डा० मार्क, डा० श्रीवास्तव के एक अजीज मित्र थे, और डा० श्रीवास्तव के ही आमत्रण पर अमेरिका से भारत आये थे। डा० मार्क से डा० श्रीवास्तव की जान पहचान तब हुई थी, जब डा० श्रीवास्तव अमेरिका मे डाक्टरी कोर्स कर रहे थे। कोर्स खत्म होने के उपरान्त देश सेवा और खासकर ग्रामीण समाज की सेवा का जज्बा डा० श्रीवास्तव को स्वदेश खींच लाया था। यहां लौटकर उन्होने सरकारी नौकरी ज्वाइन की और राज्य सरकार के दूर-दराज के ग्रामीण अस्पतालों मे मरीजो को अपनी सेवायें प्रदान करने लगे। उस वक्त तक उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश से अलग राज्य नही था, अत: डा० श्रीवास्तव का तबाद्ला पहाडो की तलहटी मे बसे उस कस्बे के एक सरकारी अस्पताल मे हो गया था, जिसमे केरल की रहने वाली जैनी बतौर नर्स पिछले चार-पांच सालो से कार्यरत थी।
हालांकि तब मै बहुत छोटा था, और शायद छठी कक्षा में पढता था। मुझे याद है कि सुन्दर और चुलबुले किस्म की जैनी स्वभाव से बहुत मिलनसार और भावनात्मक तौर पर दिल खोलकर दूसरों की मदद करने वाली थी। वह भारत के केरल प्रान्त के कोच्चि से करीब साठ किलोमीटर दूर अथीरापल्ली इलाके की मूल निवासी थी, और वाईएमसीए दिल्ली से प्रशिक्षित थी। उस कस्बे और आस-पास के गांवो के जरुरतमंद लोगो की मदद के लिये वह हमेशा तत्पर रहती थी। अस्पताल के आस-पास के इलाके मे और उस से सठे आस-पास के गांवो मे जब भी कोई प्रसव का इमरजेंसी केस होता, जैनी बिना देरी किये मदद के लिये वहां पहुंच जाती। धीरे-धीरे जैनी उस पूरे इलाके मे एक लोकप्रिय हस्ती बन गई थी। वह किसी से भी अपनी सेवाओं का कोई शुल्क नही लेती थी, अत: इलाके के जिन लोगो के यहां प्रसव के वक्त जैनी अपनी सेवायें देती, वे लोग उस वक्त जैनी को अपनी हैसियत के मुताविक इक्कीस अथवा इक्कावन रुपये तिलक के तौर पर भेंट और एक लड्डू का डब्बा पकडाने मे अपनी शान समझते थे। कम हिन्दी जानने वाली जैनी मरीज को अपने हिन्दी के रटे-रटाये दो वाक्य कि तुम चिन्ता नही करते, गौड सब ठीक करता जी , और फिर सब ठीक-ठाक निपट जाने पर खुशी-खुशी शुक्रिया और थैंकयू बोल लौट आती।
डा० मार्क को डा० श्रीवास्तव के पास आये तीन रोज हो गये थे कि अचानक डा० श्रीवास्तव को जिला मुख्यालय से सी एम ओ (चीफ़ मेडिकल आफिसर) का फोन आया और उन्हे एक जरूरी मीटिंग के लिये राज्य मुख्यालय, लखनऊ तलब किया गया। डा० श्रीवास्तव ने डा० मार्क की आवाभगत का भार जेनी के ऊपर डालते हुए, उसे कुछ जरूरी निर्देश दे, लखनऊ के लिये प्रस्थान किया। जैनी, मार्क के साथ व्यस्थ हो गई। चुंकि जैनी उस इलाके मे पिछ्ले चार-पांच सालो से रह रही थी, अत: वहां के कुछ जाने माने दर्शनीय इलाकों मे डा० मार्क को घुमाने ले गई। मार्क जिज्ञासू था और जैनी ज्ञाता, दोनो को एक दूसरे से जानकारी लेने और उसे समझने मे एक असीम किस्म का आनंद प्राप्त होता था। और इस समझने-समझाने के चक्कर मे कब दोनो एक दूसरे के इतने नजदीक आ गये , इसका अह्सास दोनो को ही तब हुआ, जब डा० मार्क के प्रस्थान का समय नजदीक आया। “मै तुम्हे छोड्कर नही जा सकता” डा० मार्क ने कहा। “मै भी तुम्हारे बगैर नही रह सकती” जैनी ने धीरे से गम्भीर स्वर मे कहा। “एक साथ रहने के लिये हममे से किसी एक को अपना देश छोडना पडेगा और मुझे तुम्हारा देश पसन्द है “ डा० मार्क ने कुछ सोचते हुए कहा ।
और फिर कुछ दिनो की छुट्टी लेकर जैनी और मार्क ने शहर आकर एक चर्च मे शादी रचा ली। शादी के बाद दोनो ही बहुत खुश थे, उनकी इस शादी से बस अगर खुश नही थे तो सिर्फ़ उस इलाके के लोग। न जाने उन्हे क्यो यह एक गोरे और एक काले का मेल पच नही रहा था। दो साल तक तो सब कुछ ठीक-ठाक ही चला, इस दर्मियान जब डा० श्रीवास्तव का वहां से तवाद्ला हो गया और महिनों तक जब रिक्त स्थान के लिये कोई डाक्टर उस अस्पताल मे नही आया तो डा० मार्क ही स्थानीय मरीजो की चिकित्सकीय मदद करते। और फिर वह हो गया जिसका अन्देशा कुछ स्थानीय लोग पहले ही जतला चुके थे।
जैनी करीब पांच-छ: माह के गर्भ से थी, काफ़ी दिनो से बात-बात पर जेनी और डा० मार्क्स के बीच खट-पट चल रही थी, और उनकी बातों से ऐसा लगता था कि उनके बीच गलत फहमी की कोई दीवार खडी हो गई थी। उस दिन सुबह-सबेरे भी उनकी किसी बात पर बहस हो गई थी। उनकी बातों से लगता था कि मानो डा० मार्क्स जेनी से नर्स की नौकरी छोड्ने की बात कह रहा था। जेनी गुस्से मे डा० मार्क को कह रही थी “आई हैडन्ट एक्स्पेक्टेड यू टु से इट वज औल राइट फ़ौर अ मैन टु गो आउट ऐन्ड अर्न हिज लिविंग, बट नौट अ ओमन” (मैने तुमसे यह उम्मीद नही की थी, आदमी के लिये तो बाहर जाकर नौकरी करना ठीक है, लेकिन एक औरत के लिये नही ) डा० मार्क ने भी उसी अन्दाज मे फिर जबाब दिया था “आइ डिडन्ट से इट. ऐज फार ऐज आइ एम कन्सर्न्ड,वोमन कैन डू व्हट एवर दे वान्ट” ( अर्थात मैने यह तो नही कहा। जहा तक मेरा सवाल है, औरत वह सब कर सकती है जो वह करना चाहे ) फिर ज्यों ही मार्क अपना बैग उठा चलने को हुआ, जेनी ने लगभग चिल्लाते हुए पूछा था “ व्हेन आर यू कमिंग बैक टु इन्डिया मार्क ?” (तुम वापस भारत कब आ रहे हो मार्क्स ?), डा० मार्क ने हल्के स्वर मे बुद-बुदाते हुए छोटा सा जबाब दिया था ’आई डोन्ट नो’ (अर्थात मुझे नही मालूम) ।
डा० मार्क के अचानक जैनी को ऐसे वक्त पर जिस वक्त पर कि जैनी को उसके सहारे की सख्त जरुरत थी,ऐसी परिस्थितियों मे इस तरह छोड्कर चले जाने से, वह टूटकर रह गई थी। नतीजन दिन प्रतिदिन उसकी हालत गिरती चली गई। और फिर वह एक दिन भी आया जब कस्बे के बीचों-बीच स्थित अस्पताल के ठीक बगल पर बने उस मकान की उपरी मंजिल से, जिस पर जैनी पिछले पांच सालो से किराए पर रह रही थी, रुक-रुककर असहाय अबला के छटपटाने की कराहे और दर्द भरी चीखे उस सुनशान कस्बे को हिलाने लगी। लेकिन इलाके के जिन लोगो की उसने लग्न और मेह्नत से पिछले छह सालो से सेवा की थी, जो लोग कल तक उसे जैनीजी-जैनीजी कहकर पुकारते थे, वहीं आज मदद करना तो दूर, उधर से गुजरते हुए जैनी पर फब्तियां कसने से तनिक भी नही हिचकिचा रहे थे। उसकी बदकिस्मती देखो कि हाल ही में उस अस्पताल में नया आया डाक्टर भी हफ्ते रोज की छुट्टी पर अपने गाँव गोरखपुर गया था। कस्बे में एक छोटा सा निजी चिकित्सालय भी था, मगर जैनी को वहाँ पहुंचाता कौन ? और हद तो तब हो गई जब ६५ वर्षीय मकान मालकिन, जिसे जैनी रमा चाची कह कर पुकारती थी, उसके दरवाजे के समीप गई और जब जैनी अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे अपने दोनों हाथ ऊपर उठा, उस रमा चाची से मदद की गुहार लगा रही थी, तभी उसके यह कटु बोल जैनी के कानो में पड़े कि रांड, चली थी अंग्रेज बनने, अब मर, सड यहीं पर। यह सुनकर जैनी करीब १५ मिनट के लिए अपने ओठों को चबाकर कसकर बंद करके एकदम खामोश सी हो गई थी। मानो इस बीच सोच रही हो कि इन लोगो को, जिन्हें वह अपना समझकर, सुख-दुःख में इनकी इतनी सेवा करती रही, क्या उनसे उसे इसी सिले की उम्मीद थी? माना कि डा० मार्क के साथ उसका शादी रचाना लोगो को पचा न हो, लेकिन वह उसका अपना, अपनी निजी जिन्दगी के बारे में लिया गया फैसला था, उसे सही या गलत ठहराने वाले ये लोग होते कौन है ?
किसी अनजान भय की लकीरे उसके चेहरे पर साफ़ दिखाई देती थी । लोग अपने घरो-गलियों में तरह-तरह की बाते करते रहे, मगर एक भी माई का लाल ऐसा न निकला जो उसकी मदद के लिए आगे आ सके। रात करीब एक डेड बजे तक जैनी की दर्द भरी कराहे वातावरण में गूंजती रही, और फिर कुछ पल बाद एक नन्हे मेहमान की रूंधन भी वातावरण में गूंजी । मगर जब कुछ जिज्ञासू तमाशबीन सुबह जैनी की देहरी पर अन्दर झाँकने के लिए पहुचे तो जैनी और उसका नन्हा मेहमान बिस्तर पर शांत सो चुके थे, सदा के लिए !
Monday, October 26, 2009
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14 comments:
मर्म स्पर्शीय .......... मृत होती संवेदनाएं ..... मार्मिक लिखा है .......
हे भगवान !
कितना कड़वा सच !
पढने के लिए भी कलेजा चाहिए..........भुगतने के लिए तो............उफ़ !
बेहद मार्मिक सच मे पढने के लिये कलेजा चाहिये ..........अलबेला जी ने सही कहा है .....आभार !
आपकी कथा अच्छी लगी ........लेकिन गोदियाल साहब यह तो लघु कथा नहीं लम्बी हो गयी है
केसा है हमारा यह समाज? जो अपने मतलब के लिये किसी के तलबे भी चाट लेता है.... ओर फ़िर काम निकल जाने पर आंखे फ़ेर लेता है.... जिन पर वीतती है वो ही जाने..... मेरे पास शव्द ही नही क्या कहुं.....
एक छाप छोड़ गई यह लेखनी.....
यह मनुष्य कभी कभी कितना क्रूर हो जाता है कि मनुष्यता के दर्जे से गिर जाता है । यह कथा मे ही हो ऐसा ज़िन्दगी मे न हो कभी ।
इस मार्मिक लेख के लिए आभार!
hum to aapki lekhan ke kayal ho gaye hai bhai.......baat ko kahne ka andaj hi gajab hai....dil ko hila gaya.
bahut hi marmik rachna..
बहुत मार्मिक और अविश्वसनीय। क्या उस गाँव के लोग पत्थर थे?
श्री मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं
"मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ,
किन्तु मनुष्य को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूँ।"
ufffffff!!!!!!!!!!
aapne to rula diya.......... waaqai mein isey padhne ke liye kaleja chahiye..... bahut hi maarmik.....
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nayi kavita dekhiyega.....kal hi likhihai...
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