Wednesday, February 25, 2009

कितने संवेदनशील है हम अपनी रक्षा तैयारियों के प्रति ?

सेना के तीनो अंगो में अधिकारियो की अभूतपूर्व कमी: वो एक कहावत है कि 'जब जागे तभी सबेरा' ! रक्षा सम्बंधित सभी हल्कों में वर्षो से यह चर्चा और चिंता का विषय बना हुआ था कि देश में सेना के प्रति युवाओ में उत्साह निरंतर कम होता जा रहा है और जो अधिकारी सेना में हैं भी, वे समय से बहुत पहले ही स्वेच्छा से सेवानिवृत हो जा रहे है! और जिसका परिणाम है सेना में अधिकारियो की अभूतपूर्व कमी! और यह बात फिर से उजागर हुई, नई दिल्ली में जारी रक्षा सम्बन्धी संसदीय समिति की रिपोर्ट में : सेना में अधिकारियो की अभूतपूर्व कमी से परेशान एक संसदीय समिति ने रक्षा मंत्रालय से कहा है कि वह एक योजनाबद्ध ढंग से तुंरत कारवाही कर इस ओर ध्यान दे, और इससे सम्बंधित विसंगतियों और कमियों को तत्काल दूर करे ! इनके मुताविक जो प्रतिशत सेना में, नौसेना और वायुसेना में अधिकारियो की कमी का है वह है क्रमशः 23.8, 16.7 और 12.1 , सेना के तीनो अंगो के अधिकारियो की कुल पदों का २६% रिक्त पड़ा हुआ है! समिति का मानना है कि बढ़ती सुरक्षा चुनौतियों के साथ, हर मंत्रालय को रक्षा सेवाओं के समर्थन में अपना योगदान देना चाहिए!



इस अभूतपूर्व कमी के कई कारण और खामिया समिति ने गिनाई है जिनमे से कुछ है ; युवाओ द्वारा सैन्य कैरियर को कम प्राथमिकता, चयन सम्बन्धी प्रक्रिया का कठोर होना और चयन तथा पदोन्नति का निष्पक्ष और पारदर्शी न होना ! लेकिन इसके साथ ही मेरा मानना यह भी है कि देश और समाज में पनपती बहुत सी ऐंसी विसंगतिया भी इसका प्रमुख कारण है जो एक होनहार युवा शक्ति को सेना की ओर आकर्षित करने में अक्षम है! इन विसंगतियों के बारे में तीसरे अध्याय में चर्चा करूँगा, पहले आइये देखते है इसके दूसरे पहलु को ! मैंने कुछ समय पहले अपने ब्लॉग पर एक छोटे से लेख में "युद्ध, गलत फहमी में न रहे" शीर्षक के अंतर्गत सेना में आधुनिक हथियारों और उपकरणों की कमी के बारे में लिखा था, उसे पुनः मैं यहाँ जोड़ रहा हूँ ; २६/११ के बाद देश की जनता का पाकिस्तान को सबक सिखाने का उन्माद देखकर कई बार सोचने पर मजबूर हो जाना पड़ा कि हमारे लोग कितनी ग़लत फहमी में जी रहे है ! हालांकि मैं अपने देश को किसी भी मायने में पाकिस्तान से कम नही आंकना चाहता मगर यह भी एक कटु सत्य है, जैसा कि अभी कुछ दिन पहले रक्षा मंत्री ने ख़ुद ही स्वीकार किया कि हमारे सैन्य बल भारी मात्रा में सैन्य सामान की कमी से जूझ रहे है ! जो है भी वह भी भ्रष्ट राजनीती और नौकर शाही के चलते घटिया दर्जे का है ! अब सवाल उठता है कि ५ साल तक सत्ता में रहने के बाद हमारे ये लोकतंत्र के ठेकेदार इसकेलिए एक दूसरे पर दोष मढ़ रहे है, तो यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी किसकी थी ?



हम अपने रक्षा बजट में तो हरसाल बड़ी-बड़ी रकम सेना और सैनिक साजो सामान के लिए प्रावधान करते है लेकिन हकीकत में उसका कितना प्रतिशत उस कार्य में खर्ज कर पाते है, वह ज्यादा शोचनीय विषय है! यह कह देना कि युद्ध छेड़ दो, बहुत आसान है! लेकिन कभी यह सोचा कि इस युद्ध को लड़ने के लिए हमारे सैनिको के पास प्रयाप्त मात्र में उन्नत हथियार और साजो सामान मौजूद है भी या नहीं ! चंद मिशायिले बना लेने से हर युद्ध जीता नहीं जा सकता, अगर ऐसा होता तो दुनिया का सबसे शक्तिशाली कहलाने वाला देश इतने सालो से अफगानिस्तान में आज भी इस तरह झक क्यों मार रहा होता ? हम हिन्दुस्तानियों की यह मानसिकता सदियों से चली आ रही है, जिसमे हम मंच पर दूसरों को तो बड़े-बड़े उपदेश दे डालते है कि हर नौजवान को सेना में सेवा करनी चाहिए, मगर अपनी औलाद से यही उम्मीद करते है कि वह भी हमारी ही तरह बड़ी बड़ी बातें बोलकर लोगो को मुर्ख बनाने के लिए मंच पर भाषण दे अथवा आई.ए.एस में जाये, सेना में तो पडोसी के ही लड़के को भर्ती होना चाहिए !



अब जो तीसरा और एक प्रमुख विषय है, वह है सेना में कैरिएर के प्रति लोगो में बढती उदासीनता; अगर गंभीरता से हम इस पहलु का अध्ययन करे तो पाएंगे कि एक जागरूक माता-पिता और योग्य युवा के वे कुछ तर्क बहुत ही उचित तथा तर्कसंगत है जो यह सवाल खडा करते है कि हम अपने बेटे को फौज में क्यों भेजे? किसलिए जाए ? सबसे पहला कारण है, परिवारों का सिकुड़ना! सीमित परिवार निति और मंहगे होते बुनियादी साधनों की वजह से एक शिक्षित घर में ज्यादातर अब एक बेटा और एक बेटी ही होते है ! और इस एक बेटे और बेटी की परवरिश और शिक्षा में ही मातापिता अपने जीवन की पूरी कमाई लगा देते है और जब उन शिक्षित माँ-बाप को मालूम है कि जिस सेना में हम अपना बेटा भेजना चाहते है उसके पास दुश्मन से लड़ने के लिए कुशल और आधुनिक हथियारों की बहुत कमी है तो क्या वे ऐंसे हालात में अपने बेटे को वहाँ जाने देंगे?



दूसरा बड़ा जो कारण है वह है तेजी से बदलता समाज और सुख-भोग और मनोरंजन की महँगी वस्तुवो के प्रति बढ़ता लगाव और इन सभी के आधार पर समाज में व्यक्ति की पहचान का बदलता ढंग ! मैं किसी को कम नहीं आंकना चाहता मगर जिस व्यवसाय से आज मैं जुड़ा हूँ उसके तजुर्बे के आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप अगर कहो तो मैं सेक्डो की लाईन में ऐसे इंजीनियरों को पेश कर सकता हूँ जिन्हें ठीक से अंग्रेजी में एक अप्लिकेशन लिखनी नहीं आती और अगर इनकी सैलरी या उपरी कमाई का आंकलन करे तो पायेंगे कि उम्र के हिसाब से (२४ - ४० साल ) इनकी महीने की कमाई ४०००० रूपये से २ लाख रूपये औसतन है, जबकि आप किसी सैनिक अधिकारी को इनके समकक्ष खडा करे तो पावोगे कि योग्यता के आधार पर वह इनसे कहीं भी कम नहीं, इनसे बढ़ कर ही है मगर उसे वेतन क्या मिलता है ? साल के आखिर में जब छुट्टी आता है तो बस स्टेशन से कंधे में बक्सा लाद घर पहुँचता है क्योंकि जेब में टैक्सी के लिए पूरे रूपये नहीं होते!



१९११ से आज तक मेरी तीन पुश्ते भारतीय सेना को समर्पित है और मैंने बहुत करीब से एक सैनिक और उसके परिवार का दर्द देखा है, महसूस किया है! हम आराम परस्त लोग आज घर से ऑफिस और ऑफिस से घर के ५ किलोमीटर के रस्ते में ही थक जाते है! अगर कभी आपलोग माता के दर्शनार्थ जम्मू गए हो और वहाँ से वापस अपने गंतव्य तो रेल से लौट रहे हो तो शायद आपने देखा होगा कि जब जम्मू से ट्रेन चलती है और आप अपने आरक्षित डब्बे में बैठकर शान के साथ टॉयलेट जाते है तो टॉयलेट के बाहर गेट और टॉयलेट के बीच की गैलरी में एक-आधा फौजी, विस्तर्वंद खोलकर वहां फैलाकर सोये रहते है, दो पैग रम के लेने के बाद गहरी नीद में! आपने अपने आरक्षित केविन में एक सीट पर अपना दो साल का बेटा सुलाया रहता है और दूसरे पर दो महीने की बेटी, नहीं तो ब्रीफकेस ही रखा होता है, लेकिन हम इतना कष्ट नहीं उठाना चाहते कि उस दो महीने की बेटी को अपने ही वर्थ पर अपने साथ सुलाकर एक वर्थ उस फौजी को दे दे जो लदाख से दो दिन के सड़क का सफ़र पूरा कर जम्मू पहुंचा और वहाँ से अब उसे केरल या देश के अन्य भाग में स्थित अपने घर तक की यात्रा इसी तरह करनी है क्योंकि उनके लिए आरक्षी डब्बे में या तो जगह नहीं थी या फिर रेलवे द्वारा सैनिको के लिए आरक्षित डब्बा इस बार लगाया ही नहीं गया था !



अंत में मुझे उत्तराखंड के अपने एक करीबी जानकार की कहानी यहाँ याद आ रही है, जिनका दो माह पूर्ब दिसम्बर में निधन हो गया! उनके पति भारतीय सेना में थे और १९८७ में श्रीलंका में एल टी टी इ के साथ संघर्ष में वीरगति को प्राप्त हो गए थे! तब इनकी शादी हुए मुश्किल से दो साल ही हुए थे! बेटा जो कि अब खुद भी सेना में है, तब माँ के पेट में ही था! उस माँ ने दुनिया के सारे दुःख तकलीफे झेलते हुए इस बेटे को जन्म दिया, इसकी परवरिश की, पढाया लिखाया और जब बेटा अठारह-बीस साल का हुआ तो खुसी-खुसी सेना में भेज दिया! पहाडो में एक बिडम्बना यह भी है कि अगर सरकारी नौकरी नहीं है तो रोजगार का और खास साधन उपलब्ध नहीं होता, उसके बाद एक युवा के पास यही विकल्प बच जाते है कि या तो दिल्ली और चंडीगढ़ जाकर प्राइवेट में लालो की नौकरी करे या फिर सम्मान की नौकरी करनी है तो सेना में भर्ती हो जाये! अभी दिसम्बर में जब उन्होंने प्राण त्यागे तो अपने युवाकाल में पति की कुर्वानी दे चुकी वह अबला इसी चिंता के साथ मरी कि बेटा भी फौज में है, और देश में युद्ध के बादल घुमड़ रहे है! न जाने उसके पीछे क्या हो ? हम बड़ी आसानी से घर में बैठ कर कह देते है कि पाकिस्तान पर अटैक कर देना चाहिए, मगर क्या कभी आपने सोचा कि उन माँ के दिलो पर क्या बीतती होगी जिनका इकलौता बेटा फौज में है ? क्या देश का सारा का सारा दर्द झेलने का ठेका उसी माँ ने ले रखा था, जिसने पति को भी गवाया और फिर बेटे को आगे कर दिया? क्या चंद रूपये और तकमे ही इनकी कुर्बानियों की कीमत है ?

-गोदियाल

2 comments:

Asha Joglekar said...

ये बातें सामने लाने के लिये आप की तारीफ की जाये उतनी कम है पर युध्द यदि हम पर तोपा जाये तो करना ही होगा उसका विकल्प यह है कि सैनिकों को जरीरी अस्त्र शस्त्र मुहैया करायें जायें और नौकर शाही पर लगाम कसी जाये ।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

आशाजी,
सर्वप्रथम प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद! आपने बिलकुल ठीक कहा कि अगर हम पर युद्ध थोपा गया तो हमें लड़ना ही है और कोई विकल्प है ही नहीं मगर लड़ने के लिए जवान को एक उम्दा किस्म की बन्दूक तो देनी ही होगी, नहीं तो वो लडेगा कैसे ? उसके पीछे एक शिक्षित और समझदार अधिकारी भी तो होना चाहिए जो कि उचित रणनीति बनाये !