अक्सर देखा गया है कि कुछ लोग जन्मजात भाग्यशाली होते है, विपरीत परिस्थितियों में भी भाग्य हर मोड़ पर उनका साथ देता है, ठीक इसके विपरीत कुछ अभागे लोग ऐंसे भी होते है जिनका बदकिस्मती जिंदगी भर साथ नही छोड़ती। कमला की कहानी भी कुछ इससे भिन्न नही है। बचपन में ही माँ का साया सर से उठ गया था। सौतेली माँ के भेदभावपूर्ण व्यवहार के तले जैसे-तैसे बचपन गुजरा, जवानी की देहलीज़ पर पहुची, और फिर वह दिन भी आया जब वह डोली में बैठ पति के घर चली आई। ससुराल में भी परिवार में कहने को सिर्फ़ जेठ - जेठानी और उनके दो बच्चे थे, सास-ससुर का निधन बहुत पहले ही हो चुका था। प्रमोद, कमला का पति अन्ख्लेश्वर, गुजरात में एक प्राइवेट केमिकल फैक्ट्री में सुपरवाईजर के पद पर कार्यरत था।
शादी के हफ्ते भर बाद प्रमोद कमला को गाँव में भैया-भाभी के पास छोड़ वापस नौकरी पर अन्ख्लेश्वर लौट आया था। अभी कमला के हाथो की मेहँदी ठीक से सूख भी नही पाई थी कि जेठानी ने भी जुल्म ढाने शुरू कर दिए। जैसे-तैसे दिन गुजरने लगे। आज के दौर में, जबकि देश में मोबाइल क्रांति और फ़ोन क्रांति का बोलबाला हो, वही सुदूर पहाडी गाँव में रहने वाली एक अकेली औरत का सहारा, डाक विभाग के डाकिया द्वारा लाया गया वह पत्र ही होता है जिसे उसके किसी अपने अजीज ने भेजा हो। वह जब भी खेत-खलिहान या जंगल से घास-लकडी लेकर घर पहुँचती है तो पहली नज़र उसकी मकान की सीड़ियों के नीचे बने उस आले पर जाती है जिसमे अक्सर पोस्टमैन उसके नाम की चिट्टी को रख जाया करता है। और जब वह उसे वह आला खाली नज़र आता है तो उदास हो जाती है। प्रमोद की आय भी शायद इतनी ज्यादा नही थी कि वह हर महीने कमला और अपने भैया भाभी को खर्चे के लिए मनीआडर भेज पाता, अतः जेठानी ताने मारती कि नबाबजादा ख़ुद तो ऐश कर रहा होगा और इस मुसीबत को हमारे मत्थे मार गया।
हद तो तब हो गई जब उसके जेठ-जेठानी ने घर-जायजाद के हिस्से कर दिए, और उसका चूल्हा भी अलग कर दिया। कमला इस अकस्मात आए नए दुःख से फूट-फूट कर रो पड़ी। उसके पास तो इतना भी सहारा न था कि वह तुंरत अपने मायके जाकर अपनी माँ के सीने से लग अपना दुःख बाँट सके। जैसे-तैसे उसने अपने को संभाला और अगले दिन पास के कस्बे में प्रमोद को टेलीफोन करने गई, और उसे घर के हालात की जानकारी दी। प्रमोद ने जल्दी घर आने का आश्वाशन दिया।
कुछ हप्ते बाद प्रमोद छुट्टी आया और कमला को साथ ले अन्ख्लेश्वर चला गया। प्रमोद फैक्ट्री काम्प्लेक्स में ही एक कमरे के क्वार्टर पर रहता था। धीरे-धीरे दोनों ने नई गृहस्थी को जोड़ना सुरु किया। दिन खुसी-खुसी गुजरने लगे। साल भर बाद घर में एक कलि खिली, माँ-बाप ने प्यार से उसका नाम समीक्षा रखा। वक्त गुजरने लगा, घर में एक सीमा तक पूरी खुशहाली थी। समीक्षा जब साल भर की हुई तो दीपावली की छुट्टी में वे लोग चंद दिनों के लिए गाँव आये, कुछ दिन गाँव में बिताने के बाद वे लोग गुजरात वापस लौट गए। कुछ समय से वे लोग महसूस कर रहे थे कि समीक्षा दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी, अचानक एक दिन उसे तेज़ बुखार आया और वह बेहोश हो गई। छुट्टी का दिन था अतः प्रमोद घर पर ही था, वह दौड़ा-दौड़ा उसे पास के एक नर्सिंग होम में ले गया। प्रमोद दम्पति उस समय टूट कर रह गए जब डाक्टरों ने जांच के बाद बताया कि समीक्षा को ब्लड कैंसर है और खून में ब्लड सेल न बनने/टूटने के कारण हर एक पखवाडे के बाद उसका ब्लड बदलना पड़ेगा। कमला अपनी तकदीर कोसने के सिवाए और कर भी क्या सकती थी ? दिन बीतते गए, समीक्षा अब ढाई साल की हो गई थी। प्रमोद जिस कंपनी में कार्यरत था उस कंपनी का हेडऑफिस अहमदाबाद में था, वहाँ पर स्टोर में काफ़ी समय से स्टोरकीपर की जगह खाली थी, चूँकि प्रमोद एक पुराना कर्मचारी था अतः प्रमोशन के तौर पर कंपनी ने उसे स्टोरकीपर की पोस्ट पर अहमदाबाद स्थानांतरित कर दिया था।
अपने एक ऑफिस के ही साथी दोस्त की मदद से, अहमदाबाद में जोधपुर चार रास्ता के पास सोसाइटी से सटे इलाके में प्रमोद ने एक कमरा किचन किराये पर लिया था। चूँकि ब्लड कैंसर की वजह से समीक्षा का हर २० दिन पर ब्लड बदलना पड़ता था, अतः धोलका इलाके में मौजूद ब्लड सेंटर पर आना पड़ता था। ब्लड बदलने से ४८ घंटे पहले समीक्षा को कुछ जरूरी दवाईया और इंजेक्शन देना होता था। प्रमोद कमला को समय समय पर हिदायत देता रहता था कि यहाँ अहमदाबाद में वो बात नहीं है जो अन्ख्लेश्वर में थी, यहाँ दंगे फसाद और आतंकी हमले का भी डर हर समय बना रहता है, अतः वह जब कभी बाजार सामान खरीदने के लिए जाये तो संभलकर जाये। उसकी इस बात पर कमला उससे बच्चो की तरह का मासूमियत भरा सवाल पूछती कि ये आतंकवादी उन लोगो पर, जिन्होंने इनका कुछ भी नहीं बिगाडा, उन पर क्यों हमले करते है, उन्हें क्यों मारते है? प्रमोद अपने ढंग से उसे समझाने की कोशिश करता और उसे अपने साथ हुई उस घटना की कहानी को उसे बार -बार सुनाता, जब वह छोटा था और आठवी में पढता था।
प्रमोद ने कमला को बताया कि १९७९ की बात थी, उसके पिताजी की बटैलियन फिरोजपुर से अभी- अभी ऊपरी असम के नालबारी जिले में शिफ्ट हुई थी ! आर्मी क्वाटर्स खाली न होने की वजह से उन्हें सिविल एरिया में किराये पर घर लेना पड़ा था। वहां पर अभी कुछ हफ्तों पहले ही असम आने वाले अवैध बांग्लादेसी घुसपैठियों के खिलाप स्थानीय पार्टियों द्वारा मोर्चा खोला गया था। आन्दोलन धीरे-धीरे हिंसक होता जा रहा था। अबैध रूप से घुसे बांग्लादेसी घुसपैठियों भी इसके खिलाप जंग की पूरी तैयारी कर ली थी, क्योंकि उन्हें सीमा पार से पूरा समर्थन मिल रहा था। वे लोग स्थानीय गुमराह युवको को अपने दल में शामिल कर उन्हें हथियार और बम चलने की ट्रेनिंग देते थे, प्रलोभन में उन्हें खूब पैसे भी दिए जाते थे। जब से वहाँ सिफ्ट हुए थे, तभी से रोज कोई न कोई अप्रिय ख़बर सुनने को मिलती थी।
उसने बताया कि उस समय संचार के इतने साधन देश में मौजूद नही थे,एक तीन बैंड का रेडियो होता था जिसका भी सालाना पोस्ट ऑफिस में टैक्स जमा करवाना पड़ता था। रोज शाम को बड़े गंभीर होकर विविध- भारती और बीबीसी पर समाचार सुना करते थे। उसके भी नन्हे दिमाग में आतंकवादियों की रोज एक नई तस्बीर बनती और बिगड़ती थी। वह सोचता था की वह लोग कितने निर्मम और कठोर दिल होते होंगे जो बाज़ार में चल रही औरतो और बच्चो पर बम फेक देते है, रात को उनके घरो को जला देते है, लोगो को जिन्दा जला देते हैं, इनके शरीर में कोई दिल नही होता होगा, इनको निर्दोषों को मारते वक्त उनके माँ-बाप, बहन-भाई अथवा बीबी-बच्चो का जरा सा भी ख़याल नही आता होगा, इत्यादि-इत्यादि। एक रात को समाचार सुना था कि नाल्बारी जिले में ही सेना के साथ मुठभेड़ में ३ आतंकवादी और सेना का एक हवालदार मारे गए थे। दूसरे दिन सुबह जब स्कूल के लिए तैयार हो रहा था तो पास के दो तीन घरो को छोड़ बाद वाले घर से किसी महिला के विलाप करने की आवाज़ आ रही थी। माँ बाहर गली में गई थी और कुछ देर बाद जब लौटी तो पूछने पर उसने बताया कि शकीना के पापा आतंकवादियों के साथ कल रात मुठभेड़ में शहीद हो गए थे। ज्यादातर फौजी परिवार, जिन्हें छावनी के अन्दर क्वाटर नहीं मिला था उसी मुहल्ले में रहते थे। मुझे उस दिन माँ ने स्कूल नहीं भेजा और मुझे साथ ले शकीना के घर उसकी मम्मी को सांत्वना देने गए थे। वहाँ पर मोहल्ले की काफी औरते इक्कठा थी।
मैंने देखा था कि हमारे एकदम पड़ोस में रहने वाली अधेड़ उम्र की आंटी, असलम की अम्मी, छाती पीट-पीट कर उन आतंकवादियों को बुरा-भला कहे जा रही थी जिन्होंने शकीना के अब्बू को मारा था। असलम के अब्बू भी फौज में थे। असलम का एक बड़ा भाई और दो छोटी बहने थी। असलम का १६ वर्षीय बड़ा भाई पढाई में कमजोर था अतः पिता के पीटने की वजह से कुछ महीनो से घर से गायब
था। उसी रात को जब हम खाना खा रहे थे तो तभी असलम के घर से जोर-जोर से उसकी अम्मी और बहनों के रोने की आवाजे आने लगी। हम लोग खाना बीच में ही छोड़ उनके घर दौडे, चारपाई पर असलम के भाई की लाश पड़ी थी और उसकी अम्मी दहाड़ मार-मार कर रो रही थी। कुछ देर बाद माँ मेरा हाथ पकड़ घर ले आई। मैं कौतुहल बस माँ से पूछ रहा था कि असलम के भाई को क्या हुआ? माँ ने धीरे से बताया कि असलम का भाई उन्ही तीन आतंकवादियों में से एक था, जिसने शकीना के अब्बू को मारा और खुद भी मारे गए। मैं आश्चर्य से माँ की आँखों में देखने लगा था। मेरा नन्हा दिमाग तो पहले यह सोच बैठा था की यह लोग जो आतंकवादी बनते है वे जरूर लावारिश या बचपन से अनाथ होते होंगे तभी तो यह आत्महीन होते है और ऐसे पैचाशिक हरकतों को अंजाम देते वक्त जरा भी नही हिचकिचाते, लेकिन वहाँ तो कहानी कुछ और है। कमला भी प्रमोद की यह सच्ची कहानी सुन कुछ देर के लिए सोच में पड़ जाती थी।
जुलाई २००८, शनिवार होने की वजह से प्रमोद ऑफिस से थोड़ा जल्दी घर आ गया था, पत्नी ने याद दिलाते हुए उसे बताया की सोमवार को समीक्षा को खून बदलवाने अस्पताल ले जाना है अतः आज उसको दवाई और इंजेक्शन देना होगा ! प्रमोद शाम की चाय पीकर दवाई लेने निकल पड़ा। समीक्षा भी पापा से उसे साथ ले जाने की जिद्द कर रही थी मगर अहमदाबाद शिफ्ट हुए सिर्फ़ तीन महीने ही हुए थे इसलिए प्रमोद शहर से बहुत ज्यादा परिचित नही था और क्योंकि वह दवाई आम कैमिस्ट के पास कम ही मिलती थी अतः वह दवाई लेने भी धोलका ही जाता था, और चूँकि वह इलाका घर से काफी दूर था सो उसने समीक्षा को साथ ले जाने से मना कर दिया और उसे लौटते वक्त चोकलेट लाने का प्रोमिस किया था। अभी वह अपनी गली से बाहर ही निकला था कि उसे ऑफिस का वही मित्र मिल गया जिसने उसे यहाँ पर कमरा दिलवाया था। वह भी किसी काम से समीप के बाज़ार जा रहा था।
ज्योंही वे लोग सब्जी बाज़ार से गुजर रहे थे कि अचानक पास खड़ी एक साईकिल में जोर का धमाका हुआ और प्रमोद को साथ चल रहे मित्र की धमाके के शोर में दबी चीख सुनाई दी। थोडी देर में जब धुंए का गुबार हल्का हुआ तो उसने देखा की अगल बगल लोगो की लाशे बिखरी पड़ी थी। उसके मित्र का दाहिना हाथ कंधे से गायब था ओर वह ज़मीन पर पड़ा तड़प रहा था।
प्रमोद के मानो होश उड़ गए थे ! वापस घर की ओर भागना चाहता था मगर उसकी अंतरात्मा ने उसके पाँव जकड लिए। वह आस पास मौजूद लोगो को सहायता के लिए पुकारने लगा और अपने मित्र को उठाने की कोशिश करने लगा । थोडी देर में एक एंबुलेंस भी आ पहुँची थी, लोगो की मदद से उसने अपने मित्र को अम्बुलेंस में रखा और अस्पताल के लिए चल दिए ! ज्योंही अम्बुलेंस अस्पताल के गेट के पास पहुची तो उसकी स्पीड कम हो गई क्योंकि अस्पताल में पहले से लोगो का जमघट लगा था, अम्बुलेंस अपने कर्कश सायरन को बजाते हुए धीरे-धीरे मेन गेट की तरफ बढ़ रही थी। प्रमोद जो की अपना मोबाइल कमला के पास ही छोड़ आया था उसने सोचा कि अस्पताल के पब्लिक बूथ से कमला को फ़ोन पर सूचित कर दू, अतः वह जेब से सिक्का निकाल तेजी से बूथ की तरफ़ लपका! मुश्किल से दो कदम ही चला होगा की पास खड़ी एक कार में जोर का धमाका हुआ और प्रमोद के शरीर के चिथड़े उड़ गए..........!
रात के दस बज चुके थे, समीक्षा इस उम्मीद में कि पापा चोकलेट लायेंगे अभी सोयी नही थी। कमला ने टीवी चलाया तो हर चेंनेल पर धमाको की ही ब्रेकिंग न्यूज़ आ रही थी। कमला को भी धीरे-धीरे किसी अनहोनी की आशंका सताने लगी थी। रात का समय था यह शहर उसके लिए एक अनजान जगह थी, आस पड़ोस में भी किसी को नही जानती थी कि जाकर मद्दद कि गुहार लगाये। करते-करते रात के साड़े ग्यारह बज गए। समीक्षा ने विस्तर पर लेटे- लेटे एक बार फिर कमला से पूछा " ममा, पापा अभी तक क्यो नही आए,बौत देर हो गई ?"
-गोदियाल
Monday, March 9, 2009
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2 comments:
सही बात की है आपने,भाग्य अच्छा हो तो विपरीत परिस्थितियाँ भी अनुकूल नज़र आती हैं। होली की शुभकामनाएं।
नरेश भाई और उनके पूरे परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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