Friday, January 16, 2009

ये पैसा इतना क्यो बोलता है ?


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
जैसा कि आप सभी जानते है कि पैसा और ईमानदारी एक ही सिक्के के दो पहलु है ! अगर सिक्के पर पैसे वाला ठप्पा ऊपर तो इमानदारी दूसरी तरफ नीचे, और यदि ईमानदारी का ठप्पा ऊपर, जिसके कि आज के युग में ऊपर रहने के कम ही चांस होते है, तो पैसा विपरीत दिशा में नीचे ! दोनों साथ साथ चले, ये नामुमकिन !

काफ़ी समय से पत्र-पत्रिकावो, संचार माध्यमो में कुछ अफ्रीकी देशो में फैली भुखमरी और भूख से विलखते बच्चो की तस्वीरे देख, मैंने अपनी धर्मपत्नी से कहा कि अब हमारे बच्चे सयाने हो गए है, भगवान् की कृपा से इतना तो कमा ही लेते है कि एक और बच्चे की ठीक-ठाक परवरिश कर सके, क्यों न हम एक अफ्रीकी नवजात शिशु को गोद ले ले ! यह सुनकर बच्चे तो तैयार हो गए थे, मगर बीबी बोली, अंजाम मालूम है जब कहीं निकलेंगे उसे गोद में लेकर तो, दूर वालो की तो बात छोडो, ये अपने मुहल्ले वाले ही, बातें बना के और फब्तिया कस-कस कर पागल बना देंगे ! मैं चुप हो गया !

अभी कुछ दिनों पहले कहीं पर यूनायिटेड नेशन्स के एक अधिकारी का कथन पढ़ रहा था !"मैं यूनीसेफ की एक योजना के तहत नैरोबी मैं तैनात था ! अफ्रीका में कुपोषण, भुखमरी और बीमरी से ग्रस्त बच्चो की सहायता के लिए यूनिसेफ प्रतिमाह, प्रति बच्चा २५ डालर की सहायता उन बच्चो के अभिभावकों के माध्यम से देता है ! एक किसान के चार बच्चे थे, हम हर माह उसे १०० डालर भेजते थे ! एक दिन हमे उस किसान से एक पत्र मिला लिखा था महोदय, मेरा एक बच्चा मर गया है अतः आप जब अगले महीने की सहायता भेजें तो उसमे से २५ डालर काट कर भेजना ! "

पढ़कर, कुछ पल के लिए आँखे स्वतः ही बंद हो गई, अंतरात्मा से आवाज आई, हे प्रभो ! जब छोटा था तो आज की लूट-खसौट को देखकर अपने बड़े बूढों को अक्सर कहता सुनता आया था कि घोर कलयुग आ गया है, अग्रेजो के जमाने में इंसान भले ही गरीब था मगर ईमानदार था ! मेरे दादाजी अक्सर कहा करते थे कि तब उत्तरांचल में ऋषिकेश से यातायात के लिए सड़क मार्ग सिर्फ़ कीर्तिनगर तक ही था, बीच में अलकनंदा पर वाहनों के लिए पुल न होने की वजह से बस-ट्रक सिर्फ़ कीर्तिनगर तक ही आते थे, वहाँ से आगे का सफर घोडो और खच्चरों के जरिये होता था ! गर्मियों के दिनों में डाक रात को दस बजे श्रीनगर से खच्चरों में लदकर आगे चमोली गढ़वाल को निकलती थी ! उन डाक के तेलों में देश विदेश में काम करने वाले लोग, अपने घरो को जो पत्र और मनीआडर भेजते थे, यहातक कि सरकारी खजाने का पैसा भी, और वह सब इन्ही डाक के खच्चरों में लद कर जाता था ! घने जंगलो से होकर, और साथ में चलने वाले डाक विभाग के कर्मचारी के हाथ में सुरक्षा के नाम पर सिर्फ़ एक वरछा होता था ! क्या आज हम इस तरह खच्चर पर लादकर पैसा ले जा सकते है ?

अभी कल ही एक ख़बर पढ़ी कि झारखण्ड में एक शख्स ने १५ रूपये के लिए अपनी माँ को मार डाला, तो यह लेख लिखने का मन किया !

आजकल एक ही चर्चा गरम है , झुग्गियों में रहने वाला करोड़पति कुत्ता ! अब इन्हे कौन समझाए कि करोड़पति ये कुत्ता नही, करोड़पति है वो फ़िल्म बनाने वाला ! कुत्ते के पास चाहे एक रुपया हो या करोड़ रूपये हो, वह रूपये खा कर तो जिन्दा नही रह सकता उसे चाहिए एक रोटी, एक अदद हड्डी, नोट नही !मगर बेचारे कुत्ते का नसीब ! चूँकि पिक्चर एक अंग्रेज ने बनाई इस लिए झट से ढेरो इनाम भी मिल गए, आस्कर की दौड़ में भी शामिल हो गयी फिल्म और जो वाकियी आस्कर की दौड़ के लिए थी ( तारे जमीन पर ) उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया क्योंकि वह एक ऐसे व्यक्ति ने बनाया थी जिसके पास पैसा तो बहुत है मगर चमड़ी सफ़ेद नही है !

और लंबा नही खींचना चाहता, संक्षेप में कहूँगा, वाकई में ये पैसा बहुत बोलता है, मेरा बस चलता तो इसका मुह नोच डालता, मगर क्या करू अपनी परिस्थिति भी उस झुग्गी वाली करोड़पति कुत्ते से कुछ कम नही !
गोदियाल

2 comments:

Unknown said...

वाकई में ये पैसा बहुत बोलता ह

bahut sahi kaha aapne...kaafi accha lekh likha hai..

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

Thanks a lot Amitji,