी, उसने अपने मोबाइल से सीमा के मोबाइल पर फ़ोन किया, मगर कोई जबाब नही, कुछ देर घंटी जाती रही, किसी ने नही उठाया। अब विजय का माथा ठनका, किसी अनहोनी की आशंका से उसने पड़ोस के २-४ लोगो को इकट्टा किया और घर का ताला तोडा। अन्दर गया तो कुछ भी असमान्य नज़र नही आया, घर की सभी वस्तुए यथावत अपनी जगह पर थी। लोगो ने उसे अपने और सीमा के जो भी रिश्तेदार दिल्ली में थे उनसे सम्पर्क करने की सलाह दी। अब विजय को समझ में आ रहा था कि उसने कितनी वेव्कूफी वाले काम किए थे कि कभी भी सीमा से उसके रिश्तेदारों के बारे में भी नही पूछा। अचानक उसे कुछ सूझा और वह बिना किवाड़ बंद किए घर से बाहर निकल गया। अब तक पूरी दिल्ली अंधेरे में डूब चुकी थी, वह सीधे सीमा के उस पते पर पहुच गया, जहा उसकी पहली बार सीमा से मुलाकात हुई थी। जोर से बेल पर ऊँगली प्रेस की, एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला, उसने सीमा के तथाकथित भाई अखिलेश मल्होत्रा के बारे में पूछा। वृदा बोली, इस नाम का तो यहाँ कोई नही रहता। विजय ने कुछ और जानकारी देते हुए सीमा के ६-७ महीने पहले यहI पर होने की बात उसको बताई। वृदा फिर बोली, इस नाम का तो पता नही, मगर जो किरायेदार पहले यहाँ रहते थे वो ६ महीने पहले ही फ्लैट खाली कर चुके है। विजय को मानो साँप सूंघ गया हो , उसको कुछ भी नही सूझ रहा था कि क्या करे। इस वक्त उसे महसूस हो रहा था कि अपने इलाके और नजदीक-दूर के जानने पहचानने वालो से सम्पर्क रखना कितना ज़रूरी है, अपनी कोरी सेठगिरी की कोरी अकड़ में रहने से कोई फायदा नही। उसने एक बार फ़िर सीमा के मोबाइल का नम्बर लगाया , बेल गई, मगर कोई रेस्पोंस नही। वह वापस अपने घर लौटा और नजदीकी पुलिस स्टेशन पहुँच उसने सीमा की गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में दर्ज करवाई।

दिन गुजरते गए और एक हफ्ता बीत गया, मगर सीमा का कोई अता-पता नही था। इस बीच वह दो बार गुहार लगाने पुलिस वालो के पास थाने भी गया था, मगर वही ढाक के तीन पात । आठवे दिन सुबह-सुबह उस पर एक और मुसीबत आन पड़ी। दो पुलिसवाले उसके घर पहुचे और उल्टे उससे ही सीमा के बारे में पूछने लगे, उसे धमकाने लगे की सीमा को उसने दहेज़ के लालच में मार डाला है और गुम होने का ड्रामा कर रहा है।यह सुन विजय की आंखो के सामने एकदम अँधेरा छा गया वह रोने लगा। पुलिस वाले हमदर्दी का नाटक करने लगे और उसे कुछ समझाते हुए मामला रफा-दफा करने के लिए १ लाख रूपये देने के लिए कहने लगे। विजय को मानो काटो तो खून नही, उसने कहा कि इतने रूपये तो उसके पास नही है, पुलिस वाले ने पूछा कितना दे सकता है ? वह बोला जादा से जादा ५०-६० हज़ार का इंतजाम कर सकता हूँ। पुलिस वाले उसे कल तक पैसे का इंतजाम करने की हिदायत दे चले गए।

जैसे- तैसे विजय ने रुपयों का इंतजाम कर पुलिस से अपना पिंड छुड़ाया। उसकी जिंदगी एकदम थम सी गई थी। इसी तरह करते-करते एक साल गुजर गया। एक दिन वह लागत लेखांकन का ऑडिट करने अपनी कम्पनी की तरफ़ से जयपुर गया था। शाम को नहरगढ़ फोर्ट के पास ब्रह्मपुरी इलाके में मार्केट में एक युवती पर जैंसे ही विजय की नज़र पड़ी, तो वह आँखे फाड़-फाड़ कर उस युवती को देखने लगा, उसे अपनी आंखो पर विश्वास ही नही हो रहा था कि वह सीमा है या उसकी आंखो का धोखा। युवती गोद में एक ६-७ महीने के बच्चे को लेकर एक और युवती के साथ ब्रह्मपुरी कालोनी की तरफ़ बढ रही थी, युवती की नज़र विजय पर नही पड़ी थी। एक बार तो विजय के मन मे आया कि उसे सीमा को आवाज़ देनी चाहिए, लेकिन फिर कुछ सोच वह रुक गया, और उनके पीछे पीछे चलने लगा। आधा किलोमीटर चलने के बाद दोनों युवातिया एक घर में घुस गई। विजय उधर से गली में सीधे निकला, जिस घर में वे युवातिया घुसी थी, उसके गेट पर जी एस मल्होत्रा के नाम का बोर्ड लगा था। विजय को अपने साथ हुए किसी बदे धोखे की बू आने लगी थी, विजय बदहवास स्थिति में होटल में अपने कमरे पर लौट आया, उसकी समझ में नही आ रहा था कि क्या करे ?

रात भर सो नही पाया, और सुबह होते ही उसी इलाके में फिर पहुच गया। पिछले अनुभवों के आधार पर वह जल्दबाजी में कोई कदम नही उठाना चाहता था, अतः पास के पान के खोके पर खड़ा होकर सिगरेट पीने लगा। सुबह के नौ बजे थे, अचानक उस घर का गेट खुला और जो कुछ विजय ने देखा उसके पाव तले की जमीन खिसक गई, एक बार उसे लगा कि उसका हार्ट फ़ेल हो जाएगा। अखिलेश मल्होत्रा अटेची हाथ में लिए गेट से अपनी गाड़ी, जो कि गली में खड़ी थी, की तरफ बढ़ रहा था और गेट पर सीमा अपने बच्चे को गोद मे पकडे उसका हाथ हिला-हिला कर अखिलेश को बाय कर रही थी ! अखिलेश ने गाड़ी स्टार्ट की और आगे बढ़ गया, विजय इससे पहले कि सीमा गेट बंद कर अन्दर जाती, उसका नाम जोर से पुकारते हुए उसकी तरफ बढ़ा। सीमा की नज़र जैसे ही उस पर पड़ी वह इस अप्रत्याशित घटना से एक दम सकपका गई और जोर से गेट को बंद कर दिया। विजय एक हाथ गेट पर और दूसरा हाथ अपने सीने पर रख जोर जोर से हाफने लगा। उसे अब तक इतना तो समझ में आ गया था कि उसके साथ सचमुच कोई बहुत बड़ा धोखा हुआ है।

अभी पन्द्रह बीस मिनट ही बीते होंगे कि वह गाड़ी जिसमे बैठ कर कुछ देर पहले अखिलेश गया था, फिर से गली में दाखिल हुई। शायद सीमा ने अखिलेश को उसके मोबाइल पर फ़ोन कर उसको सब कुछ बता दिया था इसलिए वह तुरंत वापस लौट आया था। गाड़ी घर से थोडी दूर खड़ी कर वह सीधे विजय की तरफ़ लपका। एक बार तो विजय को मन मे आया कि वह सीधे अखिलेश पर आक्रमण करदे, मगर उसकी कद काठी और कुछ और सोच वह अपने ऊपर नियंत्रण बनाये रखा। अखिलेश ५ कदम दूर रुक धीरे धीरे विजय की तरफ़ कुछ सहमा सा बढ़ने लगा , वह कुछ कहना चाहता था मगर उसके मुह से शब्द नही निकल रहे थे । अखिलेश ने अगल-बगल के मकानों पर अपनी नज़र दौडाई कि कोई देख तो नही रहा और फिर विजय की तरफ़ हाथ जोड़ कर उसे अपनी गाड़ी की और बढ़ने का इशारा करने लगा। विजय कुछ देर तो उसे घूरता रहा मगर फिर गाड़ी की तरफ़ बढ गया, वह भी सच्चाई जानने को बेताब था। अखिलेश की गाड़ी के पास पहुच, अखिलेश ने अगली सीट का दरवाजा खोल उससे गाड़ी के अन्दर बैठने का इशारा किया। विजय गाड़ी में बैठ गया, उसने भी जल्दी से ड्राइविंग सीट संभाली और गाड़ी स्टार्ट कर आगे बढ़ गया। एक किलोमीटर चलने के बाद अखिलेश ने एक वीरान जगह पर गाड़ी किनारे पर रोक दी। विजय मूक दर्शक बन यह सब देख रहा था।

अखिलेश ने कहना शुरु किया, और विजय ने जो सुना उसे अपने कानो पर भरोषा नही हो रहा था। अखिलेश अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए विजय से बोला, मैं यहाँ पर एक सरकारी अफ़सर हूं, मेरे पिताजी, एक रिटायर आईपीएस अधिकारी है। और बड़े दबंग किस्म के इन्सान है। मेरी और सीमा की शादी करीब 7 साल पहले हुई थी। लेकिन जब 5 साल गुजर जाने पर भी हमारी कोई औलाद नही हुई तो घर वालो की तरफ़ से प्रेशर बढ़ने लगा, हम दोनों ने चिकित्सकीय जांच करवाई और जांच के अनुसार मैं पिता बनने योग्य नही था। सीमा और मैं एक दूसरे को दिलो जान से चाहते है, लेकिन मेरे पिताजी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि सीमा को तलाक दे दो और दूसरी शादी करो, क्योंकि मैं उनकी इकलौती औलाद हूँ और वह अपना बंश आगे बढ़ता देखना चाहते थे। मैं अपने पिताजी को यह बताने की हिम्मत नही कर पा रहा था कि मैं पिता बनने लायक नही हूँ, क्योंकि उन्हें दिल के दो दौरे पहले ही पड़ चुके है। इस मानसिक तनाव के चलते हम दोनों ने यह यह प्लान बनाया और कडा फैसला लिया और मैं ६ महीने के डेपुटेशन पर अपना तबादला दिल्ली करवाकर हम वहां शिफ्ट हो गए, ताकि घरवालो को भी इस राज का पता न चले। अखिलेश यह सब कह कर विजय के पावों में गिर गया कि उसकी और सीमा कि जिंदगी बरबाद होने से बचा लो।

विजय यह सब सुन, एक द्वन्द मे फंस गया, अपनी किस्मत को कोसने लगा, एक बार सोचा कि जाकर सब कुछ पुलिस को बता दूँ मगर फिर सोचा अब फायदा क्या ? वैसे भी पुलिस के साथ उसका पहला अनुभव ही बहुत कड़वा था। उसका दिल कर रहा था कि वह अपनी वेवकूफी पर जोर-जोर से हँसे। वह सोच रहा था कि लोग किस कदर कमीने हो गये है, इन लोगो ने तो अपनी जिंदगी बरबाद होने से बचा ली,मगर एक बार भी यह नही सोचा कि उसकी जिंदगी का क्या होगा? क्या वह जीते जी कभी सीमा और उस कड़वे सच को भुला पायेगा?
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मेरे पिता का कसूर !

देव भूमि उत्तराखंड के सुदूर उत्तर में प्रकृति की खूबसूरत वादियों में बसे छोटे से पहाडी गाँव रिगोली में पिछले २०-२२ सालो से न दीवाली के दीप जले और न ही कभी होली मनाई गई । गाँव की खुशहाली को मानो किसी की नज़र लग गई हो ! गाँव भले ही छोटा सा है, मगर कभी इसमे एक जीवन की भर्पूरता थी। भविष्य की आशाये थी, उम्मीदों के सपने थे। लेकिन आज सब कुछ सूना-सूना और बेजान है, एक अजीब सा सन्नाटा पसरा पड़ा है पूरे गाँव में। हो भी भला क्यो न, जिस गाँव ने पिछले २० बरसों में एक-एक कर अपने चार जवान सपूतो को जाफना, जम्मू-कश्मीर, कारगिल और मणिपुर में खोया हो, उस गांव के लिए भला खुशी के क्या मायने ?

श्रुति तब दो बरस की थी, जब उसने अपने चौबीस वर्षीय पिता तारादत को गाँव के पहाडी बस अड्डे पर माँ की गोद में से आखिरी बार बाय-बाय करने के लिए अपने नन्हें हाथ हिलाये थे। अगस्त में २ महीने की छुट्टी काट कर जब तारादत्त परिवार वालो से विदाई लेकर ड्यूटी ज्वाइन करने गाँव से निकला था तो शायद ही किसी को यह अहसास रहा हो कि वे अपने इस युवा सिपाही को आखरी बार बिदाई दे रहे है, क्योंकि वैसे तो एक फौजी की जिंदगी तमाम तरह के जोखिमों से भरी पड़ी है ,मगर इंसान कि कल्पना शक्ति इनके लिये उत्पन्न खतरों का अन्दाजा उस वक्त के देश और दुनिया के सामने मौजूद हालात से लगाता है! उस वक्त देश की आतंरिक और बाहरी हालात इतने बुरे भी नही थे कि ऐसी कल्पना की जाती।
मगर किसे मालूम था कि देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री के सिर पर अपनी माँ की भांति दुनिया की चंद दिनों की वाहवाही लूटने का भूत सवार हो जाएगा। अफसोस कि बेटे को श्रीलंका के मोर्चे पर वह नसीब नही हो सका और बाद मे इस गलती की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पडी। तारा दत्त के ड्यूटी ज्वाइन करते ही, सरकार ने श्रीलंका के अनुरोध पर तमिल उग्रवादियो से निपट्ने के लिये इन्डीयन पीस कीपिन्ग फ़ोर्स श्रीलंका भेजने का निश्च्य किया। तारादत्त की रेजिमेंट को भी श्रीलंका के जाफना प्रान्त में कूच करने के निर्देश मिले। १० अक्तूबर १९८७, सुबह का वक्त था , तारा दत्त की ५ वी राज बटालियन की एक टुकडी अपने नित्य कर्मो से निपट कर मोर्चा सँभालने की तैयारी में थी, कि तभी एलटीटीइ के छापामारो ने जंगल की तरफ़ से उनपर हमला कर दिया। काफ़ी देर तक लड़ाई चलती रही जिसमे सभी छापामार और तारादत्त और उसके नौ साथी सैनिक शहीद हो गए ।

बायीस वर्षीय जवान श्रुति की मां की तो मानो जिन्दगी ही सूनी हो चली थी। बेचारी अपनी किस्मत पर रोने और बदनसीबी को कोसने के सिवाय और कर भी क्या सकती थी, सेना की तरफ़ से मिले चन्द लाख रुपये और पेन्शन से उसने श्रुति की परवरिश और पढाई-लिखाई जारी रखी। श्रुति भी अपनी माँ के साथ गाँव में, जिंदगी के सफर की रोजमर्रा की अनेको लड़ाईया लड़ते हुए अब जीवन की तेइसवी देहलीज पर कदम रख चुकी है । असहाय माँ को दिन-रात बेटी के हाथ पीले करने की चिंता खाए रहती है । अभी कुछ महीनो पहले वह अपनी ममेरी बहिन की शादी में गाँव के नजदीकी कस्बे कीर्तिनगर आई हुई थी । वहाँ पर टीवी देखते हुए उसने न्युज चेनल पर एक अद्भुत खबर देखी । टीवी चेनलो पर एक ख़बर बार-बार दिखाई जा रही थी कि सुश्री प्रियंका ने अपने पिता के हत्यारो मे से एक तथाकथित हत्यारिन ‘नलिनी’ से मद्रास की एक जेल में मुलाकात कर उससे पूछा कि आख़िर उसके पापा का क्या कसूर था जो उनको इतनी निर्ममता से मार डाला गया ?

यह ख़बर देखने के बाद से श्रुति जैसे काफ़ी विचलित, निराश और चिडचिडी हो गई । उसके जेहन में भी अनेको सवाल उठने लगे । शादी समारोह के बाद जबसे वह मामा के घर से वापस अपने घर लौट्कर आयी है , तभी से बस एक सवाल माँ से बार-बार पूछे जा रही है कि माँ मैं सुश्री प्रियंका से मिलना चाहती हूँ, कैसे मिलु ? उसकी मां ने जब पह्ले-पहल उसके इस अजीबो-गरीब ख्वायिश की वजह पूछी तो श्रुति का जबाब सुनकर उसकी आंखे छ्लछला आयी। श्रुति ने कहा कि मां, मुझे भी प्रियंका से मिलकर वही सवाल पूछना है जो उसने नलनी से पूछा था कि उसके पिता का क्या कसूर था, जो उन्हें बेवजह मार दिया गया?

माँ उसकी मासूमियत देख अपनी नम आखो को धोती के पल्लु से फोंझ, उसके सिर पर सिर्फ़ हाथ फेर देती । अब बेचारी श्रुति को कौन समझाए कि तू इतनी ऊँची उड़ान मत उड़, बड़े लोगो की नकल करने के ख्वाब देखना छोड़ दे। इस तरह के प्रश्न करना सिर्फ़ बड़े लोगो की फितरत और पहुँच तक ही सीमित होती है । हमारे जैसे छोटे कद के लोग अपनी भावनावो को दबा कर सिर्फ़ सब्र करना जानते है । तुम्हारी इतनी हैसियत कहाँ कि प्रियंका से मिल भी सको ?

नोट: कहानी मे घट्ना के स्थान और पात्र सभी काल्पनिक है !
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धनसिंह- एक युद्धबंदी !

कुछ समय पहले, जब पंजाब के कश्मीर सिंह, जिंदगी की एक लम्बी जंग लड़कर पैंतीस साल बाद पाकिस्तानी जेल से रिहा होकर भारत लौटे, तो अचानक मेरे मस्तिस्क से धूमिल हो चुकी एक वृद्ध की कुछ तस्बीरे, जो मेरे दिमाग में तकरीबन १२-१५ साल पहले घर कर गई थी, मेरे जहन में फिर से हथोडे की तरह प्रहार करने लगी थी। अभी कुछ रोज पूर्व एक रिपोर्ट पढ रहा था, शीर्षक था; “सेना के तीनो अंगो में अधिकारियो की अभूतपूर्व कमी” वो एक कहावत है कि 'जब जागे तभी सबेरा' । रक्षा सम्बंधित सभी हल्कों में वर्षो से यह चर्चा और चिंता का विषय बना हुआ है कि देश में सेना के प्रति युवाओ में उत्साह निरंतर कम होता जा रहा है और जो अधिकारी सेना में हैं भी, वे समय से बहुत पहले ही स्वेच्छा से सेवानिवृत हो जा रहे है। और जिसका परिणाम है सेना में अधिकारियो की अभूतपूर्व कमी। और यह बात फिर से उजागर हुई, अभी हाल मे नई दिल्ली में जारी रक्षा सम्बन्धी संसदीय समिति की रिपोर्ट में। सेना में अधिकारियो की अभूतपूर्व कमी से परेशान एक संसदीय समिति ने रक्षा मंत्रालय से कहा है कि वह एक योजनाबद्ध ढंग से तुंरत कारवाही कर इस ओर ध्यान दे, और इससे सम्बंधित विसंगतियों और कमियों को तत्काल दूर करे ।

इस अभूतपूर्व कमी के कई कारण और खामिया समिति ने गिनाई है जिनमे से कुछ है ; युवाओ द्वारा सैन्य कैरियर को कम प्राथमिकता, चयन सम्बन्धी प्रक्रिया का कठोर होना और चयन तथा पदोन्नति का निष्पक्ष और पारदर्शी न होना । लेकिन इसके साथ ही मेरा मानना यह भी है कि देश और समाज में पनपती बहुत सी ऐंसी विसंगतिया भी इसका प्रमुख कारण है जो एक होनहार युवा शक्ति को सेना की ओर आकर्षित करने में अक्षम है। हम अपने रक्षा बजट में तो हर साल बड़ी-बड़ी रकम सेना और सैनिक साजो-सामान के लिए प्रावधान करते है लेकिन हकीकत में उसका कितना प्रतिशत उस कार्य में खर्ज कर पाते है, वह ज्यादा शोचनीय विषय है।

हमारे बहुत से रणबांकुरे थे, जो १९६५ और ७१ की लड़ाई में कहीं गुम हो गए थे और जिन्हें हम आज तक नही ढूंड पाए। एक-दो ही ऐंसे खुश नसीब थे, जो पुनः लौटकर घर आ सके, अन्यथा उन बदनसीबो का कौन , जिन्हें हमारी घटिया दर्जे की राजनीति और नौकरशाही ने उनकी भरी जवानी में ही जिंदा दफ़न कर दिया? और जिनके गरीब परिवारों को मात्र एक तक्मा और चंद रूपये पकडाकर हमेशा के लिए चुप करा दिया। इन स्वार्थी लोगो ने हमारे उन रण वाकुरो के उस त्याग और पराक्रम, जिसमे उन्होंने न सिर्फ़ लाहौर तक को अपने कब्जे में ले लिया था, अपितु पूरब और पश्चिम की दोनों सीमाओं पर कुल मिलाकर उनके एक लाख सैनिक अपने कब्जे मे लिए थे, महज सस्ती लोकप्रियता और दुनिया को अपनी दरियादिली दिखाने के लिए पाकिस्तान को वापस कर दिया, मगर अपने गुमशुदा जवानों ( प्रिजनर ऑफ़ वार) की ठीक से खोज ख़बर करना और समझौते के वक्त अदला बदली का सही मापदंड तय करना भी, मुनासिब न समझा ।

ऐंसा ही एक बदनसीब था, धनसिंह । सुदूर अल्मोड़ा की पहाडियों का निवासी । तीन बहनो का इकलोता भाई। गरीब परिवार की मजबूरिया और देशप्रेम की भावना उसे १२वीं पास करने के बाद रानीखेत खींच लायी। और वह सेना में भर्ती हो गया। अभी रंगरूटी पास ही की थी कि देश के पूर्वी और पश्चमी मोर्चे पर युद्ध के बादल छा गए। बाग्लादेश की आग पश्चमी मोर्चे पर भी पहुच गई, उसे जम्मू से लगी सीमा के एक मोर्चे पर भेज दिया गया। एक दिन जब उसे सेना की एक टुकडी के साथ दुश्मन की अग्रिम पोजिशन को पता लगाने भेजा गया तो दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध हुआ, उसके सभी साथी मारे गए, जिनकी लाशें बाद मे सेना को मिल गई, मगर धन सिंह की न तो लाश मिली और न फिर वह लौटकर आया।

माँ तो कुछ समय बाद ही बेटे के गम मे स्वर्ग सिधार गई, किंतु पिता जैसे-तैसे जिम्मेदारिया निभाता रहा। तीन बेटियों की शादी ही कर पाया था कि एकाकी जीवन और बेटे तथा पत्नी के गम में मानसिक संतुलन खो बैठा। १०-१२ साल पहले किसी काम से अल्मोड़ा गया था, वापसी पर अल्मोड़ा के रोडवेज़ बस अड्डे पर बस का इंतज़ार कर रहा था कि तभी मैंने देखा कि एक बूढा व्यक्ति हाथ मे थाली लिये उसे बजाकर और गाना गा कर भीख मांग रहा था। पास खड़े एक सज्जन, जिनसे मेरा परिचय रात को होटल मे हुआ था, ने उस बूढे व्यक्ति की कहानी मुझे बताई कि कैसे इसका बेटा १९७१ की लड़ाई में गुम् हो गया था। और उसके बाद ....................!

वृद्ध के दांत भी नही थे, और एक लडखडाती लय-ताल में वह वृद्ध कुछ इस तरह का पहाडी गीत गा रहा था: "त्वे जागदो रैयु धना, डाक की गाड़ी मा, तू किलाई नि आई धना, डाक की गाड़ी मा................................!" ( धन सिंह, मैं तेरा डाक गाड़ी से आने का इंतज़ार कर रहा था, मगर तू अब तक आया क्यो नही ?) ................ यह सब सुनकर मै भी एक गहरे भाव मे कहीं खो सा गया था, मैं बस एक लम्बी साँस लेकर रह गया। उन बूढी आंखो को आख़िर समझाता भी तो किस तरह कि तू अब अपने धना (धन सिंह ) का इंतज़ार छोड़ दे, तेरा धना, अब शायद कभी लौट्कर नही आएगा।