शनिवार का दिन था, शाम के करीब सवा पाँच बजे होगे। दफ़्तर से थोड़ा जल्दी निकल पड़ा था घर के लिए । सराए काले खाँ पार कर जैसे ही निजामुद्दीन पुल की तरफ़ मुडा, एक तेज रफ़्तार बाइक कुछ अजीबोगरीब ढंग से मेरी बाए ओर से मुझे ओवरटेक करते हुए निकली। मैं अपनी गाड़ी सँभालते हुए बस इतना ही बडबड़ाया, " मरेगा इडीयट "। कुछ दूर तक मै उस बाइक को जाते देखता रहा, एक २५-३० साल की उम्र का युवा जोडा कुछ ज्यादा ही जल्दी में लगता था। शनिवार को अधिकांश दफ़्तरो मे छुट्टी होने की वजह से सड्को पर भीड अन्य दिनो के मुकाबले थोडा कम होती है अतः मै भी अपनी ६०-६५ की स्पीड में चलता रहा। मुश्किल से आधा किलोमीटर चला हूंगा कि यकायक यातायात धीमा पड़ गया, आगे सड़क पर एक टेंपो ख़राब पड़ा था। वह जोडा जो बाइक पर जा रहा था, एक बार फ़िर से मेरी गाड़ी के आगे था। जैसे ही खराब पडे टेंपो को पार किया, यातायात ने फ़िर से गति पकड़ ली थी ! मै भी अपनी पुरानी ६०-६५ वाली स्पीड में आ गया था। वेंसे तो जब मेरे आगे कोई परिवार वाला किसी दुपहिये पर जा रहा हो, तो मैं कुछ ज्यादा ही सतर्क हो जाता हू , लेकिन इस बार आगे वाले की ग़लत ड्राइविंग की खीज मुझे उसी रफ़्तार पर चलते रहने को मजबूर कर रही थी।
नॉएडा मोड़ करीब आधा किलोमीटर दूर था, सबसे बाहर वाली लेन पर एक ऑटोरिक्शा चल रहा था, उसके पीछे एक स्कूटर सवार था और उसी लाइन पर स्कूटर के पीछे वह जोडा अपने आगे चल रहे वाहन को ओवरटेक करने की उतावली में था। मै बीच वाली लेन पर पहले की भांति चल रहा था। जैसे ही बाइक सवार ने अपनी बाइक किनारे वाली लाइन से हटा कर बीच वाली लाइन पर डालनी चाही , कि तभी इत्तेफाक से स्कूटर सवार ने भी अपना स्कूटर, ऑटो के पीछे से हटाते हुए बीच वाली लाइन की ओर मोड़ दिया। बस इतनी बात थी कि बाइक सवार जल्दी में होने की वजह से संतुलन खो बैठा, नतीजन बीच सड़क पर ठीक मेरे आगे बाइक पलट गई । मेरे तो हाथ पांव फूल गए थे , फिर भी मैंने पूरी ताकत से ब्रेक लगा दिए। मेरी गाडी के टायर चर्ररर्र की एक जोर की आवाज निकालते हुए रुक गये, पीछे से आ रही दूसरी कार ने भी बचते-बचाते मेरी गाड़ी के बम्पर को ठोक ही दिया।
मै बाहर निकला, वह युवक और युवती पलटी हुई बाइक से अपने को अलग करने की कोशिश कर रहे थे। मैंने देखा, बाइक और मेरी गाड़ी के बीच मुश्किल से ६ इंच का फासला रहा होगा। मेंने पहले अपनी गाडी किनारे की और फिर बाइक को उठाया और उसे किनारे खड़ा किया, साथ ही मै अपने गुस्से को काबू मे करने की कोशिश भी कर रहा था। इस बीच वह युवक और युवती भी लचकते हुए किनारे पर आ गए थे। युवती के पैर में एक छोटी मगर गहरी खरोंच आ गई थी और हल्का खून बह रहा था। काफ़ी तादाद में बाइक और साईकिल सवार तमाशबीन भी इक्कठा हो गए थे ! उनमे से कुछ तो मेरी तरफ़ इस गलत पहमी मे कि शायद मैंने बाइक को टक्कर मारी है, कातिलाना अन्दाज मे देख रहे थे। मैंने अपनी गाड़ी की डिक्की खोली और पीछे पड़े बैग में से एक बैनडेड और थोडा सी रुंई निकालकर उस युवक की ओर बढाते हुए थोड़े गुस्सैले स्वर-अंदाज़ में कहा, "यार तुम लोगो को अपनी जिंदगी प्यारी नही तो कम से कम दूसरो को तो प्रॉब्लम मे मत डालो। " युवक अपनी सफाई देने लगा " मैं...मैं....आगे निकलने की कोशिश कर रहा था..........." !
वहां पर हुजूम लगाये लोग भी उसकी बात सुन खिसक लिए। युवक के बात करने के लहजे से मै इतना तो भांप चुका था कि वह भी कोई पहाड़ी लोग हैं। मैने युवक को जोर देते हुए मैंने कहा कि युवती के घाव वाली जगह पर बैनडेड लगा दो, खून बह रहा है, उसने बैन्डेड छिलकर घाव के आस-पास के खून को रुई से साफ़ कर बैनडेड लगा दी। फिर मैंने पूछा, कहा के रहने वाले हो आप लोग ? पिथोरागड़, युवक ने छोटा सा जबाब दिया । मैंने कहा, मै भी उत्तरांचल का ही हूँ, पर यार भाई ! जरा सम्भाल के चला करो, जल्दी करके क्या फायदा, अभी अगर मेरा थोडा सा भी ध्यान बंटा रहता और ब्रेक न लगते तो न जाने क्या हो जाता। इस बीच वह युवती जो एक भलीभांति दिल्ली के माहोल में ढली हुई प्रतीत होती थी और अब तक खामोश बैठी थी, आँखे छलछलाती हुई रुंधे गले से बोली " सौरी भाई साब, हमे माफ कर दो, एक्चुअली घर में दो छोटे बच्चे फ्लैट के अंदर बंद किए हुए है, इसलिए जल्दी कर रहे थे। कल सुबह गाँव जाना है इसलिये दिन मे बच्चो को सुलाकर लाजपत नगर शोपिंग के लिए निकल गए थे। "
युवती की बात सुनकर मानो मेरे पैरो तले जमीन खिसक गई थी। अपने हाव-भाव को कंट्रोल करते हुए मैंने युवक के कंधे पर हाथ रखा और पूछा आपको तो कोई चोट नही लगी? जबाब में युवक ने ना कहने के लिये सिर्फ़ मुंडी हिलाई। कई बार ऐसा होता है कि हकीकत जान लेने के उपरान्त और समय की कसौटी को समझ लेने पर इन्सान का दिल करता है कि मै, पीडित पक्ष की क्या मदद कर सकता हू, और ऐसा ही कुछ मेरे भी दिल मे पक रहा था, दिल कह रहा था । मैंने पूछा- अगर आप बाइक चलाने में कोई दिक्कत महसूस कर रहे हो तो मै घर तक छोड़ दूं? युवक ने कहा "नही भाई सहाब, हम चले जायेंगे " अच्छा देर मत करो , जरा चेक करो कि गाड़ी स्टार्ट होती भी है या नही, मै बोला । काफ़ी किक मारने के बाद युवक ने गाड़ी स्टार्ट कर दी, युवती भी उठ खड़ी हो गई, मैंने उन्हे आहिस्ता बैठने और संभालकर गाडी चलाने की नसीहत दी और अपनी गाड़ी की तरफ़ बढा ।
सारे रास्ते भर और घर पहुंचकर रात भर इसी सोच मे डूबा रहा कि अगर उन दोनो को कुछ हो जाता तो उन दो मासूमो का क्या होता, जो फ्लैट के अन्दर तालाबंद थे? इस महानगरी मे जिस तरह की मानसिकता के लोग रहते है, तो क्या कोई उन बच्चो की भी खोस-खबर लेता या नहीं! हे भगवान् ! आपका लाख-लाख शुक्रिया, वरना बाद में यह सब जानकर, क्या मैं चैन से जी पाता ?
Thursday, January 15, 2009
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1 comment:
महानगर हो या गांव.....दुनिया में कुछ तो बुरी घटनाएं घट ही जाया करती हैं....और हमें सहना ही पडता है।
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