Friday, August 8, 2008

मेरे पिता का कसूर !

देव भूमि उत्तराखंड के सुदूर उत्तर में प्रकृति की खूबसूरत वादियों में बसे छोटे से पहाडी गाँव रिगोली में पिछले २०-२२ सालो से न दीवाली के दीप जले और न ही कभी होली मनाई गई । गाँव की खुशहाली को मानो किसी की नज़र लग गई हो ! गाँव भले ही छोटा सा है, मगर कभी इसमे एक जीवन की भर्पूरता थी। भविष्य की आशाये थी, उम्मीदों के सपने थे। लेकिन आज सब कुछ सूना-सूना और बेजान है, एक अजीब सा सन्नाटा पसरा पड़ा है पूरे गाँव में। हो भी भला क्यो न, जिस गाँव ने पिछले २० बरसों में एक-एक कर अपने चार जवान सपूतो को जाफना, जम्मू-कश्मीर, कारगिल और मणिपुर में खोया हो, उस गांव के लिए भला खुशी के क्या मायने ?

श्रुति तब दो बरस की थी, जब उसने अपने चौबीस वर्षीय पिता तारादत को गाँव के पहाडी बस अड्डे पर माँ की गोद में से आखिरी बार बाय-बाय करने के लिए अपने नन्हें हाथ हिलाये थे। अगस्त में २ महीने की छुट्टी काट कर जब तारादत्त परिवार वालो से विदाई लेकर ड्यूटी ज्वाइन करने गाँव से निकला था तो शायद ही किसी को यह अहसास रहा हो कि वे अपने इस युवा सिपाही को आखरी बार बिदाई दे रहे है, क्योंकि वैसे तो एक फौजी की जिंदगी तमाम तरह के जोखिमों से भरी पड़ी है ,मगर इंसान कि कल्पना शक्ति इनके लिये उत्पन्न खतरों का अन्दाजा उस वक्त के देश और दुनिया के सामने मौजूद हालात से लगाता है! उस वक्त देश की आतंरिक और बाहरी हालात इतने बुरे भी नही थे कि ऐसी कल्पना की जाती।
मगर किसे मालूम था कि देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री के सिर पर अपनी माँ की भांति दुनिया की चंद दिनों की वाहवाही लूटने का भूत सवार हो जाएगा। अफसोस कि बेटे को श्रीलंका के मोर्चे पर वह नसीब नही हो सका और बाद मे इस गलती की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पडी। तारा दत्त के ड्यूटी ज्वाइन करते ही, सरकार ने श्रीलंका के अनुरोध पर तमिल उग्रवादियो से निपट्ने के लिये इन्डीयन पीस कीपिन्ग फ़ोर्स श्रीलंका भेजने का निश्च्य किया। तारादत्त की रेजिमेंट को भी श्रीलंका के जाफना प्रान्त में कूच करने के निर्देश मिले। १० अक्तूबर १९८७, सुबह का वक्त था , तारा दत्त की ५ वी राज बटालियन की एक टुकडी अपने नित्य कर्मो से निपट कर मोर्चा सँभालने की तैयारी में थी, कि तभी एलटीटीइ के छापामारो ने जंगल की तरफ़ से उनपर हमला कर दिया। काफ़ी देर तक लड़ाई चलती रही जिसमे सभी छापामार और तारादत्त और उसके नौ साथी सैनिक शहीद हो गए ।

बायीस वर्षीय जवान श्रुति की मां की तो मानो जिन्दगी ही सूनी हो चली थी। बेचारी अपनी किस्मत पर रोने और बदनसीबी को कोसने के सिवाय और कर भी क्या सकती थी, सेना की तरफ़ से मिले चन्द लाख रुपये और पेन्शन से उसने श्रुति की परवरिश और पढाई-लिखाई जारी रखी। श्रुति भी अपनी माँ के साथ गाँव में, जिंदगी के सफर की रोजमर्रा की अनेको लड़ाईया लड़ते हुए अब जीवन की तेइसवी देहलीज पर कदम रख चुकी है । असहाय माँ को दिन-रात बेटी के हाथ पीले करने की चिंता खाए रहती है । अभी कुछ महीनो पहले वह अपनी ममेरी बहिन की शादी में गाँव के नजदीकी कस्बे कीर्तिनगर आई हुई थी । वहाँ पर टीवी देखते हुए उसने न्युज चेनल पर एक अद्भुत खबर देखी । टीवी चेनलो पर एक ख़बर बार-बार दिखाई जा रही थी कि सुश्री प्रियंका ने अपने पिता के हत्यारो मे से एक तथाकथित हत्यारिन ‘नलिनी’ से मद्रास की एक जेल में मुलाकात कर उससे पूछा कि आख़िर उसके पापा का क्या कसूर था जो उनको इतनी निर्ममता से मार डाला गया ?

यह ख़बर देखने के बाद से श्रुति जैसे काफ़ी विचलित, निराश और चिडचिडी हो गई । उसके जेहन में भी अनेको सवाल उठने लगे । शादी समारोह के बाद जबसे वह मामा के घर से वापस अपने घर लौट्कर आयी है , तभी से बस एक सवाल माँ से बार-बार पूछे जा रही है कि माँ मैं सुश्री प्रियंका से मिलना चाहती हूँ, कैसे मिलु ? उसकी मां ने जब पह्ले-पहल उसके इस अजीबो-गरीब ख्वायिश की वजह पूछी तो श्रुति का जबाब सुनकर उसकी आंखे छ्लछला आयी। श्रुति ने कहा कि मां, मुझे भी प्रियंका से मिलकर वही सवाल पूछना है जो उसने नलनी से पूछा था कि उसके पिता का क्या कसूर था, जो उन्हें बेवजह मार दिया गया?

माँ उसकी मासूमियत देख अपनी नम आखो को धोती के पल्लु से फोंझ, उसके सिर पर सिर्फ़ हाथ फेर देती । अब बेचारी श्रुति को कौन समझाए कि तू इतनी ऊँची उड़ान मत उड़, बड़े लोगो की नकल करने के ख्वाब देखना छोड़ दे। इस तरह के प्रश्न करना सिर्फ़ बड़े लोगो की फितरत और पहुँच तक ही सीमित होती है । हमारे जैसे छोटे कद के लोग अपनी भावनावो को दबा कर सिर्फ़ सब्र करना जानते है । तुम्हारी इतनी हैसियत कहाँ कि प्रियंका से मिल भी सको ?

नोट: कहानी मे घट्ना के स्थान और पात्र सभी काल्पनिक है !
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