Thursday, May 14, 2009

देश अपना -लोग पराये !

बड़े बेमन से छोड़कर हम,प्यारा सा वो मुल्क अपना
लेकर चंद ख्वाईसे,तेरे अजनबी इस शहर में आये थे ,
बीच राह,मुसाफिरों की भीड़ में,बिखर गए सब अरमां
बेशक वतन तो अपना था,मगर यहाँ लोग पराये थे !


यूँ मंजूर न था दूर होना, अपने सुन्दर उस अंचल से
मगर कर भी क्या सकते थे, हम हालात के सताये थे,
मैं अकेला चला था,न कोई साथ आया, न कारवां बना
कहने को तो हम भी, आधे-अधूरे ही घर से आये थे !


भीड़ ही भीड़ थी यहाँ क़यामत की, हर कूंचा, हर गली
पर घर एकाकी था, व संग चलने को खुद के साये थे
ढूँढने निकले जिस घर में अपना एक मीत उत्तराँचल से
ठोकर लगी, तो जाना कि वो घर दुश्मन के बसाये थे !


जब आये भी जो कोई यहाँ, बनने को हमदर्द हमारे
गुलाब के फूलों संग छुपाके,वो खंजर भी लाये थे
जिन्दगी बन के रह गयी, इक दर्द भरा मंजर जहाँ,
देश तो अपना ही था, मगर यहाँ लोग पराये थे !

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