Sunday, February 27, 2011

शारदा !

कृष्णा बाथरूम से नहाकर ज्यों ही बाहर अपने कमरे में पहुंचा और उसने तौलिये से अपने गीले बालों को हौले-हौले रगड़ना शुरू किया, तभी किचन से स्वाति ने भी कमरे में प्रवेश किया और बोली; सुनो जी, आज गणतंत्र दिवस की छुट्टी है, मार्केट बंद रहेगा। वो तो हरगणतंत्र दिवस पर  होता है, नया क्या है इसमें ?  कृष्णा  ने बिना स्वाति की तरफ देखे ही सवाल किया। नहीं मेरा कहने का मतलब यह था कि    तुम भी फ्री हो, क्यों न आज हम लोग माँ को मिलने चलें, हमारी शादी के बाद जबसे बेचारी जेल गई है, हम लोग एक बार भी उनकी कुशल-क्षेम पूछने नहीं गए। एक बार राहुल को तो उनसे मिला देते, वह भी दो-ढाई साल का हो गया है, उसने भी अभी तक अपनी दादी को नहीं देखा।

स्वाति की इस बात पर एक बार तो कृष्णा भड़क ही गया, और स्वाति की तरफ देखते हुए गुस्सैल अंदाज में बोला, यार मैं तुम्हे कितनी बार बता चुका कि मुझे नहीं मिलना किसी माँ-वां से, मेरी माँ पांच साल पहले मर चुकी, अब मेरी कोई माँ-वां नहीं है। कृष्णा की बात सुनकर, थोड़ा रूककर स्वाति  अपने दोनों हाथों से उसका बाजू पकड़ते हुए उसे पुचकारते हुए बोली "यार, वो तुम्हारी माँ है, तुम कैसे निष्ठुर बेटे हो। एक बार भी यह नहीं सोचते कि बिना उनकी बात सुने ही हम लोगो ने उनसे इसतरह किनारा कर लिया। कोई तो बात रही होगी जो तुम्हारी माँ ने इतना कठोर कदम उठाया। इतनी तो उनके लिए नफ़रत मेरे दिल में भी नहीं है, जो उनकी बहु हूँ, और जिसने अपने पिता को …......."

स्वाति ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी, उसके मोटे-मोटे नयन छलछला आये थे। यह देख कृष्णा नरम पड़ते हुए, अपनी हथेली से उसके गालो पर लुडक आये आंसूओं को फोंछ्ते हुए बोला, अच्छा बाबा,ब्लैकमेल करना तो कोई तुमसे सीखे। चलो ठीक है, अगर माँ से मिलने की तुम्हारी इतनी ही हार्दिक इच्छा है तो फटाफट नाश्ता तैयार करो। राहुल को जगाकर उसे भी तैयार कर लो, फिर चलेंगे। कृष्णा पर अपनी बात का असर होता देख स्वाति का चेहरा एक बार फिर से खिल उठा। अपने गालो को अपने दोनों हाथों से साफ़ करते हुए उसने उछलकर अपने से तकरीबन एक फुट लम्बे कृष्णा की गर्दन में अपने दोनों हाथ फंसाकर उसकी गर्दन नीचे खींचते हुए उसे थैंक्यू कहकर उसका माथा चूम लिया। उसके बाद वह वापस किचन में चली गई।

लेकिन भाग्य को तो शायद कुछ और ही मंजूर था। और कभी-कभार यह देखा भी गया है कि जिस बात का अचानक ही जुबां पर कभी कोई जिक्र आ जाए, उसके पीछे उससे सम्बंधित कोई अदृश्य घटनाक्रम या तो पहले ही घटित हो चुका होता है, या फिर घटित होने वाला होता है। कृष्णा के लिए किचन में चाय तैयार करते हुए इधर स्वाति इतने सालों बाद पहली बार अपनी सासू माँ से जेल में मिलने जाने के ख्वाब सजाते हुए अपने मानस पटल पर उस वक्त के भिन्न-भिन्न काल्पनिक परिदृश्य, जब वह अपनी सासू माँ से जेल में मिल रही होगी, किसी चित्रपट की तरह परत दर परत आगे बढ़ा रही थी, और उधर बाहर मेन गेट पर एक खाकी वर्दीधारी जोर-जोर से गेट का ऊपरी कुंडा खटखटा रहा था।

आवाज सुनकर स्वाति जब किचन से निकलकर घर के मुख्य द्वार पर पहुची, तो उसने देखा कि कृष्णा पहले ही आँगन के बाहर मेन गेट पर पहुँच चुका था, और उस खाकी वर्दीधारी से कुछ बातें कर रहा था। कुछ देर बातें करने के बाद जब वह खाकी वर्दीधारी वहाँ से चला गया तो कृष्णा भी घर के मुख्य द्वार की तरफ मुडा। भारी डग भरते हुए जब वह स्वाति के पास पहुंचा तो उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी। बिना एक पल का भी इन्तजार किये स्वाति ने आशंकित और कंपकपाती आवाज में पूछा; क्या हुआ, कौन था वो वर्दीधारी? कृष्णा ने तुरंत कोई उत्तर नहीं दिया और स्वाति को अन्दर चलने का हाथ से इशारा भर किया। ड्राइंग रूम में पहुंचकर दोनों साथ-साथ सोफे पर बैठ गए। जबाब सुनने को आतुर स्वाति ने फिर से वही सवाल दुहराया। कृष्णा ने सुबकते हुए अपना सर बगल में चिपककर बैठी स्वाति के सर पर रखते हुए कहा; जेल से था, मुझे तुरंत आने को कहा है....माँ ने कल रात को अपनी हाथ की नशे काटकर आत्महत्या कर ली। कृष्णा की यह बात सुनकर स्वाति हतप्रभ रह गई, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक पलटी इस तकदीर की बाजी पर वह खुद रोये या फिर कृष्णा को ढाढस बंधाये।

कुछ पल यों ही बेसुध बैठा रहने के बाद फिर कृष्णा उठा और स्वाति को राहुल के पास घर पर ही ठहरने की सलाह देते हुए जिला जेल जाने की तैयारी करने लगा। वहाँ पहुँचने पर वह सीधे जेलर के दफ्तर में घुसा। जेलर जोशी मानो उसी का इन्तजार कर रहे थे। उसे अपने सामने की कुर्सी पर बिठाते हुए जेलर ने कृष्णा से अपनी संवेदना व्यक्त की और उसे उसकी माँ का वह पत्र सौंपा, जिसे वह पिछली शाम को ही जेल के एक कर्मचारी को यह कहकर सौंप गई थी कि इसमें उसने अपने बेटे-बहु के लिए अपनी कुशल-क्षेम और पोते के लिए आशीर्वाद भेजा है, और इसे वह उन लोगो तक पहुंचा दे। आज सुबह तडके जब हमें इस घटना की जानकारी मिली, तब उस कर्मचारी ने यह पत्र मुझे दिया। लाश अभी पोस्टमार्टम के लिए गई हुई है, तुम्हे कुछ देर इन्तजार करना होगा, यह कहकर जेलर जोशी अपने काम में व्यस्त हो गए थे।

माँ का दाह-संस्कार संपन्न करने के उपरान्त रात को कृष्णा ने बड़े ही सलीखे से एक बंद लिफ़ाफ़े में रखा हुआ, माँ का वह ख़त खोला जो जेलर ने उसे सौंपा था। चिट्ठी क्या थी, बस एक तरह से २५ जनवरी २०११ का अपने हाथों का लिखा माँ का आत्म-कथ्य था। लिखा था;

बेटा,
मैं बहुत थक गई हूँ, विश्राम लेना चाहती हूँ। प्रभु के दर्शन की इच्छा ने मेरी भूख, प्यास और नींद भी छीन ली है। मैंने अपनी आत्मा के अन्दर बहुत से सवाल समेटकर रखे है, उस पार अगर सचमुच कोई अनंत-परमेश्वर है, और मेरा सामना वहाँ उनसे होता है, तो इन सवालों की पोटली को उनके समक्ष खोलूँगी जरूर। आशा करती हूँ कि मेरे इस पत्र को पढने के बाद तुम और स्वाति मुझे माफ़ कर दोगे।

लोग कहते है कि सब कुछ यहाँ भाग्य पर निर्भर होता है। लेकिन, मैं जब पलटकर देखती हूँ तो न जाने क्यों मुझे लगता है कि तमाम उम्र अपने भाग्य के दिन तो मैंने खुद ही तय किये। और आज फिर से आख़िरी बार भी वही दोहरा रही हूँ। इंसान क्या सोचता है और क्या हो जाता है। जानती हूँ कि जो कदम मैं उठाने जा रही हूँ, सामान्य परिथितियों में कोई भी विवेकशील पढ़ा-लिखा इंसान उसे पसंद नहीं करता। मगर कभी-कभी जीवन में वो मोड़ भी आ जाते है, जब क्या अच्छा है और क्या बुरा, जानते हुए भी इंसान खुद को मन के प्रवाह में बहने से नहीं रोक पाता।

बचपन में तुझे हमसे हमेशा यह शिकायत रहती थी कि इलाके के अन्य बच्चों की तरह हम लोग भी तुझे छुट्टियों में तेरे दादा-दादी, नाना-नानी से क्यों नहीं मिलवाने ले जाते। आज तेरी उस शिकायत पर अमल न करने की वजह भी मैं तुझे बताये देती हूँ। साथ ही स्वाति की वह शिकायत भी दूर करूंगी कि मैंने क्यों उसके पापा की ह्त्या की थी। हाँ, मेरे नन्हे पोते की भी जरुर मुझसे यह शिकायत होगी कि मैं उसे क्यों नहीं मिली, तो उसकी मैं इसबात के लिए जन्म-जन्मों तक गुनाहगार रहूंगी कि मैं उसकी शिकायत  दूर नहीं  कर पाई।

बेटा, तेरे नाना, यानि  मेरे पापा गरीब तबके के लोग थे, और मोदीनगर में एक टैक्सी ड्राइवर थे। वे मुख्यत: सूगर मिल के अधिकारियों को लाने, लेजाने का काम करते थे। हम लोग मोदीनगर में एक छोटे से मकान में रहते थे, जो मोदी भवन के ठीक सामने लक्ष्मी नारायण मंदिर के पास में था। चार भाईबहनो में मैं सबसे बड़ी थी, और मेरे पापा मुझे बहुत लाड देते थे। वे मुझे पढ़ा-लिखाकर एक सशक्त लडकी बनाना चाहते थे, अत: घर की प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी उन्होंने मुझे ग्रेजुएशन करवाया। खाली समय में वे मुझे टैक्सी चलाना भी सिखाते थे, उस जमाने में मुख्यतया दो तरह की ही गाड़ियां लोगो के पास थी, एक फिएट और दूसरी एम्बेसडर। मैं अपने कॉलेज की कबड्डी की एक कुशल खिलाड़ी भी थी।

फाइनल इयर के दौरान एक बार अंतर्राज्य खेल प्रतिस्पर्धा के लिए मैं और मेरी टीम के अन्य सदस्य महीने भर के कैम्प में दिल्ली गए हुए थे। जालिम दुनिया के फरेबों से बेखबर मैं पूरी लग्न से अपने खेल की प्रेक्टिस में जुटी थी कि वहीं एक सुन्दर, हट्टा-कट्ठा नौजवान मेरे इर्दगिर्द मंडराने लगा। मेरे खेल की तारीफ़ के बहाने वह मेरे करीब आया और बड़े ही शालीन ढंग से उसने अपना परिचय कीर्तिनगर, दिल्ली निवासी मनोज गुप्ता के रूप में दिया। अब वह हर रोज ही हमारे कैम्प के आस-पास मंडराने लगा था। एक दिन फिर वह हमारी खेल टीचर से मीठी-मीठी बाते कर मेरा पता भी पूछ बैठा। उसने मुझे बताया कि वह ब्रिटेन में नौकरी करता है, और अगले सप्ताह वह वापस ब्रिटेन चला जाएगा। फिर एक दिन वह थोड़ी देर के लिए आया और झट से यह कहकर चला गया कि वह सिर्फ मुझे बाय कहने आया था क्योंकि उसके पास अब समय कम है, उसे वापसी की तैयारी करनी है। और साथ ही यह भी बता गया कि उसके पिता जोकि एक जाने-माने व्यापारी है, मेरे पिता से मिलने मोदीनगर आयेंगे।

और फिर कुछ दिनों बाद एक दिन शाम को हमारे घर के आगे एक एम्बेसडर कार रुकी। एक ५८-६० साल का अधेड़ मेरे पिता के साथ हमारे घर आया। उसने खुद को मनोज का पिता बताया और कहा कि वैसे तो बराबरी में हम  लोग उनके मुकाबले कहीं भी नहीं ठहरते थे, लेकिन चूँकि हमारा लड़का आपकी बेटी को पसंद करता है, और उसे बोल्ड और निर्भीक लडकिया पसंद है, अत: बेटे की जिद के आगे मैं यह रिश्ता करने के लिए मजबूर हूँ। उस व्यक्ति ने आगे कहा ; हमें आपसे दहेज़ में कुछ भी नहीं चाहिए, और न ही हम किसी गाजेबाजे के साथ आयेंगे, मेरा बेटा साधारण ढंग से शादी करने का पक्षधर है। लेकिन आप यह भली प्रकार से समझ ले कि शादी के बाद आपकी बेटी को तुरंत मेरे बेटे के साथ ब्रिटेन रहने के लिए जाना होगा। बेटी के लिए एक अच्छा घर मिलने की आश में मेरे पिता ने भी तुरंत हामी भर ली।

और फिर करीब तीन महीने बाद तय-शुदा दिन पर दुल्हा मनोज गुप्ता दस-ग्यारह लोगो की एक बारात के साथ हमारे घर पर उतरा। घरवाले खुश थे कि उनकी बेटी एक बड़े घर में जा रही थी। और जल्दी ही विदेश भी चली जायेगी। भोर पर डोली विदाई हुई और मैं दुल्हन बनकर दिल्ली आ पहुँची। घर न जाकर बारात सीधे दिल्ली के एक होटल में गई। जहां न सिर्फ दिनभर, बल्कि रात दस बजे तक पार्टी चलती रही। इस बीच मैं यह नोट कर रही थी कि मेरा दुल्हा मुझसे मिलने कम और दुल्हे का पिता यानि मेरा तथाकथित ससुर, मेरे इर्द-गिर्द ज्यादा घूम रहा था। मेरे साथ विदा करने आया मेरा छोटा भाई और एक चचेरा भाई भी दिन में वापस मोदीनगर लौट चुके थे। फिर रात दस बजे तीन-चार कारों का काफिला कीर्तिनगर, मनोज के घर को चल पडा। घर पहुंचकर मैंने देखा कि घर पर कोई ख़ास चहल-पहल नहीं थी। मेरे अंतर्मन के चक्षु किसी संभावित खतरे से आशंकित थे। और फिर एक ३०-३५ साल की महिला मेरा हाथ पकड़कर ड्राइंग रूम से उस घर के बेसमेंट स्थित एक बड़े से कमरे में ले गयी, और मुझे रिलेक्स होकर बैठने की सलाह देकर खुद कहीं चली गई।

कमरा सामान्य ढंग से सजाया गया था। मैं दुल्हन के लिबास में सिमटी बेड के एक कोने पर बैठ गयी। रात करीब साढ़े बारह बजे मैं यह देख हतप्रभ रह गई कि उस कमरे में नशे में धुत हुआ मनोज का बाप घुस आया था। मै कुछ समझ पाती इससे पहले ही उसने अन्दर से दरवाजा बंद कर लिया। उसके हाथ में कुछ चाबियों के गुच्छे थे, उसमे से एक चाबी का गुच्छा उसने सामने पडी मेज पर रख दिया, वह कार की चाबिया थी। मैं बेड से उतर फर्श पर खडी हो गई। मै मनोज-मनोज चिल्लाना चाह रही थी, मगर डर के मारे मेरे मुह से शब्द ही नहीं निकल रहे थे। उसने लडखडाते हुए मुझे शांत रहने को कहा और हाथ में पकडे दूसरे चाबी के गुच्छे से सामने दीवार पर लगी लकड़ी की आलमारी खोलने लगा। बड़ी मुश्किल से वह  आलमारी खोल पाया और फिर आलमारी से ढेर सारे नोटों के बण्डल और गहने निकाल-निकालकर सामने पडी टेबल पर डालने लगा। फिर उसने आलमारी से एक शराब की बोतल और दो गिलास भी निकाले।

मै दरवाजे की तरफ भागी, मगर दरवाजे पर उसने ताली से अन्दर से लॉक लगा दिया था। वह उसी अवस्था में हँसते हुए मेरी तरफ  बढ़ा और मुझे बेड की तरफ खींच कर ले गया। मुझे बेड पर बैठने का इशारा करते हुए उसने उन नोटों के बंडलों की तरफ इशारा करते हुए अपनी अमीरी की डींगे हांकी और मुझे तरह-तरह के सब्ज-बाग़ दिखाए। फिर उसने जो खुद की कहानी सुनाई तो उसे सुनकर मैं दंग रह गई। उसने बताया कि न तो मनोज गुप्ता उसका बेटा ही था, और न शादी में आये मेहमान उसके कोई रिश्तेदार। सब किराए पर लिए गए आवारागर्द, चोर-मवाली थे। वह एक विधुर था और उसके एक बेटी भी थी, जिसकी शादी हो रखी थी। हवस के भूखे उस दरिन्दे इंसान को एक जवां बीवी चाहिए थी, और पैंसे के बल पर उसने मुझे पाने का वह सारा नाटक रचा था।

सारी परिस्थिति को समझने और उसकी नशे की स्थित को भांपने के बाद मैंने भी मन ही मन तुरंत एक फैसला कर लिया था, और दिमाग से काम लेने की ठान ली थी। वह लडखडाता हुआ ज्यों ही बेड पर बैठा, मैंने लपककर सामने रखी शराब की बोतल उठाई और एक बड़ा सा पैग बनाकर उसकी तरफ बढ़ा दिया। मेरे इस बदलाव पर वह खुश था। उसने मुझे भी शराब पीने को कहा, लेकिन मैंने ना में सिर्फ सिर हिलाया। एक-एककर वह तीन बड़े पैग पी गया और वहीं बेड पर एक तरफ को लुडक गया। मैंने हौले से वह शराब की बोतल उसके सिर पर दे मारी। यह सुनिश्चित करने के बाद कि वह पूर्ण अचेतन अवस्था में जा चुका है, मैंने सामने पडी चाबियों का गुच्छा उठाया और दरवाजे को खोलने की कोशिश करने लगी। शीघ्र ही दरवाजे की चाबी गुच्छे में से मुझे मिल गई। मैंने धीरे से दरवाजा खोला और बाहर बेसमेंट के हॉल का जायजा लिया, कही कोई आहट नहीं थी। मै फिर ऊपर सीढिया चढ़कर मुख्य दरवाजे तक पहुँची, दरवाजे पर भी अन्दर से लॉक लगा था, मैंने पास की खिड़की के शीशे से बाहर का जायजा लिया, बाहर गेट पर एक एम्बेसडर कार खडी थी। मै तुरंत ही फिर से बेसमेंट में गई और कमरे और आलमारी में रखे खजाने को वही रखे एक वैग में जल्दी-जल्दी समेट लिया और सामने टेबल पर पडी कार की और अन्य चाबियों का गुच्छा उठाकर गेट की तरफ लपकी।

दुर्भाग्यशाली पलों में मेरा यह तनिक सौभाग्य ही कहा जायेगा कि न सिर्फ़ मैं उस नरक से छूट्कर बाहर आ गई थी, अपितु कार की चाबियां भी मेरे पास मौजूद थी। मैंने तुरंत बैग को कार की पिछली सीट पर रखा और जल्दी से कार स्टार्ट कर उसे दिल्ली की सुनसान सड़कों पर दौडाने लगी। पिता का सिखाया ड्राविंग हुनर आज बहुत काम आ रहा था। करीब एक घंटे बाद मैं मोदीनगर के समीप थी, मगर मैंने घर न जाने का फैसला कर लिया था। मैंने कार हाइवे पर मेरठ की तरफ बढ़ा दी। और तडके ही विजय, यानि तुम्हारे पिता के मेरठ स्थित निवास पर पहुँच गई। यह भी बता दूं कि विजय मोदीनगर में हमारे पड़ोसी थे, और मुझसे शादी करना चाहते थे। वे अनाथ थे और अपने ननिहाल में पले-बढे थे। मगर उनके मामा इस रिश्ते के खिलाफ थे, अत: उन्होंने उनकी शादी दूसरी जगह कर दी थी।  लेकिन दूसरे प्रसव पर उनकी पत्नी चल बसी। तेरी बड़ी बहन संध्या मेरी अपनी कोख से नहीं जन्मी बल्कि  वह उसी माँ की प्रथम संतान है।

वहाँ पहुँचकर मैंने सारी वस्तुस्थित विजय को बतायी और इस शर्त पर उनसे शादी करने को राजी हुई कि हम इस शहर को छोड़कर तुरंत कही दूर किसी दूसरी जगह चले जायेंगे। विजय विधुर थे, और उनके समक्ष नन्ही संध्या का भी सवाल था, अत: वे मेरी हर शर्त को मानने के लिए तैयार थे। और तब हमने तुरंत ही मेरठ से सिफ्ट होकर नैनीताल से बारह किलोमीटर दूर किल्बुरी के समीप बसने का फैसला किया। दिल्ली से उठाकर लाई गई धन-दौलत हमारे खूब काम आई और तुम्हारे पिता पर्वतीय क्षेत्रों में एक होटल चेन खोलने में भी सक्षम रहे थे। और उनकी मौत के बाद अपने परिवार के लालन-पालन और तुम दोनो भाई-बहनो की शादि-ब्याह मे भी मुझे उस धन की बदौलत कोई दिक्कत नही हुई।

लेकिन मेरी किस्मत यंही तक मुझसे इंतकाम लेने से संतुष्ट नहीं थी। इस ऊँचे-नीचे जीवन सफ़र में चलते-चलते मैं उस मनोज गुप्ता की शक्ल-सूरत भी भूल गई थी, जिसने कभी मेरी जिन्दगी के साथ ऐसा खिलवाड़ किया था। किन्तु, फिर जिन्दगी ने एक और करवट ली और तुम अपनी जवानी में जिस लडकी के प्यार में फंसे, और जिसे तुमने अपनी जीवन संगनी बनाया, वह जब दुल्हन बनके हमारे घर आई तो अतीत का वह दैत्य भी पीछे-पीछे हमारे घर चला आया। तुम लोग हनीमून के लिए गए थे और मैं घर पर अकेली थी। वह दैत्य, जो अपने कुकृत्यों के बल पर अब एक विधायक था, न सिर्फ मेरे साथ लिए गए सात फेरों की दुहाई देकर उम्र के इस मोड़ पर भी मेरा जिस्म पाने की फिराक में था, अपितु अपनी विधायकी की धौंस देकर मुझे ब्लेकमेल भी करना चाहता था। मैंने उसी वक्त गंडासे से उसका क़त्ल कर डाला और यह सोचकर कि अगर मैंने खुद अपना जुर्म नहीं कबूला तो पोलिस तुम लोगो को परेशान करेगी, सीधे थाने जाकर आत्मसमर्पण कर दिया।

जो बात मैं तुम्हे आज बता रही हूँ, वह तब भी तुम्हे बता सकती थी। लेकिन इस डर से कि कहीं तुम इसका दोष स्वाति पर मढने लगो, मैं खामोश रही और सच कहूँ तो जो कदम अब उठा रही हूँ , इसी वजह से तब नहीं उठाया था। अब मैं सुनिश्चित हूँ कि तुम ऐसी कोई नादानी नहीं करोगे जिससे तुम्हारे और स्वाति के रिश्तों में कोई दरार आये। क्योंकि स्वाति भी एक समझदार लडकी है, और तुम्हारा पूरा ख्याल रखती होगी ऐसी मुझे उम्मीद है। यहाँ जेल में सभी लोग बहुत अच्छे ढंग से मेरे साथ पेश आते थे, और यहाँ तक कि तुम लोगो की कुशल-क्षेम भी मुझ तक पहुंचाते थे। मुझे मेरा दादी बनने की शुभसूचना  भी इन्ही लोगो ने मुझे दी थी। तुम्हे एक बार फिर से यह वचन देना होगा कि तुम उस मनोज गुप्ता के कुकृत्यों का कोई भी दोष उसकी बेटी को नहीं दोगे। मैं तुम्हारे सुखी-संपन्न पारिवारिक जीवन की एक बार फिर से कामना करती हूँ ! मेरे पोते को मेरा ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद देना।


तुम्हारी अभागन माँ ,
शारदा
स्थान और पात्र काल्पनिक !

Monday, February 14, 2011

पीच्ची !

माय डियर पीच्ची ;

पहचान गई न ? तुम्हे मुझसे अक्सर यह शिकायत रहती थी कि मैं क्यों जानबूझकर तुम्हारे नाम को गलत उच्चारित करता हूँ। और देखो, आज भी वही गुस्ताखी फिर से दुहरा दी है मैंने, हा-हा॥ किन्तु तुम्हारे इस गिले-शिकवे को कि "तुम ये क्या पिच्ची-सिच्ची करते रहते हो, मुझे मेरे सही नाम से क्यों नहीं पुकारते ", मैं अब और पेंडिंग नहीं रखना चाहूँगा, क्या पता फिर कभी मुझे तुम्हे एक्सप्लेन करने का मौक़ा मिले, न मिले।

हे ! किन्तु प्रोमिस करो कि तुम इसका मीनिंग जानकार मुझे मन ही मन बुरा-भला नहीं कहोगी। पीच्ची शब्द हमारे आंध्रा में तेलगु भाषा में किसी को पागल कहने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। तुम्हारी कॉलेज के दिनों की हरकतों को देखकर ही मैं तुम्हे इस तरह से सम्बोद्धित करता था। उस वक्त तो इसे सुनकर तुम बुरा मानती थी, लेकिन आई एम् स्योर, इस वक्त पीच्ची का यह ख़ूबसूरत सा अर्थ जानकार तुम्हारे उस शोभायमान चेहरे पर जरूर अब तक एक लम्बी-चौड़ी मुस्कान दौड़ गई होगी।

अब तुम्हे यह भी आश्चर्य अवश्य ही हो रहा होगा कि मुझे तुम्हारा इ-मेल पता मिला कहाँ से ? जैसा कि मैंने पहले कहा, आज मैं तुम्हे किसी भी असमंजस में नहीं रखूंगा। तुम्हें शायद याद होगा वो अपना कॉलेज के दिनों में हमें अक्सर कैंटीन में मिलने वाला अपना वह दोस्त, महेश, जो अक्सर ही मुझे 'कमीना' कहकर संबोधित करता था। बस, आज वही एक कॉलेज के दिनों का अपना मित्र है, जिससे मेरा यदा-कदा संपर्क रहता है। आजकल इंदौर में किसी कम्पनी में पर्सनल मैनेजर है. उसी ने तुम्हारा यह ई-मेल ऐड्रस मुझे दिया. अब तुम यह भी जानना चाहोगी कि उसे कहाँ से यह एड्रेस मिला ? तो यह भी एक दिलचस्प कहानी है। जैसा कि मैंने कहा, वह एक कम्पनी में पर्सनल मैनेजर है, अभी कुछ दिनों पहले उसने अपनी कंपनी के लिए रिजूमे सर्च करने हेतु एक ऑनलाइन रेजुमे डैटा बैंक पोर्टल हायर किया था, और पोर्टल पर सर्च के दौरान ही उसे अभी हाल का तुम्हारा अपना पोस्ट किया हुआ बायो-डाटा मिला. बस, वहीं से उसने तुम्हारा ई-मेल ऐड्रस लिया और मुझे मेल कर दिया।

अपने दिल पर ढेर सारा बोझ लाधे लम्बे वक्त से एक अजीब सी कशमकश में जी रहा था, सोचा, तुम्हारे साथ शेयर करके क्या पता इसे कुछ हल्का कर सकूं। पहले तो यह संकोच हुआ कि अगर तुम शादीशुदा हुई तो खुदानाखास्ता यह मेल अगर तुम्हारे पति या इन्लौज में से किसी ने पढ़ लिया तो वह कुछ गलत ना समझ बैठे, और तुम्हे कोई दिक्कत पेश न आये। लेकिन जब महेश से फोन पर बात हुई और उसने कहा कि अभी दो महीने पुराने तुम्हारे बायोडाटा में उसने तुम्हारा पैतृक सरनेम ही तुम्हारे नाम के आगे देखा है, तो मै यह ऐजूम कर बैठा कि तुम अभी अनमैरीड ही हो, तुम्हे यह मेल करने की लिबर्टी ले रहा हूँ।

जैसा कि तुम्हे मालूम है कि मेरे ग्रेजुएशन करते ही मेरे दबंग डैड अपनी सेन्ट्रल सेकेट्रीएट की नौकरी से रिटायर हो चुके थे। आजीवन दिल्ली में ठहरने का उनका कभी भी मन नहीं रहा। तुम यह भी बहुत बेहतर ढंग से जानती हो कि चूँकि मेरी माँ पुराने ख्यालात की एक आज्ञाकारी पतिव्रता नारी थी, इसलिए घर के अन्दर दो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की भिन्न धूरियाँ होते हुए भी उसने कभी अपने पति की मर्जी के विरुद्ध कोई ऐतराज नहीं जताया. सब कुछ बस खामोश रहकर ही बर्दाश्त किया। माँ के संस्कारों के आगे, इस तड़क-भड़क की कलयुगी दुनिया में हम दोनों भाई-बहन भी कब आज्ञाकारी सतयुगी औलाद बन गए, हमें भी नहीं मालूम। अत: उनके रिटायर होते ही उनकी मर्जीनुसार हम लोग अपने नेटिव-प्लेस आंध्रा में सिफ्ट हो गए थे।

तुम्हे यह भी शिकायत होगी कि मैंने तुमसे उसके बाद फिर कभी संपर्क साधने की चेष्ठा क्यों नहीं की, तो उसका भी जबाब मैं दूंगा। वहाँ से स्थानांतरित होने के पश्चात एक साल बाद ही पापा मेरे लिए एक रिश्ता ढूंढ लाये। लडकी का बाप स्थानीय बिक्रीकर विभाग में कोई बड़ा अधिकारी था। और शायद मेरे लालची डैड को लडकी में मौजूद गुण-दोष कम और लडकी के बाप का यह गुण ज्यादा आकर्षित कर रहा था कि वह सेल्स-टैक्स विभाग में कार्यरत थे। मुझे बिना लडकी से मिलाये ही उन्होंने रिश्ता पक्का कर लिया और मंगनी भी हो गई। मैं उसवक्त एक कंप्यूटर कोर्स बंजारा हिल्स, हैदराबाद से कर रहा था. मेरे डैड इस बात से बहुत खुश थे कि उनके नालायक बेटे की कीमत उस वक्त नौ लाख आंकी गई थी।

लेकिन फिर करीब चार महीने बाद पता नहीं क्या हुआ कि मेरे और लडकी के पिता ने यह रिश्ता तोड़ने की घोषणा कर दी। हमारे यहाँ ऐसी प्रथा है कि यदि रिश्ता टूट जाए तो सगाई के दरमियां लडकी के परिवार द्वारा दी गई तय शुदा दहेज़ की राशि की अग्रिम किस्त, पंचायत बुलाकर लड़के के परिवार द्वारा आवश्यक खर्चे, जो इस बीच लड़के वालों ने किये हो, उस अग्रिम दहेज़ की किस्त में से काटकर बाकी रकम लडकी वालों को लौटा दी जाती है।

यह भी बता दूं कि सगाई के कुछ समय बाद लडकी और उसका परिवार मुझसे मिलने हैदराबाद आया था, और उसी दौरान मैंने अपनी माँ के कहने पर एक बड़े स्टोर से लडकी को एक कीमती पर्ल-सेट अपने क्रेडिट कार्ड से खरीदकर गिफ्ट किया था। कुछ दिन बाद जब मै छुट्टी पर घर गया तो मेरे डैड ने उस लेनदेन के बिल वगैरह अपने पास रख लिए थे। महेश तो मुझे पहले से ही कमीना कहता रहता था, किन्तु यह जानकार तुम हंसोगी कि मेरा बापू कमीनेपन में मेरा भी बाप निकला। क्योंकि बाद में मुझे मालूम पडा कि रिश्ता टूटने पर जब सगाई पर मिली दो लाख की रकम को पंचायत के समक्ष लौटाए जाने का हिसाब-किताब चल रहा था, तो मेरे डैड ने उस पर्ल-सेट की बिल राशि और क्रेडिट-कार्ड की पर्ची दोनों की रकम जोड़कर उतनी राशि दो लाख में से काट ली थी, जबकि होना यह चाहिये था कि बिल अथवा क्रेडिट पर्ची में से किसी एक को कंसीडर करते, और मैं नहीं समझता कि यह उन्होंने अनजाने में किया होगा।

खैर, बात आई-गई हो गई, लेकिन मेरे डैड के सिर पर हमेशा यह भूत सवार रहता था कि वे अपने लड़के की अच्छी कीमत कैसे वसूल पाए। दहेज़ की यह बीमारी यों तो हमारे पूरे ही देश को भ्रष्टाचार के दल-दल में डुबाये हुए है, मगर मैं समझता हूँ कि आंध्रा और बिहार दो ऐसे क्षेत्र है, जहां यह एक महामारी की तरह है। इस बीच हमारे ऊपर उस वक्त दुखों का पहाड़ ही टूट पडा जब मेरी बहन संध्या की मौत की खबर मुझे हैदराबाद में मिली। वह बीमार भी नहीं थी मगर, घर वालों को एक दिन सुबह अचानक अपने कमरे में मृत मिली। न जाने क्यों मुझे कभी-कभी संदेह होता है कि कही उसकी मौत की वजह भी मेरे लालची डैड का धन-माया से अगाध-प्रेम ही न रहा हो।

कुछ समय उपरान्त कंप्यूटर कोर्स पूरा कर मैं घर लौट गया. इसी दरमियां मेरे डैड को न मालूम किसने बताया कि एक अमेरिकी यूनिवर्सिटी भारतीय छात्रों को अमेरिका में पढने का अवसर दे रही है, बस तभी से उन्हें मुझे यूएस भेजने का भूत सवार हो गया। मुख्य मकसद यह नहीं था कि मैं वहाँ जाकर उच्च शिक्षा हासिल करूँ, बल्कि मुख्य-ध्येय यह था कि तत्पश्चात उन्हें अपने लड़के की अच्छी कीमत वसूलने के लिए पृष्ठभूमि बनाने में मदद मिले। दिल्ली में अपने पुराने संपर्कों के जरिये उन्होंने मुझे अमेरिका भेजने की सब कुछ तैयारियां पूरी कर ली थी।

और फिर एक दिन मैं अमेरिका के लिए रवाना हो गया। यहाँ आकर कुछ वक्त तो यहाँ की चकाचौंध में बहुत अच्छा गुजरा. मगर फिर शीघ्र ही ऊबने लगा। घर, देश और माँ की बहुत याद आती थी। मेरे दुखों का शायद यहीं छोर नहीं था, छह महीने बाद एक दिन डैड ने यह दुखद समाचार मुझे दिया कि मेरी माँ भी इस दुनिया से चल बसी। यहाँ, मुझे ढाढस बंधाने वाला भी अपना कोई नहीं था। चेल्ली(छोटी बहन संध्या ) की असामयिक मौत के बाद से ही वह बीमार रहने लगी थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं उससे विदा लेकर यहाँ के लिए चला था तो उसने डैड की वजह से खामोश रहकर अपनी पथराई सुर्ख आँखों से आसुओं का सैलाब बहाकर ही मुझे विदा किया था, मगर उसके झुर्रियां से लदे चेहरे की एक संतृप्त उदासी और सूखे अधरों पर जमी पपड़ी यह साफ़ बताती थी कि वह अन्दर ही अन्दर बहुत डरी हुई थी, क्योंकि उसके जिगर का टुकडा पहली बार उससे अलग होकर बहुत दूर एक अनजाने परदेश में अजनबियों के बीच जा रहा था।

अब मैं, पूरी तरह से टूट चुका था, जीने की कोई ख्वाइश भी अब दिल में नहीं रह गई थी। साथ ही मैं यह भी भली प्रकार से जानता था कि मेरे लोभी डैड ने माँ के देहांत की सूचना भी मुझे जानबूझकर इसलिए दो हफ्ते बाद दी, ताकि मैं कहीं तुरंत घर वापसी के लिए न चल पडू और आनेजाने में ही डेड-दो लाख और खर्च हो जायेंगे। कहानी अभी यहीं ख़त्म नहीं हुई थी, एकदिन अचानक अमेरिकी सुरक्षा अधिकारी हमारे कम्पाउंड में आ घुसे और हमें जानवरों की भांति रेडियो कॉलर पहनाने लगे। बाद में मालूम पडा कि जिस यूनिवर्सिटी के जरिये अध्ययन के लिए हम यहाँ तक पहुचे थे, वह फर्जी और गैरकानूनी थी।

नहीं मालूम कि तुम किस तरह मेरे इस मेल को लेती हो, लेकिन यही सब वजहें थी कि मैं अपने किसी पुराने मित्र के संपर्क में नहीं रह सका। अवसाद से पूर्णतया ग्रसित मेरा मन अब समझ नहीं पा रहा कि किस्मत के इस नए ड्रामे पर हँसे या फिर रोये। यह दिलो-दिमाग कभी-कभी तो अपने लिए ही बुरे-बुरे सपने देखने लगता है। अब वापस लौटने की भी तमन्ना नहीं रही दिल में। कभी अपने उस खूसट डैड पर भी हंसी आ जाती है, पता नहीं, ढेर सारे दहेज़ के क्या-क्या सपने देख रहे होंगे। सचमुच, बहुत अजीब किस्म के लोगो से भरी पडी है यह दुनिया, जो सिर्फ कुछ अतिरिक्त धन पाने के लिए अपना जीवन, अपनी पूरी फेमली ही दांव पर लगा देते है।

मैंने तो सिर्फ एक जीवन-संगनी की चाहत रखी थी ....जस्ट ओनली ब्राइड ( विदाउट ऐनी बॉयफ्रेंड ) :)

न तलाश-ए-मुकद्दर मैं निकला,तकदीर भी हरजाई थी,
वैभव-विलासिता की न कभी, मैंने कोई आश लगाई थी,
खोज-ए-मंजिल-ए-सफ़र में बस इतनी सी ख्वाइश थी
ऐ जिन्दगी, कि काश तू वैसी होती, जैंसी मैंने चाही थी !



हूहु..बेचारा लालची, पीच्ची बुढऊ........ !!

तुम्हारा....
उदय,

अबूझ पहेली !

दक्षिणी दिल्ली के महारानी बाग स्थित उसके उस किराये के फ्लैट का मुख्य दरवाजा आधा भिडा देख दिल को एक अजीब किस्म की तसल्ली सी हुई थी, और शकून भी मिला था कि चलो अपनी मेहनत,अपना खर्च किया पेट्रोल और शनिवार का अवकाश बेकार नही गया, वह अवश्य घर पर ही होगा। आज की इस ४५-४६ की उम्र तक पहुचते-पहुचते कुछ ही ऐसे गिने-चुने मित्र मेरे पास रह गये है, जिनसे मिलकर दिल की हर बात बताने मे कोई हिचक नही होती। वह भी मेरे न सिर्फ़ कालेज के दिनों का मित्र है, अपितु १९८५-८६ मे पोस्ट-ग्रेजुएशन के उपरान्त हम साथ ही दिल्ली आये थे, और लाजपत नगर रेलवे कालोनी मे कमरा लेकर शुरुआती सालों मे इकठ्ठे ही रहे।

सीधे ऊपर उसके कमरे की तरफ़ डग बढाने की बजाये मैं यह सोचकर वापस गाडी की तरफ़ मुडा कि ठीक से गाडी पार्क कर लूं, फिर उससे मिलने जाता हूं, ताकि यदि उसके साथ गपों मे ज्यादा देर हो भी जाये तो गली से गुजरते किसी बडे वाहन वाले को कोई दिक्कत न पेश आये। और आखिर आज हमारी मुलाकात भी तो करीब तीन महिने बाद होनी थी। अत: न सिर्फ़ ढेर सारी बातें थी, अपितु दिल मे गिले-शिकवे भी बहुत थे कि मैं पिछले करीब दो महिने से चिकनगुनिया से इस कदर पीडित रहा, मगर उसने एक बार भी मेरी कुशल-क्षेम पूछना तक तो दूर, एक फोन तक करना मुनासिब नही समझा। दिल मे जहां इस बात से उसके प्रति गुस्सा भरा पडा था, वहीं किसी कोने मे एक फिक्र भी थी कि आखिर इतने दिनों से उसका फोन भी तो नही मिल रहा, जब कभी उसका फोन बजता भी है तो वह उठाता क्यों नही? न्यू-इयर ईव पर ही उसका सर्व-प्रथम निमंत्रण आ जाता था कि आज की शाम मेरे नाम, मगर इस बार नये साल पर भी जब उसका वधाई संदेश नही आया, तो शनिवार दोपहर बाद मुझसे न रहा गया, और मैने सीधे उसके घर का रुख कर लिया।

गाडी ठीक से गली के एक कोने पर लगाने के बाद मैं उसके फ़्लैट की तरफ़ बढ चला। मकान के प्रथम-तल की सीढिया चढ्ने के बाद अध्-भिडे दरवाजे को बिना खट्खटाये खोलते हुए ज्यों ही मैने कमरे के आगे की छोटी सी लौबीनुमा जगह पर पर कदम रखा, मेरी नजर अन्दर कमरे के दरवाजे के ठीक सामने दीवार से सटे उसके दीवाननुमा बेड पर गई। वह रजाई के अन्दर दुबका बैठा लैपटौप पर व्यस्त था, बेड के दूसरे छोर पर उसकी पत्नी उमा रजाई के दूसरे सिरे को अपने पैरों मे ओढे बैठी कुछ बुनाई का काम कर रही थी। मैं अभी सोच ही रहा था कि मैं उसपर अपना गुस्सा उतारने के लिये क्या गाली इस्तेमाल करुं क्योंकि उमा भाभी भी सामने बैठी थी, कि तभी अपने चश्मे के पार से मेरी तरफ़ कातिलाना नजर डालते हुए वह बड्बडाया, " स्स्साले, कमीने, मिल गई तेरे को फुर्सत". उसका यह व्यंग्य-बाण शायद मैं झेल न पाता अगर उमा भाभी सामने न होती। खैर, अपने को काबू करते हुए मै भी व्यंग्यात्मक तौर पर बोला; तू तो स्सा ....मेरी खोस-खबर पूछते-पूछते थक गया...... । शायद अब तक उसकी नजर मेरे लचकते कदमों की तरफ़ भी जा चुकी थी, अत: अपने चेहरे को सहज करते हुए उसने पूछा, क्यों ये क्या हुआ तेरे को ? मैने भी प्रति-सवाल करते हुए पूछा और तुझे क्या हुआ जो रजाई मे दुबका इतना सड रहा है ?

कुछ क्षण बाद जब स्थिति थोडी सहज हुई तो वह अपने लैपटोप को बेड के पास पडे एक टेबल पर रख खांसते हुए बेड से उतरने को हुआ। मैने सामने पडी कुर्सी उसके बेड की तरफ़ खिसकाते हुए कहा, बैठा रह, कहां उतर रहा है? कुर्सी इधर खींच..... वह बोला। मैने कहा, रहने दे ज्यादा फ़ोर्मल्टी निभाने की जरुरत नही है, मै खुद ही खिसका लूंगा। इस बीच उमा भाभी भी किचन से पानी का गिलास ले आई थी, ट्रे से पानी का गिलास पकडते हुए मैने पूछा, भाभी जी, आप कब आई गांव से ? बच्चे लोग कहां है? मैं उमा भाभी से अभी यह सवाल कर ही रहा था कि वह बेड पर सहजता से बैठ्ते हुए और तकिया अपनी गोदी मे रख उस पर अपनी दोनो हाथो की कोहनिय़ां टिकाते हुए मुरझाये चेहरे पर थोडी मुस्कुराहट बिखेरते हुए मेरी बात काटता हुआ बोला, अच्छा पहले तू सुना, क्या हालचाल हैं तेरे।

उमा भाभी किचन मे चाय बनाने चली गई,थोडी देर तक मैने उसे अपने गुजरे बुरे वक्त की दास्तां विस्तार से सुनाई कि कैसे मैंने चिकनगुनिया की मार झेलते हुए कुछ दिन नर्सिंग होम मे भर्ती रहकर बिताये, घरवाले किस हद तक परेशान रहे, इत्यादि...इत्यादि...! उसने एक लम्बी सांस छोडते हुए मेरी तरफ़ देख कर कहा " सॉरी यार, तेरे साथ इतना कुछ हुआ और मैं खामखा तुझ पर लाल पीला हो रहा था। लेकिन क्या करु मैं भी बडी अजीबोगरीब स्थिति से गुजर रहा हूं आजकल, तू सुनेगा तो..... । तेरे साथ कम से कम तेरे अपने तो है सुख-दुख मे, मैं तो यहां अकेला.... जब बहुत परेशान हो गया तो अभी दस दिन पहले घर से उमा को बुलाना पडा। कभी सोचता हूं कि बच्चों के पास नेटिवप्लेस चला जाऊं, लेकिन फिर सोचता हूं कि ज्यादा दिन वहां ठहरा तो बूढ़े मा-बाप भी टेंशन करेगे, इसी दुविधा मे लट्का पडा हूं।" मैने कुर्सी उसके थोडे और समीप खींचते हुए उससे पूछा, मुझे बता क्या प्रोब्लम है तेरे साथ, मैं हू न । तू भले ही जरूरी ना समझता हो अपना दुख-दर्द मुझे बताना, मगर मै तो जब तेरा फोन नही आया तो सीधे इधर…..। अबे यार, क्या बताऊ, तंग आकर मैने फोन का सिमकार्ड भी अपने पर्स मे रख डाला है। और फिर जो आप बीती उसने सुनाई, उसे सुनने के बाद पहले तो मैं हंसा, मगर फिर विषय की गम्भीरता को देखते हुए सोचने पर मजबूर हो गया।

गोद मे रखी तकिया पर दाहिने हाथ से दो-तीन घूसे मारते हुए उसने बोलना शुरु किया, तू तो मेरे दफ़्तर मे मुझसे मिलने एक बार पहले का आ ही रखा है। और तुझे यह भी मालूम ही है कि प्रथम माले पर स्थित हमारे दफ़्तर की बनावट कैसी है। मैं कम्पनी का वित्त-अधिकारी होने के साथ-साथ प्रशासनिक अधिकारी भी हूं, अत: दफ़्तर मे शुरु से यह परम्परा सी बनी हुई है कि शाम को ६ बजे दफ़्तर की छुट्टी होने पर मेरे अधीनस्थ दफ़्तर के सभी लोग अक्सर मेरे केविन तक आकर "बाय सर,गुड नाईट, मै निकल रहा/रही हूं" कहकर जाते है, और उन्हे यह भी मालूम है कि मैं तो अमूमन हर रोज सात बजे तक ऑफिस मे ही बैठता हूं। रेखा पिछले तकरीबन चार सालों से हमारे यहां प्रोजक्ट-कोऑर्डिनेटर के पद पर कार्यरत थी। सुंदर, हंसमुख और खुश मिजाज। चुंकि उसकी चार्टड-बस ६ बजे से कुछ पहले ही स्टॉप पर आ जाती थी, अत: वह दफ़्तर से अक्सर पांच बजकर पैंतालिस मिनट पर निकल जाया करती थी। जाते वक्त वह भी मेरे उस आधे ढके केविन के बाहर से गर्दन लम्बी कर अन्दर केविन मे झांकते हुए ’बाय सर’ बोलकर निकलती थी। उसे यह मालूम नही था कि मै यहां पर बिना परिवार के अकेला रहता हूं, इसलिये सर्दियों के मौसम के दर्मियां शाम को दफ़्तर से निकलते वक्त "बाय सर" बोलने के उपरांत वह कभी-कभार मजाक मे यह डायलोग मारने से भी नही चूकती थी कि "सर, आप भी जल्दी निकलिये, घर पर भाभी जी वेट कर रही है, मुझे अभी-अभी फोन कर बता रही थी कि आज गाजर का हलवा बना रखा है उन्होने"।

करीब एक साल पहले उसकी शादी गुडगांव मे रहने वाले किसी इंजीनियर के साथ हुई थी। मूलरूप से उसकी ससुराल कहीं जींद के आस-पास, हरियाणा मे थी। हालांकि शादी के बाद भी उसने नौकरी जारी रखी थी, मगर उसके चेहरे की खामोशी से साफ़ जाहिर होता था कि वह इस शादी से बहुत खुश नही थी। धीरे-धीरे दफ़्तर से उसकी अनुपस्थिति भी बढ्ती गई, और फिर एक दिन उसने नौकरी से इस्तीफा भी दे दिया। कुछ समय बाद फिर एक दिन यह अपुष्ट बुरी खबर आई कि वह जींद अपनी ससुराल गई हुई थी और वहीं उसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। इस घटना को हुए अब करीब पांच महिने बीत चुके है। पूरे दफ़्तर को इस खबर पर बडा अफ़सोस हुआ था।



प्रशासनिक अधिकारी होने के नाते मै और मेरे ओफ़िस का सफ़ाई कर्मचारी, हम दो ही ऐसे शख्स है जो प्रात: सबसे पहले दफ़्तर पहुंचते है। चुंकि वह दफ़्तर के पास की ही बस्ती मे रहता है, इसलिये वह पहले ही गेट पर खडा मेरा इंतजार कर रहा होता है। दफ़्तर की चाबी का एक सेट चपरासी के अलावा मेरे पास होता है जिसे मैं उस सफ़ाई कर्मचारी को सौंप देता हूं, ताकि वह दफ़्तर के ताले खोल सके। शनिवार के दिन अक्सर दिल्ली की सडकों पर अन्य दिनों की अपेक्षा कम वाहन होने की वजह से मैं अपने दफ़्तर थोडा जल्दी पहुच जाता हूं,, अगर तबतक सफ़ाई कर्मचारी न पहुंचा हो तो कभी-कभार दफ़्तर के ताले मुझे खुद ही खोलने पडते है।

ऐसे ही करीब डेड-पौने दो महिने पहले एक शनिवार को जल्दी पहुंच जाने की वजह से मैने दफ़्तर का मुख्य द्वार खोला और रिसेप्शन की मेज पर अपना सामान रख आदतन रिसेपशन मे रखे इक्वेरियम मे मछलियों को चारा दिया। कुछ देर तक खामोश रहने के बाद थोडा उचकते हुए वह फिर बोला, तुझे याद है, जब तू मेरे दफ़्तर आया था तो तूने नोट किया होगा कि रिशेप्सन के ठीक बाद हमने अपने दफ़्तर को कांच के फ्रेम से कवर किया हुआ है, और उसपर भी एक कांच का दरवाजा है जिसे भी शाम को चपरासी ताला लगाकर जाता है। अन्दर आधे कवर किये हुए सभी केविनों मे सीटिंग अरेंजमेट इस तरह का है कि बाहर रिशेप्सन से अंदर झांकने पर अन्दर बैठे कर्मचारियो की पीठ दिखती है, यानि उनके सामने के मेज पर रखे कंप्यूटर के मौनिटर का सामने का हिस्सा रिशेप्सन की तरफ़।

फिर मेज पर रखे चाबियों के गुच्छे को उठाकर कुछ बेखबर सा मैं उस कांच के दरवाजे को खोलने के लिये हाथ से ज्यों ही चाबी को लिए आगे बढ़ा, क्या देखता था कि रेखा पहले से अन्दर मौजूद अपनी सीट पर कंप्यूटर स्क्रीन पर नजरें गडाये बैठी है। यह देख मेरे बदन मे एक हल्की सी सिहरन दौड गई। मैने खुद को कोई गलतफहमी होने के अन्देशे से चाबियों का गुच्छा बाये हाथ मे पकडते हुए दाहिने हाथ से अपनी दोनो आंखे मली और फिर से अन्दर झांका। सीट पर कोई नही था, हां कंप्यूटर स्क्रीन बदस्तूर सक्रीय थी। दरवाजा खोलने अथवा न खोलने की दिमागी कशमकश मे फंसा मै वहां खडा ध्यानमग्न था कि पीछे से मुख्य दरवाजे पर चरमराहट हुई। बदन पर हल्की सिहरन लिये मैं तेजी से उस ओर मुडा,यह देख तसल्ली हुई कि वह अपना सफ़ाई कर्मचारी था। उसके आ जाने के बाद मुझमे हिम्मत सी लौट आई थी, मैने दरवाजा खोलने के लिये की होल मे चाबी डाली तो वह झट से बोला, लाईये सहाब, आज मुझे थोडी देर हो गई, मै खोले देता हूं। मैने चाबी उसको पकडा दी, जैसे ही उसने दरवाजा खोला, मै सीधे रेखा वाली सीट की तरफ़ लपका। एक अच्छे जांचकर्ता की भांति मैने उसके केविन का मुआयना लिया। सिवाय कंप्यूटर के वहां कुछ भी असहज नही था।

थोडी देर तक सोचने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वह सिर्फ़ मेरी आंखों का भ्रम रहा होगा और रेखा की जगह पर नये आये कर्मचारी ने पिछली शाम को कंप्यूटर बन्द नही किया होगा और आफ़िस के मेन गेट को खोलते वक्त जमीनी कम्पन की वजह से कम्प्युटर स्क्रीन सक्रीय हो गई होगी। अपने ही दिमाग से उपजे इस तर्क मे दम होने की वजह से बात आई गई, मैने उसका जिक्र भी किसी से नही किया। हमारे यहां शनिवार को सिर्फ़ आधे दिन ही आफ़िस खुलता है, यानि दोपहर दो बजे बाद छुट्टी। आज से ठीक दो शनिवार पहले दो बजे के आस-पास लगभग पूरा दफ़्तर खाली हो गया था, दफ़्तर मे सिर्फ़ मैं था और हमारे औफ़िस का चौकीदार था। शाम को करीब पांच बजे मै अपनी सीट पर बैठा इंटरनेट पर एक खबरिया वेबसाइट पर एक ताजा खबर पढने मे व्यस्थ था कि तभी उसी अपने पुराने अंदाज मे रेखा ने मुस्कुराते हुए केबिन के बाहर से अन्दर झांका और मेरी तरफ़ देखती हुई वही “बाय सर, मै जा रही हूं” बोली तो मैने भी फिर से नजर कम्प्युटर स्क्रीन पर उस खबर पर गडाते हुए उसे ’बाय’ कहा।

मगर तुरन्त ही मेरा माथा ठनका और मैने जोर से अपने सिर को झटका दिया। यह सोच मेरे रौंगटे खडे हो गये कि यह तो रेखा ही थी। मैं तुरन्त अपनी सीट से उठकर रिशेप्सन की तरफ़ लपका। दफ़्तर का चपरासी मोहन रिशेपसन मे बैठा फोन पर किसी से बातें करने मे मसगूल था। मुझे बदहवास अवस्था मे देख वह भी फोन रखते हुए तुरन्त खडा हो गया, मुझसे पूछने लगा, क्या हुआ सहाब ? मैने कहा, तुमने अभी किसी को यहां से बाहर जाते देखा ? वह बोला, कैसी बात करते हो सहाब, मै तो यहां पर पिछले डेड घंटे से बैठा हुआ हूं, न तो कोई अन्दर आया और न कोई बाहर गया। उसकी बात सुन मैं वापस मुडा और मैने रिशेप्सन और मेन आफ़िस के बीच स्थित उस कांच के दरवाजे को अंदर को ठेला तो नजर सीधी रेखा वाली सीट की तरफ़ गई। यह देख फिर से मेरे रौंगटे खडे हो गये कि उसका कम्प्युटर चल रहा था और कम्प्युटर की स्क्रीन ऐक्टिव मोड मे थी। मैने अपने को सम्भालते हुए मोहन को दफ़्तर बन्द करने को कहा और तुरन्त अपना कम्प्युटर बंद करके बैग उठाकर बाहर निकल आया।

पूरे रास्ते मैं उसी बारे मे सोचता रहा, मैने तुझे भी फोन लगाया मगर तेरा फोन बार-बार इंगेज आ रहा था। घर पहुंच कर रात को मैने ठीक से खाया भी नही, एक भय सा मेरे अन्दर बैठ गया था, घर मे दो पैग के करीब बोतल पर पडा था, मैने एक ही बारी मे पूरा गटक लिया। जिससे दिन भर की मानसिक थकावट के चलते मुझे झपकी आने लगी और मैं जल्दी ही लाईट जलती छोडकर सिर तक रजाई ओढकर सो गया। रात करीब ग्यारह-सवा ग्यारह बजे मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे सामने खिडकी पर कोई है, मैं उठकर देखना चाहता था मगर मै उठ न सका, ऐसा लग रहा था जैसे कोई मुझे दबाये हुए है। मैने हिम्मत जुटाते हुए एक जोर का पलटा मारा और चीखता हुआ सा फर्श पर सीधा खडा हो गया। मैने तुरन्त अपने पुराने औफ़िस के एक दोस्त रमेश को फोन लगाया जो पास ही गढ़ी मे रहता है, उससे बातचीत के बाद उसी वक्त मै यहां ताला लगाकर उसके घर चला गया, और वापस तभी यहां लौटा जब गांव से उमा मेरे छोटे भाई के साथ यहां आ गई। अपनी बातों को उपसहार देते हुए वह एक लम्बी सांस छोड़कर बोला; यार, तू मेरा यकीन नही करेगा मगर मैं सचमुच बहुत डर गया हूं, मैने कभी सपने मे भी नही सोचा था कि मेरे साथ ऐसी स्थिति भी आ सकती है। मैने तबसे दफ़्तर जाना भी छोड दिया है, दफ़्तरवालों के बार-बार फोन आ रहे थे, इसलिये मैने अपने फोन का सिमकार्ड भी निकाल कर पर्स पर रख दिया है। अभी कल सुबह तो उमा को छोड्ने गांव जा रहा हूं क्योकि दोनो बच्चों के छमाही इम्तहान शुरु होने वाले है, मगर उसके बाद कैसे चलेगा समझ नही पा रहा।

घर लौटते हुए वापसी मे मुझे इस बात की संतुष्ठी थी कि मैने उसे इस बात के लिये मना लिया है कि जब वह उमा भाभी को गांव छोडकर वापस लौटेगा तो तब तक मेरे ही घर पर रहेगा, जब तक कि इस साल की बच्चों की परिक्षाये खत्म होने के बाद उसका परिवार गांव से उसके पास नही आ जाता। मगर इस मुलाकात के बाद से एक बात जो मुझे मेरे जहन मे बार-बार कुरेदे जा रही है, वह यह कि जो समस्या मेरे मित्र ने बताई, वह अगर कुछ सीमा तक भी यदि सच है तो क्या इस वैज्ञानिक युग के बावजूद भी इन प्राचीन बातों की प्रासांगिकता हमारे इस विकसित समाज मे अभी भी विद्यमान है ?