Sunday, January 31, 2010

मिथ्या ही मान लो कि भगवान सब देखता है पर .. !


और यह रही मेरी पहली टिप्पणी अलग से मेरे ही पिछले लेख पर : आज जो हम लोग आम जीवन मे मानवीय मुल्यों का इतना ह्रास देख रहे है, उसकी एक खास वजह यह भी है कि हमारे धर्मो द्वारा निर्धारित जीवन के मुल्यों का कुछ स्वार्थी और तुच्छ लोगो द्वारा अपने क्षणिक स्वार्थो के लिये इनकी अनदेखी करना, इनका उपहास उडाना, खुद को इन मुल्यों से उपर बताना, इत्यादि । इसे मैं इस उदाहरण से समझाता हूं; मान लीजिये आपके आस-पास कहीं चोरी हो गई और आप पति-पत्नी घर पर बच्चो संग उसी विषय पर चर्चा कर रहे है, तो आपके चर्चा के दो नजरिये हो सकते है। एक यह कि चोरी करना बुरी बात है, और चोर को इसका फल जरूर मिलेगा । दूसरा नजरिया यह कि अरे भाई, उसको जरुरत थी तभी तो उसने चोरी की, अगर उसका भी पेट भरा हुआ हो तो भला वह चोरी करने ही क्यो जायेगा?( इस नजरिये को मानने वाले भी तभी तक उसे मान्यता देते है जब तक वह चोर दूसरों के घर मे चोरी कर रहा होता है ,उनके घर मे नही) आप इसमे से पहले नजरिये को धार्मिक अथवा आजकल की भाषा मे साम्प्रदायिक नजरिया कह सकते है और दूसरे नजरिये को सेक्युलर नजरिया, मगर साथ ही यह भी गहन विचार कीजिये कि आपकी इस चर्चा को सुन रहे आपके बच्चो पर कौन से नजरिये का क्या असर होगा?

जब कोई भी इन्सान यहां कोई अच्छा-बुरा काम करता है तो लगभग सभी धर्मो मे यह कहा गया है कि भग्वान उसे उसका फल अवश्य देता है ! अब मान लो कि चाहे यह बात मिथ्या ही क्यों न हो, लेकिन इसका समाज पर कम से कम यह असर तो पडता था कि गलत काम करने वाले के मन मे यह भय होता था कि भग्वान उसे ऐसा करते देख रहे है, और उसे इसका दुष्परिणाम भुगतना पड सकता है, अर्थात मिथ्या पूर्ण होते हुए भी वह बात समाज के हित मे थी, लेकिन आज इन स्वार्थी तथाकथित सेक्युलरों ने तो तरह-तरह के उदाहरण पेश कर इन चोरो के मन का यह भय भी खत्म कर दिया!

17 comments:

संगीता पुरी said...

बडी सटीक बात कही है .. यदि किसी अंधविश्‍वास से ही इतने दिनों तक समाज में सुव्‍यवस्‍था रखी जा सकी .. तो ऐसे अंधविश्‍वास से हर्ज ही क्‍या ??

जी.के. अवधिया said...

समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिये भय अत्यन्त आवश्यक है चाहे भय भगवान का हो, चाहे शासक का!

वन्दना said...

bhay to hona hi chahiye tabhi dharmik aastha ka lop nhi hoga ya kaho vyavastha sucharu roop se chal sakegi.

दिगम्बर नासवा said...

भय ......... या किसी भी तरह का सामाजिक प्रेशेर ज़रूरी है समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए .... हमारे पूर्वजों ने कुछ ऐसे ही नियमों को धर्म की सन्ग्य दी थी .........

ताऊ रामपुरिया said...

भय बिन होई ना प्रीत. सही है.

रामराम.

Kulwant Happy said...

चोर को मंदिर में घंटी और भगवान की मूर्ति नजर नहीं आती, बल्कि पेट भरने का एक साधन नजर आता है। चोरी के लिए भूख भी जिम्मेदार है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

अच्छी शिक्षा!

ajit gupta said...

सटीक, दो टप्‍पे की बात।

विनोद कुमार पांडेय said...

जिस भी चीज़ में भलाई हो उसे स्वीकार करना चाहिए कम से कम भगवान के नाम पर लोग बुरे काम करने से डरेंगे तो इससे समाज का ही भला होगा...बेहतरीन बात ..धन्यवाद गोदियाल जी

मनोज कुमार said...

सच्चाई की रोशनी दिखाती आपकी बात हक़ीक़त बयान करती है।

हास्यफुहार said...

बेहतरीन। लाजवाब।

डॉ टी एस दराल said...

इसके लिए जिम्मेदार , कुछ हद तक हमारी कानून व्यवस्था भी है। जहाँ देर भी है और अंधेर भी।

पं.डी.के.शर्मा"वत्स" said...

आपका कहना बिल्कुल दुरुस्त है.....समाज को सही दिशा देने में भय की भी कोई कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती।

Babli said...

आपने बिलकुल सही कहा है! इस उम्दा पोस्ट के लिए बधाई!

अजय कुमार said...

भगवान के भय से आत्मभय होता है । सही कहा आपने मिथ्या ही सही पर लोग गलत करने से घबराते तो हैं

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सही कहा, सर जी!

निर्मला कपिला said...

अपसे शत प्रतिशत सहमत। भय और प्रेम दोनो ही अनिवार्य हैं। शुभकामनायें।