Friday, August 28, 2009

लघु उपन्यास- वक्त के सित्तम

(करीब एक साल पहले अपने ब्लॉग पर एक कहानी लिखी थी, "वक्त के सित्तम" ! गिने-चुने पाठको ने खूब सराहा था, इसलिए उत्साहवश उसे उपन्यास का रूप देने की ठानी! हालांकि समयाभाव के कारण एक पूर्ण उपन्यास तो नहीं बन पाया, मगर एक लघु-उपन्यास की शक्ल देने में कामयाब रहा! अब मैं कोई जसवंत सिंह जैसी हस्ती तो हूँ नहीं, जो प्रकाशक किताब छापकर, पूरी की पूरी बीजेपी का ही बंठाधार कर दे ! मुझ जैसे अध्नटे लेखक को तो प्रकाशक ढूंढें न मिलेगा, इसलिए यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ, अगर कोई पाठकगण पढ़ना चाहें तो!)

वक्त के सित्तम !

बडे लग्न और मेहनत के से उच्च श्रेणी के अंक प्रतिशत के साथ, इंदौर से सिविल इंजीनियरिंग में बी.ई. और फिर रुड़की से जियो-टेकनिकल में एम्.टेक करने के बाद विक्रम ने उस समय की देश में मौजूद, सिर्फ़ दो नामी-गिनामी जियोसिन्थेटिक कंपनियों में से एक कनाडा मूल की विदेशी कंपनी में बतौर प्रोजेक्ट इंजीनियर नौकरी ज्वाइन कर ली थी। एम.टेक का कोर्स खत्म होते ही कैम्पस से ही कम्पनी द्वारा उसका चयन कर लिया गया था। विक्रम आशा और रूचि के अनुरूप अचानक मिली इस सफ़लता से अत्यन्त प्रसन्नचित था। चुने जाने के तीन महिने बाद ज्यों ही फाइनल सेमेसटर के पेपर खत्म हुए और कुछ हफ़्तो बाद परिणाम घोषित हुए, उसे तुरन्त ही नौकरी ज्वाइन करने का आमंत्रण आ गया था। विद्यार्थी जीवन से निकलकर तुरन्त कर्मभूमि में पदार्पण उसके लिए किसी टॉनिक की तरह था। उत्साह और उमंग से भरपूर जवानी की देह्लीज पर उसने इस अपनी पहली नौकरी में खूब दिल लगाकर अपने कार्यो को करना आरम्भ किया। उसे उसका मनपसंद तकनीकि ट्रेड जो मिल गया था। वह जो भी काम करता, सिर्फ़ इसलिए नही करता था कि वह कम्पनी का एक कर्मचारी है और उसके बॉस अथवा कंपनी के मैनेजमेंट ने उसको वह काम करने को कहा है, अपितु उसे वह अपना कोई व्यक्तिगत काम समझ कर, हर चीज को बारीकी से परखकर, उसे अंजाम देता था। वह अपने पिता की दी हुई वह सीख हमेशा याद रखता कि जीवन के जिस मोड पर वह आज खडा है, वह एक गर्म तपते लोहे की भांति है, जिसे जिस मर्जी सांचे मे ढालना चाहो, ढल जायेगी।


अपनी कर्मठता और कौशल के बल पर शीघ्र ही उसने अपनी एक अनूठी छाप कम्पनी के टॉप मैनेजमेंट पर छोड़कर कम्पनी मे अपने लिये एक खास जगह बना डाली थी। कम्पनी के ज्यादातर सीनियर मैनेजर उसके काम की तारीफ करते नही थकते थे। कम्पनी का प्रबन्धन उसे जौन सा काम सौंप दे, वह कभी भी उसके लिये मना नही करता था ! विपणन का काम, प्रोजक्ट मैनेजमेन्ट का काम, डिजाईन ड्राइंग का काम, जब और कोई काम न हो तो चुंकि वह पत्राचार के जरिये बिजनेस मैनेजमेंट का कोर्स भी कर रहा था, अत: वाणिजियिक विषयों मे भी रूची रखता था और अकाउंट्स के लोगो के साथ बैठकर देनदारों के खाते मिलान एवं समायोजित करता रहता था। उसकी लग्न और अच्छे काम से प्रभावित होकर तीन साल में ही कंपनी ने उसे वरिष्ठ प्रबंधक के पद पर पदोन्नत कर दिया था। अब जिंदगी मजे से गुजरने लगी थी, एक अच्छा वेतन, कंपनी की तरफ़ से रहने के लिए गेस्ट हाउस और गाड़ी, सब कुछ था उसके पास। यहाँ शहर में वह अकेला था, उसका परिवार उत्तराखण्ड के सुदूर एक पहाडी गांव मे रहता था। उसके परिवार में उसके अलावा माता-पिता, और दो छोटे भाई-बहन थे। छोटा भाई गाँव के पास के नजदीकी कस्बे से पोलिटेक्निक से इंजीनियरिंग में डिप्लोमा कर रहा था। पिता सरकारी मुलाजिम थे, और अब लगभग रिटायर्मेंट के करीब थे, इसलिए परिवार के भरण-पोषण के लिये एक ठीक-ठाक वेतन उन्हे भी मिल जाता था, जिससे पूरे परिवार का निर्वाह काफ़ी अच्छे ढंग से हो रहा था। और जब से विक्रम नौकरी पर लगा था, तब से अपने गांव मे भी स्वत: ही उनके परिवार का कद बढ गया था।

करते-करते विक्रम भी अब २७ साल का हो गया था, और जीवन के इस नये सफ़र की पहली मंजिल पर ही समाज मे एक सम्मानजनक स्थिति उसने पा ली थी, अतः विक्रम के पिता ने विक्रम और अपने परिवार के अन्य सदस्यो संग सलाह-मशविरा कर, विक्रम के लिये एक सुयोग्य जीवन-संगनी तलाशनी शुरु कर दी थी, और कुछ ही समय बाद अपने ही विभाग के एक वरिष्ट अधिकारी की बेटी से विक्रम का रिश्ता तय कर दिया। जहां विक्रम का रिश्ता तय हुआ था, वहां उसकी होने वाली दुल्हन, नेहा, उनके परिवार की चौथी संतान थी, तीन भाईयो के बाद एक बहन, अतः नेहा को अपने परिवार में भरपूर लाड-प्यार मिला था। दो साल पूर्व गढवाल युनिवर्सिटी से बीएससी करने के उपरांत, अभी इसी साल उसने बी.एड की डिग्री हासिल की थी। नेहा एक संस्कारो से परिपूर्ण सीधी-साधी मगर समझदार युवती थी। नवम्बर के अन्तिम सप्ताह में विक्रम और नेहा की सगाई हुई। हालाँकि नेहा और विक्रम की पहले कभी मुलाक़ात नही हुई थी और दोनो परिवारो मे पुराने रीतिरिवाजों और ख्यालातों के चलते, सगाई से पहले लड़के-लड़की को आपस में मिलाया भी नही गया था, बस सिर्फ़ दोनो परिवारों के लोगो ने नेहा और विक्रम को देखकर उन्हे पसन्द कर लिया था। फिर भी अपने-अपने दिलो मे संजोये अपने भावी जीवन-साथी की तस्वीर के मापदंडो पर दोनों के एक-दूसरे पर खरा उतरने से, विक्रम और नेहा सगाई के दिन पर काफ़ी खुश थे। विक्रम तो पहले-पहल नेहा की एक झलक पाकर उसकी आंखो मे ही देखता रह गया था, और एकान्त मे मौका पाकर थोडा संकुचाते हुए कह भी गया था कि आपकी खुबसूरत आंखे बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह देती है, इसलिये मैं आप से कुछ नही पूछूंगा। नेहा भी उसकी बात पर शरमा कर रह गई, कुछ बोली नही।

और फिर दो-ढाई महीने बाद तय समय पर फरवरी के प्रथम सप्ताह में धूमधाम से उनकी शादी भी हो गई। शादी की रस्म पर अमूमन लडकियां, बाबुल का आंगन छोड, एक अजनवी माहौल मे जाने की सच्चाई की वजह से अक्सर उदास हो जाती है, पर नेहा इतनी खुश थी कि शादी के दिन घर पर नहलाने की रस्म अदा करते वक्त उसने सहेलियों के संग उल्लास से ओत-प्रोत होकर, यह गीत गाया था;

मिला है मैंनू आज इक बन्ना इनाम,
कर डाला मैंने सब उसके ही नाम,
सखी ,खो गई ख्यालो मे उसके ही मैं,
आँखों ने है छ्लकाया, प्यार का जाम

साल अठरा बीते मेरे अम्मा के घर,
मिला इक बन्ना और निकल आये पर,
बाबुल के घर मेरा, अब है भी क्या काम
चली रे सखी मै तो अब पिया के धाम,

छोड़ दूंगी आज अपने गाँव की गली
बैठ के डोली संग मैं पिया के चली,
चली मैं तो आज सखी पिया के गांव,
बाबुल के घर को करके अपना सलाम,

और फिर धूमधाम से शादी होने के उपरान्त, कुछ दिन गाँव मे ही रुकने के पश्चात, विक्रम अपनी पत्नी नेहा को साथ लेकर शहर आ गया। विक्रम के पहले से निर्धारित प्रोग्राम के हिसाब से वे हनीमून के लिए माउन्ट आबू गए। दो दिन माउन्ट आबू की सैर के बाद वे लौटते हुए उदयपुर रुके। उदयपुर में नेहा को सहेलियों की बाड़ी काफ़ी भायी। एक पूरे दिन वहा के लेक पैलेस और ओल्ड पैलेस तथा कुछ अन्य स्थानों को घूमने के बाद वे उदयपुर से फ्लाईट पकड़ दिल्ली आ गये। यहाँ पर वैसे तो विक्रम ने पहले से गृहस्थी का सब सामान जोड़ा हुआ था, मगर घर की छोटी-बड़ी चीजे , जिनका कि अक्सर ध्यान एक गृहणी को ज्यादा रहता है , नेहा ने जोड़ना शुरू किया। और धीरे-धीरे गाड़ी पूरी तरह पटरी पर आ गई एवं दिनचर्या भी सामान्य हो गई।

खुशहाली के पलो में वक्त ’पर’ लगा कर उड़ने लगा था। दिन गुजरे, महीने गुजरे और फिर वह घडी भी आ गई जिसका विक्रम कुछ समय से इन्तजार कर रह था, एक दिन शाम को जब विक्रम ऑफिस से घर आया, और नेहा ने चुपके से उसके कान में कुछ कहा तो वह सुनकर उछल पड़ा। विक्रम खड़े-खड़े हाथ ऊपर उठा, चिल्लाने जैसी अवस्था मे जोर से बोल पडा; अरे मै बाप बनने वाला हू।
कि तभी, चूँकि अडोस-पड़ोस का कोई उसकी बात न सुन ले, नेहा ने झट से विक्रम के मुह को अपने हाथ से दबा दिया।
नेहा बोली, अरे पागल हो गये हो क्या, इतनी जोर से क्यों चिल्ला रहे हो ? अगल-बगल वाले सुन रहे होंगे तो क्या सोचेंगे ?
अरे मेरी जान, सोचने दो, जो भी सोचे, हमे क्या ? वे भी तो कभी बाप बने होंगे !
नेहा विक्रम के जज्बात अच्छे ढंग से समझती थी, अत: चेहरे पर एक गहरी मुस्कान बिखेर, विक्रम के कान पकडते हुए उसे वहां सोफ़े पर बिठा वह बोली, जानू कुछ तो शरम करो, क्या बच्चो जैसी हरकत करते हो ? अब तुम बच्चे नही रहे, बाप बनने वाले हो।
आज मानो विक्रम की खुशी का ठिकाना न था, सोफे पर तिरछा बैठ, उसने नेहा को भी अपने करीब बिठा दिया था और वह दोनों आने वाले मेहमान को अपने कल्पनाओ के सागर में, तरह-तरह से उसका रूप तराशने मे लग गये थे। दोनों कभी आपस में सोफे की तकिया एक दूसरे पर मारते हुए झगड़ने लगते। विक्रम कहता. मुझे तो बेटी चाहिए,
और नेहा कहती, नही मुझे बेटा चाहिए।
फिर शांत करने के लिए विक्रम मजाक पर उतर आता कि अच्छा ये बता, तुझे पता चला कैसे ?
नेहा शर्माने का सा नाटक करते हुए बोलती, हटो ! तुम्हे तो हर समय शरारत ही सूझती है, नही बताऊंगी।

विक्रम को जब से नेहा ने यह खुशखबरी दी, वह नेहा का खास तौर पर ध्यान रखने लगा था। वह उसकी हर ख्वाइस पूरी करता और कोशिश करता कि वह कभी भी तनाव में न आए और हमेशा खुश रहे। शुरू के महीनो में जब भी किसी खास दिन पर अथवा त्योहारों के वक्त, दो या इससे अधिक दिन की इक्कठा छुट्टीयां आती, वह नेहा को लेकर शहर से बाहर घूमने निकल पड़ता था। पिछले तीन-चार महिनों मे शहर के नजदीक के पर्यटन स्थलो मे से कोई ऐसी जगह बाकी नही बची रह गई थी, जहां वे दोनो घूम न आये हो। शादी के करीब पौने दो साल बाद अब नन्हा मेहमान घर आने वाला था, घर पर भी इसके लिये सारी तैयारियां कर ली गई थी। और फिर वह पल भी आ गया जब विक्रम और नेहा की पहली संतान ने जन्म लिया।

कुछ रोज बाद अस्पताल से छुट्टी मिलने के उपरांत ग्यारहवें दिन बड़ी धूमधाम से नन्हे मेहमान का स्वागत हुआ और नामकरण समारोह संपन्न हुआ। गाँव से भी विक्रम और नेहा का पूरा परिवार इस जश्न में शामिल होने आया था, अत: चंद दिनो तक घर मे खूब चहल-पहल और व्यस्तता का माहौल रहा। उनके चले जाने के पश्चात, अब धीरे-धीरे माहौल सामान्य हो गया था, विक्रम भी लगातार नोट कर रहा था कि उसकी जिंदगी में अचानक बहुत से बदलाव आने लगे थे। बेटे के मोह-प्यार में वह शाम को ऑफिस से भी जल्दी घर पहुचने की पुरजोर कोशिश करता रहता था। शादी के इन दो-ढाई सालो में उसने जिंदगी के वो खुशहाल पल व्यतीत किए थे, जो उसने शायद ही पिछ्ले ३० साल के अपने जीवन में पहले कभी महसूस किए होंगे। विक्रम और नेहा ने अपने बेटे का नाम तरुण रखा था,मगर प्यार से नेहा और विक्रम उसे तेजा बुलाते थे। तेजा काफी तीक्ष्ण बुद्दि का बच्चा था। दो साल की उम्र मे ही वह माता-पिता से ऐंसे ऐंसे सवाल करने लगता था कि कभी-कभार दोनों उसकी अबूझ पहेलियां सुनकर चकरा जाते थे। कुदरतन वह बहुत बातूनी था और नेहा तथा विक्रम आपस मे इसी बात पर उलझे रहते कि यार, आखिर यह गया किस पर है , मम्मी पर अथवा पापा पर ? वह पापा को अगर थोड़ा भी ध्यान मग्न पाता तो झट से कहता, पापा आपको एक जोक् सुनाऊ "एक गंजा था और..और न, उसकी कंघी गुम हो गई".. फिर खुद ही खिल-खिलाकर हस पड्ता और नेहा और विक्रम भी मुस्कुराये वगैर नही रह ते, पता नही मुहल्ले के किस बच्चे से उसने यह जोक् सुना था।
एक बार नेहा और विक्रम रविवार के दिन घर पर शादी की एल्बम देख रहे थे तो तस्बीरो मे ख़ुद को न पाकर, तेजा ने मम्मी से पूछा, इसमे मेरी फोटो क्यो नही है?
नेहा ने कहा, हम तुम्हे शादी मे नही ले गए थे।
तेजा ने फिर पूछा, मुझे क्यो नही ले गए थे?
नेहा ने कहा, तेरे पापा ने मना किया था।
बस, फिर क्या था, तेजा ने इतना सुना कि विक्रम की खैर नही थी, वह विक्रम की पीठ पर जा चढा और लगा हाथ पैर मारने कि मुझे क्यो नही ले गये थे, आपने क्यो मना किया था? विक्रम ने फिर किसी तरह, सॉरी बोल, उसे चाकलेट देकर शांत करवाया था।

करते-करते सितम्बर १९९९ आ गया था, इधर नौकरी के मोर्चे पर पिछ्ले कुछ महिनो से हालात कुल मिलाकर अच्छे नही थे, पाकिस्तान के साथ तनातनी और कारगिल युद्ध के चलते, ढांचागत व्यापार बुरी तरह से प्रभावित होने की वजह से, उसकी कंपनी के पास देश के अन्दर ज्यादा आर्डर हाथ मे नही रह गए थे, अतः उन दिनों कम्पनी देश से बाहर, मध्य और दक्षिण पश्चिम अफ्रीका और यूरोप में चल रहे अपने प्रोजक्टो पर ही ज्यादा निर्भर थी। विक्रम को भी समय-समय पर अल्पावधि के लिए इन प्रोजेक्टों की देखभाल और निरीक्षण के लिए देश से बाहर जाना पड़ता था। हालांकि सब कुछ ठीकठाक ही चल रहा था किन्तु बार-बार बाहर भ्रमण की वजह से मानसिक तनाव बना रहता था। और फिर अचानक एक दिन कंपनी के विदेश स्थित मुख्यालय से विक्रम को फिर से एक ढांचागत प्रोजेक्ट के तहत नाइजीरिया और अबिड्जन, आइवरी कोस्ट की दो साईटों का निरीक्षण करने के लिए एक महीने के लंबे टूर पर जाने का फरमान आया। वैसे तो वह जब चार-पाँच दिनों के लिए बाहर जाता था तो नेहा अपने फ्लैट पर ही रहती थी, मगर इस बार चूँकि टूर लंबा था, अतः परिवार की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उसने नेहा और बच्चे को गाँव मे माता-पिता के पास छोड़ना ही उचित समझा।

नेहा, हालांकि इस फैसले और विक्रम के इतने लम्बी अवधि के टूर पर जाने से मन ही मन दुखी थी, मगर कोई और चारा भी नही था। विक्रम ने नेहा और बेटे को गाँव छोडा और टूर के लिए निकल पड़ा। जाने क्यो इस बार का उसका टूर पर जाना, नेहा को कुछ आशंकित सा कर रहा था, उसका मन कुछ विचलित सा हो रहा था। पहाडी बस स्टेशन से विक्रम के विदा होते वक्त, नेहा के आंसू छलक आये थे, विक्रम ने उसे सँभालते हुए कहा , पगली उदास क्यो होती है, मै कोई युद्ध के मैदान मे थोड़े ही जा रहा हूँ , एक महीने की ही तो बात है, बस यूँ ही महिना गुजर जाएगा फुर्र से, तू चिंता मत कर, मै पत्र से तुम्हे अपनी कुशलता के बारे मे बताता रहुंगा, तुम अपना और तेजा का ध्यान रखना। और फिर बेटे के गालो को चूमने के बाद वह निकल पड़ा। दिल्ली पहुँच, पहले से तय कार्यक्रम और हवाई आरक्षण के मुताविक वह पहले सीधे अबिड्जन कॉस्ट पहुँचा। करीब एक हफ्ता वहा पर सभी आवश्यक कार्यो को निपटाकर उसने नाइजीरिया स्थित अपनी दूसरी साईट पर जाने के लिए केन्या एयरवेज़ से आगे की बुकिंग करवाई।

जब से वह नेहा को गाँव छोड़ आबिड्जन आया था, तब से एक तरह से उनका संपर्क बिल्कुल कटा हुआ था। जिसके चलते वह कुछ दिनों से उदास रहने लगा था, बेटे की याद आती थी। साईट पर मौजूद एक अन्य साथी ने उसकी उदासी भापते हुए पुछा भी था कि क्या भाभीजी की याद आ रही है जो उदास नज़र आ रहे हो ? विक्रम ने बताया कि जब से वह आया है उसकी नेहा से बात नही हुई है और नेहा इस वक्त जहाँ रह रही है वहा मोबाइल तो दूर लैंड लाइन फ़ोन भी नही है। काम ख़त्म करने के बाद ३० जनवरी, 2000 को उसने आगे के सफर के लिए विमान पकड़ा। वहा के समयानुसार शाम के ६ बजे केन्या एयरवेज के ए-३१० विमान ने आबिड्जन से लागोस के लिए उडान भरी। विक्रम को विमान के पिछले हिस्से में एकदम पीछे से आगे की तरफ, तीसरी पंक्ति में दांयी तरफ वाली खिड़की के पास की सीट मिली थी। विमान ने अभी मुश्किल से दस मिनट की ही उडान भरी होगी, और निर्धारित शुरुआती प्रक्रियाये पूरी करने के बाद, चालक कक्ष से घोषणा में अभी यात्रियों को अपनी सीट वेल्ट खोलने का निर्देश ही हुआ था, तथा केबिन क्रू यात्रियों को देने के लिए पानी की ट्राली ही निकाल रहा था, कि अचानक विमान के मध्य भाग में एक जोर का धमाका हुआ और इससे पहले कि कोई कुछ भी समझ पाता, पल भर में विमान के अन्दर बैठा १६० से भी अधिक यात्रियों का वह कुनवा, विमान के कर्मचारियों के साथ हवा में कहाँ विखर गया, कुछ पता नही चल पाया ।विमान के टुकडो में विभाजित होने के पश्चात अंधेरे में क्या चीज़ कहा बिखरी, जमीन पर से या फिर आसमान में उड़ रहा कोई और विमान भी नही देख सकता था।

इस हादसे के कुछ देर बाद, सर्वप्रथम बीबीसी ने इस ख़बर को प्रसारित किया और उसके बाद तो यह सभी संचार माध्यमो की ब्रेकिंग न्यूज़ बन गई कि १६९ यात्रियों तथा विमान कर्मचारियों से भरा केन्या का एक विमान जो अबिड्जन से लागोस की उडान पर था, दुर्घटनाग्रस्त होकर घाना के दक्षिण में कही एटलांटिक महासागर में गिर गया है, और विमान में सवार सभी यात्रियों के मारे जाने की आशंका है। दूसरे दिन सुबह से ही इस दुर्घटना की पल पल की जानकारी टीवी चैनलों पर आ रही थी। विमान का कुछ मलवा उस क्षेत्र के आस-पास समुद्र से गुजरने वाले जहाजो ने देखा तो इसकी जानकारी बचाव दल को दी गई। बचाव दल ने मलवा इकठ्ठा किया मगर कोई इंसानी लाश अथवा जिन्दा व्यक्ति वहाँ से नही मिला था। अतः यही निष्कर्ष निकाला गया कि विमान दुर्घटनाग्रस्त होकर समुद्र में गिर गया और विमान में सवार लोगो में से कोई भी नही बचा। जैसे ही रेडियो और टीवी पर नेहा ने यह ख़बर सुनी, उसकी अंतरात्मा ने भी उसे किसी अनहोनी की आशंका से विचलित कर दिया था। उसने इस विमान दुर्घटना के बारे में घर के सभी सदस्यों को भी बताया और विक्रम के पिता से पास के कसबे में जाकर, विक्रम के अबिड्जन स्थित कार्यालय को फ़ोन कर उसकी कुशल क्षेम पूछने का आग्रह किया। विक्रम के पिता ने भी बिना देर किए वैसा ही किया, लेकिन जब वे शाम को लौटे तो उनके चेहरे से उदासी और भय साफ़ झलक रहा था। उन्होंने किसी से कुछ नही कहा, बस इतना बताया कि विक्रम के ऑफिस का फ़ोन नही लग सका जिससे किसी से बात नही हो पायी। कुछ दिनों बाद आधिकारिक तौर पर केनिया एयरवेज की तरफ़ से और जिस कंपनी में विक्रम काम करता था, उनकी तरफ़ से इस बात की पुष्टि कर दी गई थी कि विक्रम की उसी विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई है। कंपनी की तरफ़ से १० लाख का मुआवजे का एक चेक भी नेहा को दिया गया था। विक्रम के घर पर मानो सब कुछ थम गया था, नेहा पर तो मानो वज्रपात सा हो गया था वह कभी अपने बेटे को देखती और कभी दीवार पर टंगी विक्रम की कॉलेज के दिनों की फोटो को, जब से यह ख़बर आई थी उसका रो-रोकर बुरा हाल था। मगर अब कोई कर भी क्या सकता था ,एक खुशहाल परिवार इस तरह क्षणभर में छिन्न-भिन्न हो जाएगा, किसी को उम्मीद न थी।

मगर यह भी सत्य है कि इस रहस्यमयी दुनिया में कभी-कभी ऐसे चमत्कार भी हो जाते है जिनकी कोई कल्पना भी नही कर सकता है। और एक वो कहावत है 'जाको राखे साइयां, मार सके न कोई' ! वक्त-वेवक्त यह कहावत भी चरितार्थ हो ही जाती है। उधर ठीक एक ऐंसा ही चमत्कार हो गया था, घाना के दक्षिणी भाग के तटीय शहर अक्सिम से करीब ५० मील पश्चिम में स्थित समुद्र तट के पास के पहाडी घने जंगल में । हुआ यूँ कि जब विमान में विस्फोट हुआ तो वह अनेक टुकडो में विभाजित होने के बाद इधर-उधर मलवे के ढेर में तब्दील हो गया था , लेकिन विस्फोट के बाद ऊपर आकाश से जहाँ विमान का अगला हिस्सा अटलांटिक महासागर में गिरा, तो पिछला हिस्सा घाना के दक्षिणी भाग में तटीय प्रदेश में स्थित घने जंगलो में जाकर गिरा था। पिछला जो बड़ा हिस्सा था वह विमान से इंधन के टैंक और जहाज के पंखो के पीछे से अगले हिस्से से अलग हुआ था। अलग होने के बाद, चूँकि पिछले हिस्से के अन्तिम छोर पर विमान की उठी हुई नोकिली पुँछ थी ओर साथ ही विमान के अन्दर भी अन्तिम छोर पर पेंट्री का सामान था, यानि कि लोड पीछे की तरफ़ ज्यादा था, अतः वह जब नीचे की ओर तेजी से गिरने लगा तो जमीन पर वह इस तरह गिरा कि पिछला भाग जमीन से टकराने के बाद मिटटी में धंस गया और ऊपरी हिस्सा दो बड़े दरख्तों के बीच अटक गया था। यह भी एक संयोग ही था कि यह पिछला हिस्सा विमान से जिस जगह से अलग हुआ था, इंधन के टैंक उससे आगे के ही हिस्से में रह गए थे ओर उसके पीछे की तरफ़ कोई भी ऐंसी ज्वलनशील वस्तु नही रह गई थी कि वह ज़मीन से टकराने के बाबजूद भी उसमे आग लग सके। जब यह दुर्घटना हुई तो शाम का वक्त था, अतः पूरा इलाका जल्दी ही घुप अंधेरे के आगोश में सिमट गया था।

करीब बारह घंटे की एक असीम निद्रा या यु कहें कि मृत्यु लोक की सैर करने के बाद, विक्रम को जब होश आया तो उसके अगल-बगल घुप अँधेरा था, प्यास से गला सूखे जा रहा था, शरीर पसीने से तर था क्योंकि तटीय इलाका होने की वजह से वहां पर ह्युमीडिटी बहुत ज्यादा थी। वह जब थोड़ा और चेतन में आया तो उसने अंधेरे में ही महसूस किया कि उसके ऊपर किसी ओर इंसान का हाथ और शरीर का कुछ हिस्सा टिका पड़ा है। थोड़ा सा चेतन में आने ओर अपने में सहजता लाने के बाद उसने अंधेरे में फिर हाथ से इधर-उधर टटोल कर उस जगह का अंदाजा लगाने की कोशिश की तो उसे महसूस हुआ कि वह कोई स्त्री का शरीर है जो उसके ऊपर गिरा पड़ा है। उसे धीरे-धीरे वह सारा मंजर याद आने लगा जब वह सीट बेल्ट खोलकर , रिलैक्स होकर अपनी सीट को थोड़ा पीछे की तरफ झुका रहा था ओर उसकी आगे वाली सीट के पिछले भाग में लगे विडियो स्क्रीन पर गेम खेलने की तैयारी कर रहा था कि तभी उसे जोर का एक धमाका सुनाई दिया था, ओर फिर.......!

वह सोचने लगा कि इस समय वह कहाँ हो सकता है ? यह कोई हॉस्पिटल का कमरा तो नही लगता, कोई आबादी वाला क्षेत्र भी नही लगता, क्योंकि आस-पास मौत का सा सन्नाटा छाया हुआ है, कोई हवा भी नही चल रही है, तो ये कौन सी जगह हो सकती है ? क्या पूरा का पूरा विमान जमीन पर ज्यो का त्यों आ गिरा ? एक इंजिनियर होने के नाते उसका मन यह भी सहज स्वीकार करने को तैयार न था। उसके मन में एक अनजाना सा डर भी बैठा हुआ था कि अगर वह कही जंगल में आ गिरा है तो जंगली जानवर, कभी भी आकर उस पर झपट सकते है, वह भूत-पिचाशो वाली मिथ्या से नही डरता था मगर जंगली जानवरों से उसको बहुत डर लगता था। एक बार फिर से साहस कर उसने अपना हाथ ले जाकर उस अनजान स्त्री की छाती पर रखा, यह जानने के लिए कि क्या वह जिन्दा है? तो उसे उस परिस्थिति में भी दिल को थोड़ा बहुत शकुन सा मिला कि उस स्त्री की धड़कने चल रही थी। विक्रम ने अंधेरे में ही आस-पास की स्थिति का जायजा लेने के लिए फिर हाथो को इधर उधर मारा, तो उसके हाथ एक पानी की बोतल लग गई। उसने लेटे- लेटे हाथ बोत्तल के ढक्कन पर किया ओर ढक्कन खोलकर उसे सूंघने की चेष्टा की, कोई किसी प्रकार की गंध न थी, जबकि बोतल भरी हुई थी ओर ढक्कन खोलते वक्त कुछ पानी छलककर उसकी छाती पर भी गिर गया था और जिससे उसको बड़ा शुकून मिला था।उसे यकीन हो गया कि यह पानी ही है। अब उसने अपना दिमाग चलाना शुरु किया कि यहाँ पर यह पानी की बोतलें कैसे हो सकती है या तो यह उस स्त्री की है जिसका शरीर उसके ऊपर गिरा पड़ा है या फिर यह विमान के अन्दर की ही सामग्री हो सकती है, जिसे केबिन क्रू यात्रियों को सर्व करने ले जा रहा था और विस्फोट के बाद वहीं विखर गया था। प्यास से तड़फते विक्रम ने पानी की बोतल अपने हलक में उतार दी ।

घुप्प अंधरे के बावजूद विक्रम ने अपने शरीर को हिलाया और उठने की कोशिश की, मगर उठ नही पाया उसे लगा मानो उसके कमर से नीचे का हिस्सा सुन्न हो गया है। पानी पीने से थोडी राहत ज़रूर मिली थी, मगर चूँकि वह इलाका एक तटीय और सम-शितोषण उष्ण कटिवन्धीय क्षेत्र होने की वजह से वह फिर पसीने से तर होने लगा था। कान लगा कर आस-पास की गतिविधियों को भी भापने की उसने बहुत कोशश की मगर सब कुछ शांत था, किसी भी तरह की कोई हलचल अथवा किसी पशु पक्षी के स्वर भी नही सुनाई पड़ रहे थे, मानो पूरा इलाका ही बेहोशी में पड़ा हो। उसने कुछ और समय तक यूँ ही लेटे रहना मुनासिब समझा, साथ ही वह उस स्त्री के अगल बगल की पोजीशन जानने के लिए जमीन पर हाथ से टटोल भी रहा था कि अगर कोई ढलान वाली जगह हुई और अगर वह उसके शरीर को अपने शरीर से अगल करने के लिए दूसरी तरफ पलटता है तो कही वह लुड़क कर ढलान में न गिर पड़े। विक्रम उसी स्थिति में अगले पल का इंतज़ार करने लगा। कुछ और समय बीतने के पश्चात उसे महसूस हुआ कि कुछ रौशनी सी होने लगी है, और आस-पास की जगह स्थिति कुछ धुंधली सी नज़र भी आने लगी है। उसने अंदाज़ लगाया कि शायद सबेरा होने लगा है, और विमान का वह खुला भाग जो अगले हिस्से से अलग होने के बाद दो पेडो के सहारे ऊपर की ओर था उस आसमान की ओर खुले हुए हिस्से से एवं खिड़कियों के शीशो से धीरे-धीरे रोशनी अन्दर आने लगी थी। और पक्षियों के चहचहाने की आवाजे भी सुनाई देने लगी थी। वह समझ गया कि वे लोग विमान के अन्दर ही किसी भाग में फंसे हुए है।

कुछ पल और गुजरने के बाद अब भोर अपने पूरे शबाब पर थी, और जिस जगह विक्रम था उसके आस पास का नजारा साफ़ नज़र आने लगा था। हालांकि उसका पूरा शरीर बुरी तरह दर्द कर रहा था, फिर भी विक्रम ने अपनी गर्दन को थोड़ा सा ऊपर उठाया ताकि भली भांति अपने आस-पास की स्थिति को ठीक से भांप सके। उसने देखा कि उसकी टांगो और आधे सीने पर जो स्त्री औंधे मुह गिरी पडी थी, वह तकरीबन १७-१८ साल की एक भूरे बालो वाली गोरी युवती थी। हालांकि वह जिन्दा थी और उसकी साँसे चल रही थी फिर भी वह अचेत थी। जिस जगह पर वो गिरे पड़े थे वह विमान के पिछले गेट के पास वाली जगह थी। उसने देखा कि कुछ दूरी पर एक और युवक, जो कि पह्नावे से विमान का कर्मचारी नज़र आ रहा था, विमान के पिछले दरवाजे और पेंट्री वाली जगह के बीच, पानी की बोतलों और खाने पीने के सामान और ट्राली के मध्य़ दबा और फंसा पड़ा था, और उसके शरीर पर कोई हलचल नही थी। युवती के सिर के बीच में चोट लगी हुई थी और काफी खून बह निकला था। विक्रम की छाती और पेट पर भी उसके सिर का खून बुरी तरह से फैला हुआ था, उसकी कमीज खून से लथपथ थी। दर्द से कराहते हुए विक्रम ने अपने शरीर को थोड़ा सा खिसकाया और युवती को अपने से अलग किया। ज्यो ही उसने युवती को एक तरफ हटाया उसके शरीर के निचले भाग में झनझनाहट शुरु हो गई। उसने देखा कि उसकी टांगो का निचला हिस्सा अभी भी पास में पलटी हुई ट्राली के एक हिस्से से दबा पडा है, वह समझ गया कि उसके शरीर के निचले हिस्से में रक्त संचार बंद होने की असली वजह यह पलटी हुई ट्रोली का भार ही है। काफी मशक्कत करने के बाद विक्रम अपने पैरो को ट्राली से अलग कर पाया था। कुछ क्षण बाद जब शरीर के उस हिस्से में रक्त संचार शुरू हो गया और झनझनाहट बंद हुई, वह थोडी हिम्मत कर पैरो को घुमाते हुए ऊपर की तरफ़ मोड़ने में सक्षम हो गया और फिर विमान की दिवार पर पीठ के बल बैठ गया। गर्दन को पीछे कर सिर को दीवार पर टिकाते हुए और पैरो को आगे की तरफ़ सीधा कर वह सुस्ताने और शरीर में उर्जा पैदा करने की कोशिश करने लगा। उसने पास में पड़ी एक और पानी की बोतल उठाई और पी गया। अब उसे महसूस होने लगा था कि उसके शरीर में उर्जा संचार करने लगी है। चिंता और थकान उसके चेहरे से साफ़ झलक रही थी, उसने हाथ जोड़ और गर्दन को और पीछे को मोड़ते हुए ऊपर देखकर अपने इष्ट देव को याद किया।

करीब आधा घंटा गुजर जाने के बाद उसने महसूस किया कि अब वह थोड़ा हिल-डुल सकने में सक्षम था, अतः कुछ देर तक गौर से उस अचेत पड़ी युवती को निहारने के बाद उसने पास ही पड़ी एक पानी की बोतल उठाई और उस युवती के चेहरे पर पानी के छींटे मारे। पानी के छींटे चेहरे पर गिरते ही युवती के शरीर में हलचल हुई और वह अपना मुह खोल जीभ से उन पानी के छीटों को चाटने लगी। विक्रम ने तुंरत हाथ में पकड़ी बोतल का मुह उसके मुह पर लगा दिया और धीरे-धीरे उसके मुह में पानी डालने लगा। युवती ने धीरे से अपनी आँखे खोली और विक्रम को देखा। उसकी आँखों में भय साफ़ छलक रहा था, वह एकदम उठना चाहती थी मगर किसी शारीरिक दर्द की वजह से उट ना सकी, फिर उसने अपनी गर्दन जमीन पर टिका दी, और ’ओह गोड’ की एक हल्की कराह छोड़ी। विक्रम ने बैठे-बैठे अपने को थोड़ा युवती की तरफ़ खिसकाकर, उसके शरीर को सहारा दिया और उसका सिर अपनी जांघ पर रख दिया । कुछ देर यु ही रह्ने के बाद फिर धीरे-धीरे उसे कमर तक सीधा कर, विमान के दरवाजे के सहारे उसे पीठ के बल बिठा दिया। युवती कुछ बडबडा रही थी मगर क्या कहना चाहती थी , शब्द पकड़ में नही आ रहे थे । विक्रम ने फिर पानी की बोतल उठाई और उसी के कुर्ते के पल्लू को गीला कर, उसके मुह पर बिखरे और सूख चुके खून के धब्बो को साफ़ किया। जिस इत्मिनान से विक्रम उसके चेहरे से खून के धब्बे साफ़ कर रहा था, वह देख उस युवती की आँखे छलक आई। उसने डबडबायी आँखों से विक्रम को देखा और फिर हल्का सा मुस्कुराने की कोशिश की।

विक्रम थोडी देर तक उस युवती को निहारता रहा था। इस बुरे पल में, उसके दिल के किसी कोने में अगर उसे थोड़ा ढाढस कोई चीज़ बंधा रही थी, तो वह थी वह युवती, उसे जरा सी यह सांत्वना तो मिली थी कि वहा पर उसके साथ कोई और भी मौजूद है। उसके सिर के मध्य भाग में स्थित घाव तो साफ़ नजर आ रहा था, मगर साथ ही वह यह भी देखने की कोशिश कर रहा था कि उसे और कहाँ-कहाँ चोट लगी है। फिर अचानक उसे पेंट्री के पास दबे पड़े उस युवक का ख़याल आया, वह अपने एक घुटने को उठा फर्श पर पैर रखते हुए घिसट कर उसकी ओर बढ़ा। विक्रम ने पहले उस युवक के ऊपर गिरे सामान को अगल किया फिर आधा झुककर उसके ऊपर गिरी ट्रोली को दूसरी तरफ़ पलटा, और फिर झुकते हुए उसके पास गया। उसने उसके हाथ की नब्ज़ को अपनी हथेली में लिया, मगर उसकी नब्ज़ बंद हो चुकी थी। विक्रम ने झुकते हुए अपना कान उसकी छाती पर लगाया मगर अन्दर कोई हलचल नही थी, उसकी दिल की धड़कने बंद हो चुकी थी। विक्रम के मुह से निकला पड़ा ’ओह माई गोड़’ ! उस युवती ने एक भयभीत नज़र से विक्रम की ओर मुड़कर देखा। विक्रम ने उसकी तरफ़ देखकर अंग्रेजी में कहा " ही इज डेड " , वह मर चुका है, यह सुनते ही उस युवती ने एक लम्बी साँस छोड़ी और अपने सीने के दोनों तरफ़ और माथे पर अपनी दांये हाथ की ऊँगली से छुआ। फिर ना जाने विक्रम को क्या सूझी और उसने एक और पानी की बोतल खोल कर पूरी बोतल उस युवक के चेहरे और छाती पर उडेल दी, फिर थोडी देर तक उसको देखता रहा और "सिट" कहकर हाथ को हवा में झटककर वापस अपनी जगह पर आ गया था।

विक्रम जब कुछ पल सुस्ता लिया तो उस युवती ने उसकी तरफ़ देखते हुए हाथ से पास पड़ी पानी की बोतल की ओर इशारा करते हुए विक्रम से उसे पानी देने का आग्रह किया। विक्रम ने उसे पानी की बोतल थमा दी। पानी पीने के बाद वह अचानक सिसकने लगी। विक्रम ने उसकी भावनाओं को समझते हुए और इस विपदा की घड़ी में उसके अन्दर उमड़ रहे भय के तूफ़ान को समझते हुए, उसके पास पहुँच कर उसके कंधे पर हाथ रख उसे सांत्वना दी और धैर्य रखने को कहा। जब वह थोड़ा सामान्य हुई तो उसे विक्रम अपना परिचय देने लगा, उसने कहा मैं एक भारतीय हूँ, पेशे से सिविल इंजीनियर हूँ, और एक कैनैडियन मल्टीनेशनल कम्पनी के नई दिल्ली स्थित कार्यालय में बतौर असिस्टेंट जनरल मैनेजर-प्रोजेक्ट्स के पद पर कार्यरत हूँ । यहाँ आइवरी कॉस्ट में चल रहे एक प्रोजेक्ट का निरीक्षण करने आया था और अब नाईजीरिया स्थित दूसरे प्रोजेक्ट के निरीक्षण के लिए जा रहा था कि........आपका....? विक्रम ने अपने दाये हाथ की उगली युवति की ओर करते हुए उससे उसका परिचय पूछा। युवती ने थोडी देर शांत रहने के बाद बताया, मेरा नाम केसिना आन्द्र्पोब है, वैसे तो मैं मास्को की रहने वाली हूँ, मगर मेरे पिता एक व्यवसायी है और उनका मास्को और लन्दन, दोनो जगहो में अपना कारोबार है, पिता ने लन्दन स्थित कार्यालय जबकि कर्मचारियों ने मास्को स्थित व्यापार सम्भाल रखा है । इसलिए मैं भी लन्दन में ही पढ़ती हूँ और पिता के साथ यहाँ के कारोबार में हाथ बंटाती हूँ । फिर थोड़ा रूककर एक गहरी साँस लेते हुए उसने कहा, अवकाश में भ्रमण के लिए अबिड्जन होते हुए लागोस जा रही थी....! उसने फिर छलछला आई आँखों से विक्रम की आँखों में देखा। विक्रम ने अपना हाथ उसके सिर पर हलके से रखा और उसके सिर की चोट का ध्यान आते ही उसने केसिना को पूछा कि बहुत ज्यादा अन्कम्फोरटेबल तो नही महसूस कर रही हो, दर्द कितना हो रहा है? केसिना ने सुबकते हुए हाथ से ना में इशारा किया।

करते-करते काफ़ी दिन चढ़ चुका था, सूरज विमान के ऊपरी खुले हिस्से से अन्दर झाँकने लगा था। विक्रम ने विमान के उस हिस्से के फर्श पर बैठे-बैठे ऊपर की तरफ़ एक नजर दौडाई और फिर हिम्मत करके सीधा खड़ा हो गया। उसने मिटटी के ढेर में धंसे विमान के पिछले दरवाजे को खोलने की कोशिश की, मगर शायद बाहर की तरफ़ मिटटी का ढेर काफ़ी बड़ा था, इसलिए नही खुला। विपत्ति के इन कठिन पलों में हिम्मत जुटाने और शरीर में ऊर्जा पैदा करने के लिए, पास में पड़े फास्ट फ़ूड के दो पैकेट उसने उठाये और एक केसिना की तरफ़ बढाया और दूसरा ख़ुद खाने लगा। सिर में गहरी चोट लगने की वजह से केसिना अपना मुह ठीक से नही खोल पा रही थी, इसलिए एकआध सॉफ्ट आइटम लेने के अलावा वह ज्यादा कुछ नही खा पाई। उधर खाली पेट में भोजन पहुँचने के बाद विक्रम अपने को थोड़ा सा सामान्य महसूस करने लगा था। उसने केसिना की तरफ़ देखा जो अभी तक उस पैकेट को हाथ में पकड़े थी, विक्रम ने उसके न खाने का कारण यह समझा कि इस विपरीत परिस्थिति में शायद उसका मन नही, अथवा वह जानबूझ कर नही खाना चाहती। उसने एक सयाने व्यक्ति की तरह उस १७-१८ साल की मासूम को समझाना शुरु किया। देखो केसिना, मैं भी तुम्हारी ही तरह के शारीरिक और मानसिक सदमे से गुजर रहा हूँ, और समझ सकता हूँ कि तुम पर क्या गुजर रही होगी। लेकिन इस कठिनाई की घड़ी में हमें एक दूसरे का साथ देना है, और उसके लिए जरुरी है कि हम जिन्दा रहने की हर सम्भव सफल कोशिश करे, और जिन्दा रहने के लिए जरुरी है कि हम कुछ खांए-पिंए। हो सकता है कि शीघ्र ही कोई हमें बचाने के लिए आ जाए, और तब तक हमें जीवन के लिए संघर्ष करना ही पड़ेगा।केसिना उसके विचारो को समझने का प्रयास कर रही थी और उसकी भावनाओ का आदर करते हुए उसने धीरे से कहा, नही विक्रम, तुम ठीक कह रहे हो मगर मेरा जबडा चोट की वजह से ठीक से खुल नही पा रहा, इसलिए मैं कोई शक्त चीज़ नही खा पा रही हूँ। उसकी बात सुन विक्रम ने कहा, ओह सॉरी ! फिर विक्रम ने हिम्मत जुटा, विमान के उस टुकड़े की ऊपर की तरफ़ खड़ी सीटों को किसी सीढी की तरह प्रयोग किया और उन्हें पकड़-पकड़ कर वह ऊपर की ओर चढ़ने लगा। शरीर में दर्द के वावजूद काफ़ी मशक्कत के बाद वह उस विमान के टुकड़े के ऊपरी सिरे पर पहुँच चुका था। उसने देखा कि ऊपरी हिस्सा दो बड़े दरख्तों के बीच मे फंसा पडा है,दरख्त की ठहनिया उस टुकड़े के ऊपरी सिरे पर लटक रही थी। उन्हें हाथ से एक तरफ़ को करते हुए उसने अपने आस पास की स्थिति का मुआयना किया। चारो ओर नज़र दौडाने पर बस पेडो ओर झाडियों से घिरा एक घना जंगल ही नज़र आता था, इन घने जगलो के बीच, दूर-दूर तक कोई मानव बस्ती होने की कल्पना करना भी एक नादानी ही कही जाती। हां, पास ही करीब डेड-दो सौ मीटर दूर एक छोटी पहाड़ी ढ्लान पर एक छोटी नदी बह रही थी,ओर कल-कल की हलकी ध्वनी उससे निकल कर आ रही थी।

बाहर की एक झलक देखने के बाद विक्रम समझ गया था कि इतने बड़े हादसे में बच निकलने के वावजूद भी, अब जिंदगी इतनी आसान नही रह गई थी। जिस तरह का वह वर्षा वनों वाला उष्णकटीबंदीय घना जंगली क्षेत्र था, उस क्षेत्र में किसी हवाई या ज़मीनी मदद का पहुंचना भी एक दैवीय चमत्कार जैसा ही होता। उसे अचानक ध्यान आया और उसने अपनी पैंट का जेब टटोला, उसका मोबाइल फ़ोन जेब में ही था, और उसने विमान में चड़ते वक्त स्विच आफ करके रखा था । उसने उसे हाथ पर लिया और स्विच आन किया, मगर उसे निराशा ही हाथ लगी, क्योकि मोबाइल कोई भी नेटवर्क पकड़ पाने में असमर्थ रहा था। इतना तो वह अंदाजा लगा ही रहा था कि समुद्र यहाँ से कंही बहुत ज़्यादा दूर तो नही होगा, क्योंकि दुर्घटना से पहले जब विमान ने अपनी निश्चित ऊँचाई पकड़ने के बाद सीध में उड़ना शुरु किया था तो विमान की खिड़की से नीचे एक तरफ़ पूरा फैला अटलांटिक महासागर ही नज़र आ रहा था। मगर, कदम कदम पर मौत थी, वहां तक पहुंचना कोई आसान खेल नही था, एक तो घायल केसिना, ऊपर से हाथ में कोई भी हथियार नही और साथ ही जंगली हिंसंक पशुओं का हर कदम पर सामना। वे लोग तकदीर और कुदरत की करामात के चलते इन घने जंगलो में ऊपर से रात के अंधेरे में सीधे नीचे ड्राप हुए थे, इसलिए निश्चित दिशा का भी उन्हे पता नही था, कि समुद्र अथवा कोई मानव बस्ती किस ओर को हो सकती है ?

विक्रम का दिमाग तेजी से इस घटनाक्रम ओर इसके परिणामो के बारे में सोचने लगा। कुछ रूककर उसने निश्चय किया कि अब जो भी हो, उधार की यह जिंदगी, जितने भी पल हो सके, जीने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए। धैर्य खोकर हालात के रहमोकरम पर ख़ुद को छोड़ देने से वेहतर है, हालात से संघर्ष किया जाए और बजाय एक दर्दनाक कायरतापूर्ण मौत के एक बहादुर की मौत मरे ! उसने ऊपर से खड़े होकर विमान के टुकड़े की तलहटी में झाँका और गौर से उस जगह का निरीक्षण किया, फिर उस इलाके का भी बारिकी से अवलोकन करने लगा कि कहीं आस-पास कोई जंगली जानवर तो नही। उसने एक नजर उन पेड़ की शाखाओं पर भी दौडाई, जिन पर विमान का वह हिस्सा टिका हुआ था। वह देखना चाहता था कि विमान का वह हिस्सा कितनी मजबूती से टिका है और पेड़ और उसकी शाखाओं में कितना दम है, उसे रोके रखने और वजन झेल पाने मे, कही जमीन पर टकराते वक्त और पेड़ से टकराते वक्त पेडो की जड़े तो नही उखड गई?

जब वह पूर्णतया आस्वस्थ हो गया कि वह विमान का टुकडा काफ़ी मजबूती से खड़ा है तो एक बार फिर उन्ही, सीटो को पकड़ कर वह आहिस्ता-आहिस्ता नीचे विमान के उस भाग पर उतरा, जहाँ से चढा था। केसिना उसे टुकुर-टुकुर देखे जा रही थी, उसने केसिना को उसके कंधे से पकड़ कर खड़ा करने की कोशिश की। दर्द के मारे केसिना ने एक हल्की कराह छोड़ी, विक्रम ने उसे जोर देकर कहा कि वह खड़े होने की कोशिश करे, ताकि यह पता लग सके कि उसके शरीर में हड्डियों पर कोई गंभीर चोट तो नही है। वह केसिना के एकदम आगे खड़ा हो गया था और केसिना को सलाह दे रहा था कि वह धीरे-धीरे उसके शरीर का सहारा लेकर, उसे पकड्कर खड़ा होने की कोशिश करे। केसिना ने वैसा ही किया जैसे विक्रम ने उसे निर्देश दिए थे, और वह फिर विक्रम के आगे एकदम सीधी खड़ी थी। विक्रम ने उसे अपने बाए कंधे का सहारा दिए रखा और फिर उसे सारी वस्तु-स्थिति से अवगत कराया। उसने केसिना को जो कुछ ऊपर चढ़कर बाहर का नजारा देखा था, बताया और कहा कि यहाँ हम एक ऐंसी जगह पर फँस चुके है जहाँ किसी मदद के पहुँचने की उम्मीद ना के बराबर है। विक्रम ने केसिना को समझाया कि किसी भी कीमत पर वह अपना धैर्य न खोये। उसने उसे समझाया कि अगर भगवान ने हमें यहाँ तक जिन्दा रखा है तो आगे का कोई न कोई रास्ता भी वही दिखायेगा। फिर उसने केसिना को अपना आगे का प्लान बताते हुए कहा कि तुम यहाँ एक जगह बैठ जाओ और मैं थोड़ा ऊपर जाकर विमान के इस टुकड़े की दूसरी या तीसरी कतार की सीटो की कोई खिड़की तोड़कर वहाँ से नीचे बाहर की तरफ़ उतरने की कोशिश करता हूँ, क्योंकि हमारे पास वक्त बहुत कम है और हमें किसी तरह यह दरवाजा खोलकर इस लाश को भी बाहर निकालना है, अन्यथा गर्मी और उमस के कारण उस पर जल्दी दुर्गन्ध आने लगेगी। हमें बस सब्र से काम लेना है और यह मत सोचो कि तुम अकेली हो मैं तुम्हारे साथ हूँ और जहाँ तक बन पायेगा, हमें ही एक दूसरे का साथ देना है क्योंकि यहाँ हमारी मदद के लिए, सिवाए ऊपर वाले के कोई तीसरा नही है, इसलिए जहां तक सम्भव हो सकेगा, हमें हर कदम फूंक-फूंक कर रखना है। केसिना ने अपना सिर हिलाते हुए, अपनी धीमी आवाज में उसे संभलकर और होश्यारी से यह काम करने का आग्रह किया ।

वह फिर से धीरे-धीरे ऊपर को चढा और ठीक उस सीट पर पहुँच गया, जिस पर वह विमान में सवार होते वक्त बैठा था। विमान में सवार होते समय वह पीछे से आगे की ओर तीसरी, जिन सीटो की कतार में बैठा था, उसने तोडने के लिये उसी सीट की खिड़की के शीशे को चुना, क्योंकि उसके अंदाज़ से वह इस वक्त जमीन से करीब १०-१२ फुट की ऊँचाई पर थी, और उसे इस बात का अहसास था कि अगर वह ज्यादा नीचे वाली खिड़की का शीशा तोड़ता है तो बाहर से जंगली जानवरों के लिए उस रास्ते से अंदर आना आसान हो जाएगा। अतः उसने वह खिड़की चुनी और शीशा तोड़ डाला। लेकिन इतने भर से काम आसान नही होने वाला था, क्योंकि खिड्की इतनी छोटी थी कि वहा से शरीर को रगड्ते हुए निकाल पाना भी सम्भव न था, अत: उसने शीशे के चारों तरफ़ की रबड की पैकिंग भी उखाड डाली। अब इतनी जगह बन चुकी थी कि वह शरीर को मुश्किल से बाहर की ओर झुका सके। फिर एक बार उसने इधर-उधर बाहर का सरसरी तौर पर मुआयना किया और फिर हाथों को सीट के ऊपरी हिस्से मे फंसाते हुए सम्भलकर दोनो पैर एक साथ खिडकी वाली जगह से बाहर निकाल दिये और कूदकर बाहर निकल गया। एक सजग प्रहरी की तरह उसने अपने आस-पास का आंकलन किया, क्योंकि उस घने जंगल में कौन सा जंगली जानवर घात लगाये बैठा हो, कोई नही जान सकता था, वह यही देख रहा था कि कोई जानवर नजदीक तो नही कि तभी अचानक उसकी नज़र झाडियों में पड़ी एक लाश पर गई। हल्की सी सिहरन उसके शरीर में दौड़ गई, वह सतर्क रहते हुए जब लाश के पास पहुँचा तो देखा कि उससे कुछ और दूरी पर ४-५ लाशे और बिखरी पड़ी है ! उसे समझते देर न लगी कि ये सभी बदनसीब, विमान के उस हिस्से पर सफर कर रहे थे जो वहाँ गिरा था। साथ ही इस बात से उसने यह भी अंदाजा लगा लिया कि फिलहाल आस-पास कोई हिंसक किस्म का जानवर नही होगा, क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह जो लाशे वहां बिखरी पड़ी थी, ये अभी तक उन्होंने नोच ली होती। उसने सोचा, जानवरों के आसपास न होने का एक और मुख्य कारण यह भी हो सकता है कि विमान का यह हिस्सा जब जमीन पर गिरा होगा तो जमीन से टकराते वक्त एक जोर की आवाज़ निकली होगी और इसलिए आस-पास स्थित सभी जानवर दूर भाग खड़े हुए होंगे। फिर भी उसे सजग रहना होगा क्योंकि यह जंगल है और जंगल में कब कौन जानवर कहा विचरण करे, इसका अंदाजा कोई नही लगा सकता। अतः उसने अपने इधर-उधर देखकर एक मजबूत लकड़ी का डंडा ढूंडना शुरु किया ताकि यदि कोई जानवर अचानक उसपर हमला कर भी दे तो वह कुछ हद तक अपना बचाव कर सके। पास ही एक बाँस का झुरमुट था. उसने उसमे से एक सूखी बाँस के डंडे को उठाया और एक बड़े पत्थर से उसके दो टुकड़े कर एक मजबूत लट्ठ अपने पास रख लिया।

इसके बाद उसने बिना समय गवाए, जो उस वक्त की सबसे महत्वपूर्ण जरुरत थी, पिछले हिस्से का दरवाजा खोलना और जो मिटटी में धंसा हुआ था, उसकी तरफ़ अपने कदम बढाये। पास पहुच, उसने उस बाँस के डंडे से दरवाजे के आस-पास की मिटटी को खोदना और फिर अपने हाथो के सहारे ही तेजी से मिटटी को हटाना शुरु किया। क्योंकि विमान के उस दरवाजे ने बाहर की तरफ़ खुलना था, इसलिए उसने उसी आकार में मिटटी को हटाया ताकि दरवाजा खुल सके। और करीब आधा घंटे की कड़ी मेहनत के बाद दरवाजा खोलने में सक्षम हुआ।

दरवाजा खुलते ही एक हलकी सी हवा की फुहार अन्दर गई तो पसीने से तर केसिना को बड़ी राहत मिली। उसने ऊपर की ओर देख, ’थैंक गौड़’ कहा ! एक लम्बी साँस लेने के बाद बाहर आने को आतुर केसिना ने अपने दोनों हाथ खड़े कर विक्रम को उसे उठाकर खड़ा करने का आग्रह किया। विक्रम ने उसे अपनी बांहों का सहारा देकर खड़ा किया और जब वह खुली हवा में बाहर निकली तो उसने अपने हाथो और पैरो को खूब हिलाया-डुलाया। उसने महसूस किया कि सिर्फ़ सिर और थोड़ा सा बदन का ऊपरी हिस्सा ही जख्मी था, अन्यथा उसके हाथ-पैर सही सलामत थे। विक्रम ने उसे दरवाजे के पास ही एक तरफ़ खड़ा करके अन्दर पड़ी लाश को खींचकर बाहर निकाला और फिर घसीटते हुए उसे भी उसी जगह पर ले गया, जहाँ पर ५-६ लाशें पहले से पड़ी थी। फिर बारी-बारी से सभी लाशो को उसने वहाँ से थोडी और दूर ले जाकर एक गहराई वाली उबड़-खाबड़ जगह पर एकत्रित किया और फिर उन्हें पास पड़े पत्थरो और मिटटी से ढक दिया, क्योंकि उसे डर था कि जंगली जानवर अगर इंसान का खून चख लेंगे तो फिर उन पर भी आक्रमण कर सकते है। उसने मन ही मन यह तय कर लिया था, और साथ ही इससे सुरक्षित जगह उस घने सुनसान जंगल के इलाके में और शायद कोई हो भी नही सकती थी, इसलिए उसने जबतक और जहाँ तक सम्भव हो, विमान के उसी हिस्से को एक अस्थायी बसेरे के तौर पर प्रयोग में लाने का निश्चय किया। लाशो को दफनाने के बाद वह विमान के उस भाग में वापस लौटा और केसिना, जोकि उसे ही एकटक देखे जा रही थी, उसके सिर पर हल्का हाथ फेरने के बाद वह अन्दर घुसा और जिस जगह पर पैंट्री का सामान बिखरा पड़ा था, उसे तरतीब से सँभालने और उसके आसपास की सफाई करने लगा। कुछ ही देर में वह जगह दो लोगो के लिए आराम से बैठने और लेटने लायक जगह बन गई थी।

विक्रम यह भली भांति समझ चुका था कि अगर उन्हें जिन्दा रहना है तो आगे चलकर उनको ख़ुद से, हालत से, और उस भयानक जंगल की त्रासदियों से एक लम्बी जंग लड़नी है, अतः इसके लिए उन्हें वह हर सम्भव हथियार जुटाने होंगे,जो वहा मौजूद हो सकते है और जिनकी इस जंग में जरुरत पड़ेगी। उस जगह को रहने लायक बनाने के बाद उसने विमान के उस टुकड़े की सीटो से गद्दिया उतारी और उन्हें पेंट्री और पिछले दरवाजे के बीच में बिछा दिया। फिर बाहर खड़ी केसिना को सहारा देकर अन्दर लाया और उसे आराम से वहाँ बिछी गद्दियों के बिस्तर पर बैठ जाने को कहा। उसे ध्यान था कि केसिना के सिर की चोट गहरी है इसलिए उसका तुंरत उपचार न हुआ तो समस्या बढ़ सकती है। उसे विमान की खिड़की तोड़ते वक्त ही ध्यान आ गया था कि उसका हैण्ड बैग ओवरहेड लॉकर में सही सलामत होगा। केसिना की चोट की ओर ध्यान जाते ही उसे पुनः बैग का ख़याल आया क्योंकि उसमे उसका फर्स्ट एड बॉक्स भी पड़ा था जिसे वह टूर के दौरान हमेशा अपने साथ रखता था। यह ख़याल दिमाग में आने पर वह उस सीट की ओर लपका, उसने ओवरहेड लॉकर खोला तो अपना बैग वही देख उसके दिल को ऐंसा शकुन सा मिला, मानो वह अपने घरवालो से मिल गया हो। उसकी समझ में नही आ रहा था कि इस क्षणिक सुखद अनुभूति पर वह खुश हो, या फिर रोये। उसने बैग बाहर निकाल कर अपना सामान देखा, कपड़ो के बीच छुपाये सिगरेट की डब्बी और बैग के प्लास्टिक के फोल्ड शुदा हैंडल के अन्दर छुपाये मिनी लाइटर को उसने बाहर निकाला और जल्दी से एक सिगरेट सुलगाई, सिगरेट पीने के बाद उसे बड़ा शकुन मिला। य़ू तो २००१ के ०९/११ के अमेरिका में हुए आतंकी हमलो के बाद से तो सभी देशो में, विमानों में इस तरह की वस्तुए ले जाना ही एक कानूनी अपराध है, और बहुत सख्ती भी है, मगर उससे पहले इतनी सख्ती नही थी। और विक्रम जब भी कहीं टूर पर जाता उस मिनी लाईटर को ले जाना नही भूलता था। और उसके ले जाने के लिए उसने बैग के फोल्डिंग हैंडल को उसकी एक महफूज़ जगह बना रखा था, जो आसानी से एक्सरे मशीन पर नही आता था। फिर केसिना के सिर के घावों का ख़याल आते ही फर्स्ट एड का सामान, डिटोल और सोफ्रामायिसिन एवं बेट्नोवेट-एन ट्यूब, जो उसने बैग की जेब में रखा था, उसको ले वह केसिना की ओर बढा और उसके घावों की मरहम पट्टी की। केसिना बस अपनी कृतज्ञ नजरो से उसे देखती रही, उसे ऐसा सा महसूस हो रहा था कि मानो वह अपने किसी ख़ास दोस्त या रिश्तेदार के साथ वहाँ पर है। घावों की सफाई और मरहम पट्टी करते वक्त पानी के कुछ छींटे केसिना के चेहरे पर पड़े हुए थे, विक्रम ने अपने कमीज के पल्लू से जब उन्हें साफ किया तो केसिना अपने भावों को नही रोक पाई और रोते हुए विक्रम के सीने से लिपट गई।

अधर में लटकी दो त्रिशंकु जिंदगियो के जीने की एक दिनभर की जद्दोजहद अब फिर से घने जंगलो के बीच धीरे-धीरे पसरते शाम के अंधेरे में डूबने लगी थी। अन्दर उजाले के लिए कोई साधन नही था, विक्रम केसिना का हाथ पकड़ उसे थोडी देर के लिए बाहर फ्रेश होने के लिए ले गया, और फिर लाईटर से विमान के उस टुकड़े के गेट के पास, दिन में इक्कठा किए कूडे को जला एक जलती लकड़ी को अन्दर ट्रोली पर रख दिया, ताकि अन्दर कुछ देर उजाला हो सके। फिर उसने विमान के गेट को ठीक से बंद कर लॉक कर दिया। विमान के उस हिस्से के अन्दर उन दोनों के लिए कुछ दिनों की खाद्य सामग्री और पानी प्रचुर मात्रा में थे, जिन्हें वहाँ विमान में सफर करने वाले उन अभागे यात्रियों को परोसने के लिए इक्कट्ठा किया गया था जो बिना कुछ खाए ही इस दुनिया से चल बसे थे। मरहम पट्टी के बाद केसिना भी काफ़ी राहत सी महसूस कर रही थी, इसलिए दोनों ने कुछ इत्मिनान से बैठ खाना खाया। विमान चूँकि उड़ते ही दुर्घटना का शिकार हो गया था, इसलिए पिछले हिस्से में मौजूद टायलेट को यात्रियो ने इस्तेमाल भी नही किया था और एक सीमा तक टायलेट साफ़-सुथरी ही थी, और उनके लिए किसी तरह की बदबू पैदा नही कर रही थी। अभी दोनों ने अपना खाना समाप्त ही किया था कि जलती हुई लकड़ी भी बुझ गई थी। कुछ देर विक्रम केसिना को जिंदगी की सच्चाईयों के बारे में अवगत कराते हुए समझाता रहा और उसे अपने और अपने परिवार के बारे मे विस्तार से जानकारी दी, विक्रम एक प्रोफेसनल होने के नाते यह भी खूब समझता था कि केसिना और उसके बीच करीब १२ साल का अन्तर था और एक तरह से विक्रम के अनुभवों के मुकाबले केसिना अभी बच्ची थी, इसलिए वह उसे हर बात बहुत ही बारीकी से समझाता रहा और फिर दिनभर की मानसिक और शारीरिक थकान के चलते शीघ्र ही दोनों गहरी नींद में सो गए।



दूसरी सुबह उन दोनों के लिए, पहली सुबह के मुकाबले कुछ सामान्य थी, दोनों ने लेटे-लेटे अनुभव किया कि आज पेडो पर उन्हें पक्षियों के चहचहाने की आवाजे भी खूब सुनाई पड़ रही थी। हलकी हवा की बयार भी जंगल के उन पेडो के झुरमुट और आस-पास की हरियाली के बीच से बहती हुई उस् टूटी खिड़की से अन्दर आ जाती थी जिसे विक्रम ने पिछले दिनपर विमान से बाहर उतरने के लिए तोडा था। कुछ देर बाद बाहर पूरी तरह से उजाला हो जाने पर विक्रम ने सावधानीपूर्वक दरवाजा खोलकर बाहर झाँका यह देखने के लिये कि कंही कोई जंगली जानवर तो आस-पास नही। यह इत्मिनान हो जाने पर कि सब कुछ सामान्य है उसने केसिना को सहारा देकर बाहर निकाला, केसिना भी पिछ्ले दिन के मुकाबले, आज काफ़ी तरोताजा और स्वस्थ महसूस कर रही थी। इसके बाद फिर दोनों नित्यकर्म से निपटने के बाद वापस विमान के उसी हिस्से में आ गए। रह-रहकर जब दोनों को अपने घर की याद आती तो दोनों उदास हो जाते, पल-पल वही रटा-रटाया सवाल, अब आगे क्या ? यही ख्याल दोनों को अन्दर से झकझोर कर रख देता और फिर दोनों एक दूसरे को ढाढस बंधाते और फिर कमरकस, पुनः उस जंग में कूद पड़ते। चूँकि केसिना भी विमान के उडान भरते वक्त, उस हिस्से के सबसे पीछे से पांचवी वाली पंक्ति की सीट में बैठी थी, अतः उसने विक्रम से अपना सामान भी ओवरहेड लॉकर से निकाल लाने का आग्रह किया, विक्रम उसका सामान भी निकाल लाया। फिर नाश्ता करते वक्त विक्रम ने विमान के उस हिस्से पर अपनी एक पैनी नज़र दौडाई, पेशे से एक इंजिनियर होने के नाते मानो अन्दर ही अन्दर कुछ खाका तैयार कर रहा हो। नाश्ता ख़त्म करने के बाद उसने उस हिस्से की सीटो के ऊपर के सारे पैराशूट निकाल डाले और उन्हें फाड़कर उसकी रस्सिया अलग की और पैराशूट के कपडे को आपस में जोड़कर उसे एक बड़े तिरपाल की शक्ल दे डाली।

इस तरह उनकी इस नई जिंदगी का तीसरा दिन, विक्रम और केसिना किसी मदद के पहुँचने की थोडी बहुत जो उम्मीद लगाये हुए थे, उन्होंने अब वह भी छोड़ दी थी। इस अनजाने से भयावह जंगल मे वो कहीं जा भी नही सकते थे, न तो रास्ते और दिशा का ही पता और न दुश्मन से लड़ने को हथियार। हथियार का ध्यान आते ही विक्रम ने एक प्लान बनाया, वह हर मुमकिन प्रयास करना चाहता था, ताकि कहीं दिल मे कही भी यह अफ़सोस न रहे कि अगर मैं ऐंसा कर लेता तो शायद.....! केसिना भी अब उसके साथ हर छोटे बड़े काम मे हाथ बंटाने लगी थी, उसने बाहर की ओर जो पिछला हिस्सा जमीन में धसा था उसके अलुमुनियम की टूटी हुई पतली छडो और पत्ती नुमा धातु को पत्थर के सहारे तोड़कर अलग किया और फिर उन पतली लम्बी पत्तियों को एक बड़े पत्थर के ऊपर रख, उन्हें दूसरे पत्थर से कूठ-कूठ कर पतली तलवार की शक्ल दे डाली, कुछ बरछे नुमा हथियार भी उन अलुमिनियम की छडो से बना डाले, फिर जो छोटी-छोटी पत्तिया बची थी उन्हें बांस की टहनियों को तोड़कर उनके नोकीले तीर बना डाले। बांस के एक बड़े डंडे को स्वनिर्मित तलवार की मदद से बीच से फाड़कर दो हिस्सों मे बाँट दिया और फिर पैराशूट की जो रस्सिया अन्दर पड़ी थी, उन्हें इस बांस के टुकडो पर चडा धनुष भी बना डाला। अब उसके पास आदिवासियों जैसा हथियारों का एक पूरा जखीरा तैयार था और इसे पाने के बाद उसका आत्मविश्वास थोडा और दृढ हो गया था। केसिना इस अजनवी से इन्सान की हिम्मत देख-देख कर हैरान हो रही थी, जब हैरानी से टुकुर-टुकुर उसको देखती तो वह हँस देता और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरता। फिर कुछ देर सुस्ताने के बाद उसने आस-पास से मोटी-मोटी बांस और अन्य लकडिया इकठ्ठा की और विमान के निचले हिस्से से ऊपर की ओर दोनों तरफ़ की खड़ी सीटो के सहारे ऊपर आसमान की तरफ एकदम खड़ी गैलरी पर वह लकडिया इस तरह बांधना शुरु किया कि कोई भी नीचे से आसानी से इनपर पैर रखकर उस विमान के टुकड़े के अन्दर ही अन्दर उसके ऊपरी सिरे तक पहुँच जाए। जब यह काम सफलता पूर्वक निपट गया तो कुछ लम्बी और मोटी लकडियो से उसने बारिस से बचने के लिए न सिर्फ़ उसके टॉप पर पैराशूट के उस तिरपाल की मदद से एक छत बना डाली अपितु उस तिरपाल के नीचे विमान के ऊपरी उस टुकडे के सिरे पर लकडियो का एक बिछोना भी बना डाला ताकि अधिक उमस और गर्मी के वक्त, वहाँ लेटकर आराम से सोया जा सके।


अपने उस नए घर को अन्दर से सुदृड़ कर लेने के उपरांत विक्रम का अगला लक्ष्य था घर के बाहर की चारदीवारी, ताकि अगर कोई हिंसक जानवर उधर आ भी जाए तो आसानी से उनके ऊपर और उनके इस घर पर हमला न कर सके । उनके आस-पास मे ही लकडिया और पत्थर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे, अतः पहले उसने लकड़ी और बांस के डंडो को अपने द्वारा बनाये गए बरछे से विमान से कुछ दूरी पर हटके चारो तरफ़ गोलाई मे जमीन में गाडा, फिर पास ही लटक रही चौडे पत्तो की लम्बी लम्बी बेले काट कर उन्हें उसने रस्सी की तरह इस्तेमाल किया और उन जमीन मे गाडे गए डंडो पर सात-आठ फीट ऊँचाई तक मजबूती से उन लकडियो को बाँध दिया। लकडियो का उसने पूरा एक जाल सा बुन दिया था, और उसके बाहर से दो-तीन फीट की ऊँचाई तक गोलाकार मे पत्थरो की एक मजबूत दीवार भी खड़ी कर दी।

अब उनका वह छोटा सा क्षेत्र एक आदिवासियों के किले जैसी शक्ल मे तब्दील हो चुका था। विमान के पिछले गेट के पास उसने इस तरह से लकडियो और घास-फूस का झोपडी नुमा किचन भी तैयार कर लिया था कि अगर झोपडी के बाहर वाले लकड़ी के गेट को बंद कर दिया जाए तो विमान के अन्दर से कोई भी बिना किसी डर के किचन तक आ जा सके। केसिना भी हालात के मुताविक विक्रम के साथ पूरा सहयोग कर रही थी, और मन-ही मन उसकी बहादुरी और हिम्मत की कायल हो चुकी थी। वह मन ही मन उसे चाहने और उससे प्यार भी करने लगी थी। दो बड़े-बड़े पत्थरो का एक चूल्हा भी बिक्रम ने उस झोपडी के अन्दर बना डाला, और फिर दो और बड़े चौकोर पत्थर पास मे से लुड्काकर उस झोपडी के अन्दर ले आया, ताकि उन्हें बेंच की तरह बैठने के लिए इस्तेमाल किया जा सके। यह सब कर लेने के बाद उसने केसिना को समझाया कि आग इंसान की जिंदगी का एक बहुत ही अहम् हिस्सा है, और अभी हमारे पास आग जलाने के लिए सिर्फ़ यह मिनी लाईटर ही है। कल अगर इसकी भी गैस ख़त्म हो गई, या फिर यह ख़राब हो गया तो समझो हम कहीं के नही रहेंगे, इसलिए इस चूल्हे पर मैं जो आग जला रहा हूँ, हमें कोशिश करनी होगी कि जब तक हम यहाँ है , यह कभी न बुझने पाए , इसके लिए इस जंगल मे हमारे पास प्रचुर मात्रा मे इंधन उपलब्ध है। केसिना ने उसकी बात का समर्थन यह कहकर किया कि हाँ, तुम ठीक कह रहे हो।

ज्यो-ज्यो दिन गुजरने शुरु हुए, केसिना के माथे पर चिंता की लकीरे भी बढती चली गई। खाना ख़त्म और वासी होता जा रहा था, सिवाय किसी दैविक चमत्कार के, किसी तरह की कहीं से कोई मदद आने की उम्मीद करना भी बेफजूल था।केसिना ने पैंट्री में मौजूद खाने पीने की सामग्री का स्टॉक गिना।अब सिर्फ़ कुछ चाय, कॉफी के पैकेट्स, पाँच पैकेट नमक के, दो बड़े पैकेट दूध के पाउडर के और कुछ डिब्बाबंद खाना बचा रह गया था। बचे हुए ब्रेड और सैंडविच पर गंध आने लगी थी, अतः उसने वह फेंकना ही मुनासिब समझा। विक्रम के दिन मे दो बार उसके घावों की मरहम पट्टी का ही नतीजा था कि केसिना भी अब लगभग पूर्णतया स्वस्थ हो गई थी, घाव भरने लगे थे। उन विषम परिस्थितियों का जिस तरह डटकर विक्रम मुकाबला कर रहा था, उस तरह का इंसान केसिना ने पहले कभी नहीं देखा था, और इस बात ने उसके अन्दर भी जीवन जीने की एक जागृति पैदा कर दी थी। अतः उसने वहाँ मौजूद सामग्री को तरतीब से एक अच्छी गृहणी की तरह संभालना शुरु कर दिया था। विक्रम भी केसिना के जागते हौंसलों से प्रसन्नचित था। वह हर वक्त यही कोशिश करता कि वह खुश रहे और पुरानी यादो मे गुम होकर दुखी न हो जाए। इस समय यही वक्त की प्राथमिकता थी कि पिछली जिंदगी को भूलकर जितना भी उचित वक्त आगे जीने के लिए मिलता है उसे जिया जाए, क्योकि वहाँ हर एक पल एक अनिश्चितता से घिरा हुआ था कि कब क्या हो जाए। दिन का हल्का भोजन कर जब दोनों बाहर कीचन मे बैठे थे तो केसिना यह जानते हुए भी कि विक्रम पहले ही उसे अपने परिवार के बारे में बता चूका है, एक बार फिर से पूछ बैठी कि विक्रम के घर मे कौन कौन है। विक्रम थोड़ा उदास हुआ और फिर उसने बताया कि घर पर उसके माँ-बाप, भाई-बहिन और पत्नी नेहा तथा एक दो साल का बेटा है। उसने बताया कि उसकी पत्नी नेहा उसे बहुत चाहती है और जी-जान से प्यार करती है। अगर अब तक उसके पास इस हादसे की ख़बर पहुँच गई होगी तो न जाने वह किस हाल मे होगी? नटखट बेटा तेजा न जाने किस हाल मे होगा, यह कहकर विक्रम की आँखे नम हो गई थी, केसिना ने आगे बढ़कर उसको अपने सीने से लगा दिया और उसे सांत्वना देने लगी।

बिषम परिस्थितियों के बावजूद, विक्रम के प्रति केसिना के दिल मे प्यार हिलौरे भर रहा था, केसिना किचन मे एक ऊँचे पत्थर पर बैठी थी और विक्रम जमीन पर, केसिना ने विक्रम का सिर अपने एकदम करीब खींच लिया और उसके माथे और बालो पर हौले-हौले हाथ फेरने लगी । विक्रम को भी उसका इस तरह का व्यवहार अच्छा लगा था और उसे शकुन पंहुचा रहा था। कुछ देर बाद उसी मुद्रा मे केसिना ने विक्रम के कानो पर अपना मुह ले जाकर धीरे से कहा" या त्येब्या ल्युब्ल्यु", विक्रम ने कहा, व्हाट? तुम क्या कह रही हो, मैं कुछ समझ नही पाया? केसिना ने थोड़ा हंसते हुए फिर वही शब्द दूसरी तरह से दुहराए "या लिउब्लिऊ तेबिया" ! विक्रम उसकी तरफ़ को सीधा घूम गया और फिर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखते हुए बिना कुछ कहे हाथ और उंगलियों को घुमाते हुए उसकी तरफ़ यह इशारा किया कि वह जो कुछ कह रही है, वह नही समझ पा रहा है। केसिना ने कहा बुद्दू! मैं रुसी भाषा मे कह रही थी कि आई लव यू। विक्रम उसकी बात सुन थोड़ा मुस्कराया और फिर उसके सिर पर गोल-गोल उंगलिया घुमाते हुए बोला, आई टू। अब दोनों आपस मे पूरी तरह खुल गए थे, और फिर इसी सिलसिले को आगे बढाते हुए केसिना ने विक्रम को पूछा कि तुम्हारी भाषा में 'आई लव यू' को क्या कहते है? विक्रम ने उसे बताया कि हमारे यहाँ इसको इस तरह कहते है कि ‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ, या करती हूँ। केसिना मन ही मन उस वाक्य को रटने लगी थी, फिर उसने बताया कि वह तीन भाषाओ मे यह कहना जानती थी, अब एक और जुड़ गई है। विक्रम ने उससे तीसरी भाषा के बारे मे पूछा तो उसने बताया कि हालांकि वह स्पेनिश भाषा नही जानती मगर उसकी सहेली ने उसे सिखाया था कि स्पेनिश मे 'आई लव यू' को 'ते कुइएरो' कहते है, तो इस तरह रुसी , इंग्लिश, स्पेनिश के बाद अब वह हिन्दी मे भी आई लव यू बोलना जानती है।

इन्ही पलो के बीच में केसिना ने जब विक्रम से कहा कि उनके पास वहा मौजूद खाना ख़त्म होने को आया है अतः वह अब आगे क्या सोच रहा है ? तो एक पल के लिए पुनः विक्रम को नेहा की याद आ गई और उसकी आँखे नम हो गई। उसे लगा मानो उस पल नेहा ही उसके सामने बैठी, यह कह रही हो कि घर मे फलां-फलां सामान ख़त्म हो गया है और अगर मार्केट जाओगे तो लेते आना । फिर अपने को सँभालते हुए उसने केसिना के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और ऊपर की ओर ऊँगली करते और गर्दन को उठाते हुए बोला कि ऊपर वाला कोई न कोई रास्ता सुझा ही देगा, तुम फिक्र मत करो। अब शाम होने वाली थी, अतः उसने केसिना को अपने बनाए हुए धनुष और तलवार से वार करना सिखाया। अगले दिन सुबह स्व-निर्मित तलवार, धनुष और बरछा उठाकर, एक तलवार और बरछा केसिना के भी हाथ में थमाकर, चौकन्ने रहते हुए वे दोनों करीब सौ-सवा सौ मीटर दूर बह रही उस छोटी सी नदी की ओर चल पड़े। बड़ी सावधानी से आगे बढ़ते हुए वे उस चौडी मगर कम गहरी ढलान वाली उस नदी तक पहुंचे, और यह देख विक्रम केसिना की ओर देखते हुए खुशी से झूम गया कि उस पहाड़ी नदी के तालाब मछलियों से पटे पड़े थे। वह विमान के खाने को केसिना के साथ खाते वक्त यह तो जान ही चुका था कि केसिना भी मांसाहारी है अतः उसने केसिना के कंधे पर बाजू टिकाते हुए पास के तालाब की ओर इशारा करते हुए कहा, देखो! मैं कहता था न कि ऊपरवाला कोई न कोई रास्ता सूझा ही देगा। हमें शिकार के लिए कहीं ज्यादा दूर जाने की जरुरत भी नही पड़ेगी । फिर तालाब से उन्होंने दो जिन्दा मछलियाँ पकडी और जल्दी से वापस बसेरे की ओर चल पड़े। वापस पहुँच विक्रम ने वहाँ बाहर पड़ी ट्रोली की तीनो ट्रे को उसके पेंच खोलकर अलग किया, ताकि उसे कढाई और अन्य वर्तनों की तरह इस्तेमाल किया जा सके। और फिर केसिना को कहा कि अन्दर खाली पड़ी पानी की बोतलों को वह कही फेंके नही, क्योंकि वे नदी से पानी लाने और जमा करने के काम आएँगी। फिर विक्रम ने मछलियों के तलवार से टुकड़े किए और उन्हें उबालने के लिए उस ट्रे मे चूल्हे पर रख दिया, केसिना मन ही मन उसके दिमाग की तारीफ़ करते नही थकती थी। उसको बड़े ही चाव से मछलिया पकाते देखते हुए केसिना ने बताया कि उसकी माँ भी एक बहुत अच्छी कूक है। हालांकि वह ख़ुद खासकुछ अच्छा पकाना नही जानती, मगर रूस मे महिलाओं को छोटी उम्र से ही तरह तरह के व्यंजन बनाना सिखाया जाता है इसलिए उसकी मम्मी इस काम मे बहुत ही निपुण है और बहुत अच्छे और स्वादिष्ट पकवान बनाती है। उसकी बात सुन विक्रम चुटकी लेते हुए बोला, फिर तो हमें जल्दी तुम्हारी मम्मी के पास पहुंचना चाहिए।

दिन बीते, महीने बीते, जहाँ शुरु के दिनों मे एक-एक दिन सालो जैसा लगता था, जिंदगी रेगिस्तान जैसी बीरान नजर आती थी, वह धीरे-धीरे हालत के मुताविक अब कुछ हद तक सामान्य हो चली थी। दोनों ने काफ़ी मस्सकत के बाद अपने को कुछ हद तक परिस्थितियों मे ढाल दिया था।विमान के अन्दर, खाली वक्त मे दोनों उस हिस्से मे मौजूद सभी ओवरहेड लोकर्स को एक-एक कर खोल चुके थे और उन विमान यात्रियों के सामान को देखकर फिर भाव-विभोर हो जाते, जो अपना सब कुछ छोड़ गए थे। थैलों मे पड़ी और सीटो के पीछे रखी सारी की सारी मैगजीन को वो एक-एक कर कई बार पढ़ चुके थे। कभी जब रातो को नींद नही आती थी तो दोनों अपने साथ लाये डिजीटल कैमरे की स्क्रीन की रौशनी मे मैगजीन पढने लगते थे। मोबाईल फोन की बैटरी तो शुरु मे ही ख़त्म हो गई थी, लेकिन डिजीटल कैमरे मे सेल होने की वजह से वह अभी तक साथ दे रहा था और साथ ही कुछ और बैटरियां उनको अन्य यात्रियों के सामान मे मिले कैमरों इत्यादि से भी मिल गई थी। इन वीरान घने जंगलो मे बस वो दोनों ही तो थे, और कोई नही। केसिना कब अपना सर्वस्व विक्रम को समर्पित कर बैठी, उसे भी पता न चला। अब वह उम्मीद से भी थी, उसने जब यह बात विक्रम को बताई और साथ ही विक्रम से मजाक करते हुए कहा कि वह उसके बच्चे की माँ तभी बनेगी जब वह उससे अपनी उसी हिन्दुस्तानी रीति से शादी करेगा, जो कभी उसने लन्दन में एक बॉलीवुड फ़िल्म में देखी थी। तो इसपर विक्रम ने झट से कहा था कि इसमे कौन सी अनोखी बात है, अभी किए देता हूँ, और फिर उसने आस-पास के पौधों से जंगली फूल इकठ्ठा किए थे और उसकी दो मालायें बना एक दूसरे के गले मे डाली थी फिर मजाक के तौर पर उसने बाहर खुले मे बीच मे लकडियो की एक होली जलाकर अपना कुर्ते का पल्लू केसिना के कुर्ते के पल्लू से बाँध कर सात फेरे लिए और बीच-बीच मे चुटकी लेते हुए ख़ुद ही पंडित भी बन जाता था, और केसिना को एक किनारे बिठा देता और ख़ुद पल्लू खोलकर अग्निकुण्ड के समीप बैठकर कुछ फूल उस अग्नि में डालता और मंत्रोचारण करता। केसिना उसकी इस बच्चो जैसी हरकत से काफ़ी प्रसन्नचित थी और यह सब देख जोर- जोर से हंस देती थी। यह सारा ड्रामा ख़त्म करने के बाद विक्रम केसिना को बाँहों मे भरकर खूब रोया था। केसिना भी उसकी मन की स्थिति खूब समझती थी इसलिए उसे समझाती और उसका मन बहलाने की कोशिश करती।अपने पास मौजूद स्वचालित डिजीटल कैमरे से केसिना ने इस शादी के फेरो की एक विडियो भी बना डाली थी। विक्रम को दुखी न होने देने के लिए वह कभी-कभार इस तरह से भी ब्लैक मेल करती कि अगर वह दुखी हुआ, अथवा रोया तो वह भी जोर-जोर से रोना शुरु कर देगी । विक्रम उसकी इस धमकी से सहज हो जाता और फिर खुश दीखने या हंसने के लिए कोई न कोई बचकानी हरकत कर बैठता। ऐंसा ही उसने केसिना के साथ फेरे लेने के बाद भी किया। इस खुशनुमा मौसम को जी भर जीने के लिए उसने केसिना को उठा कर कंधे पर रख दिया और नाचते हुए यह गाना गाया ;
तकदीर ने इस प्यार के खातिर घर से उजाड़ दिया
क्या छप्पर फाड़ दिया मेंरे मौला, क्या छप्पर फाड़ दिया
मिली मुझे इक रुसी हसीना, इस वीराने जंगल में
और जगा दी चाह जीने की मेरे इस मन-मंगल में
दुःख के भव-सागर में खुश रखने का क्या जुगाड़ किया
क्या छप्पर फाड़ दिया मेंरे मौला, क्या छप्पर फाड़ दिया




मैंने भी बसाया था घर , एक अपनी शान का
और बना था मैं भी सहारा इक नन्ही जान का
पर तुने खुशी संग मुझे दुखो का ऐसा पहाड़ दिया
क्या छप्पर फाड़ दिया मेंरे मौला, क्या छप्पर फाड़ दिया

मैं भी जीने को आतुर था, कुछ पल शकुन के
निकल आते है अब तो आँखों से आँशु खून के
सरपट भाग रहे थे हम और किस्मत ने पछाड़ दिया
क्या छप्पर फाड़ दिया मेंरे मौला, क्या छप्पर फाड़ दिया

चाँद निहारे चुपके- चुपके, या फिर धुप खिली हो आँगन में,
पतझड़ हम पर फूल विखेरे या हम भीग गए हो सावन में,
प्यार करे हम वीराने में जी भर , ऐंसा जंगल-झाड़ दिया
क्या छप्पर फाड़ दिया मेंरे मौला, क्या छप्पर फाड़ दिया

और इस प्रकार अब दोनों एक दूसरे के जीवन साथी बन चुके थे, रोज की दिनचर्या के हिसाब से दोनों पास की नदी में जाते, नहा-धोकर, मछलियां पकड़ते और फिर बसेरे पर लौट आते। कभी-कभार विक्रम, भोजन में बदलाव के लिए खरगोस और अन्य छोटे किस्म के जंगली जानवर का भी शिकार कर लाता, प्रयोग के तौर पर कभी वे भोजन में बदलाव के लिए जंगल के पेड़-पौधों, झाडियों की वनस्पति भी पका कर खा लेते। शिकार के लिए केसिना, विक्रम को कभी भी अकेले नही जाने देती थी , वह हमेशा उसके साथ रहती और एक दिन रात को उसने विक्रम को अपने मन की वह बात भी बता डाली थी कि उसने निश्चय कर रखा है कि भगवान् न करे, अगर किसी दिन विक्रम को कुछ हो गया तो उसी दिन वह भी अपनी जीवन लीला समाप्त कर देगी। विक्रम ने उसका सिर सहलाते हुए कहा था कि पगली, मेरी भी वही स्थिति है, अगर तुझे कुछ हो गया तो, क्या मैं अकेला जी पाऊंगा? दोनों ही इतने सीमित तरीके से खाते थे कि बस जिन्दा रहने के लिए जो जरुरी होता है। विक्रम, केसिना के खाने का विशेष ध्यान रखता था। उन जंगलो में फल के नाम पर सिर्फ जंगल में उगने वाला छोटे किस्म का केला ही मिलता था, कभी कभार वे उसका भी सेवन कर लेते थे। मगर शायद जब से वे इस मुकाम पर मिले थे, दोनों ने कभी भी भरपेट भोजन नही किया था और स्वस्थ रहने के लिए उन हालातो में यह जरुरी भी था।

विक्रम ने यह भी नोट किया कि आस-पास रहने वाले जंगली जानवर अमूमन उनके इलाके में कम ही फटकते थे। साथ ही वह यह देखकर ख़ुद की किस्मत पर हँसता भी था कि हालात इंसान को जैसा देश वैसा भेष के हिसाब से कितनी जल्दी ढल जाने पर मजबूर कर देते है। वातावरण में बहुत ज्यादा नमी और उमस की वजह से केसिना कम कपड़े पहनती थी, और जब महीनो से उलझे हुए घुंघराले खुले-बिखरे बालो के साथ वह नदी में मछलिया पकड़ रही होती थी, तो थोड़ा दूर से देखने पर ऐंसा लगता था, जैसे आदिम जाति की कोई महिला मछलिया पकड़ रही हो। यही हाल उसका भी था, दोनों की त्वचा भी अब हल्का सावला रंग लेने लगी थी।केसिना के विखरे बालो पर जब विक्रम का ध्यान गया था तो उसने तुंरत ठान ली थी की वह उसके लिए जल्दी ही एक कंघी बना डालेगा और फिर उसने घर पर बैठ जब एक चौडी चपटी लकड़ी पर तलवार से खांचे बना बना कर उसे कंघी की शक्ल देनी शुरु की तो केसिना बोली, बुद्दू ये क्या कर रहे हो, मेरे पास पहले से ही बैग में कंघी है लेकिन मैं जान बूझकर उसे इस्तेमाल नही करती, इस जंगल में कौन हमारे बालो को देख रहा है?

खैर, अब सब कुछ भगवान् भरोसे ही चल रहा था, जिस जगह पर वे आकर गिरे थे, उस जगह की भोगोलिक स्थिति ऐसी थी कि वे नीचे जमीन के धरातल से मुश्किल से ५० मीटर दूर आगे तक भी ठीक से नही देख पाते थे। वो तो खुशकिस्मती से वह दोनों साथ थे इसलिए किसी तरह समय व्यतीत हो रहा था, अगर उनमे से कोई एक ही अकेला उस जगह पर होता तो वह खुद ही पागल हो जाता। इस बीच विक्रम को एक और अप्रत्याशित घटना देखने को मिली। प्रसव के आखिरी महीनों में जब केसिना एक-दो बार अस्वस्थ रही तो वह केसिना को घर पर ही छोड़कर, ख़ुद ही नदी तक शिकार पर जाया करता और जितनी जल्दी हो सके भोजन का वन्दोवस्त कर तुंरत लौट आता था। कुछ हफ्तों से पास ही की झाडियो और पेडो के झुरमुट में चिम्पैंजी का एक झुंड आकर ठहरा हुआ था। विक्रम जब भी बाहर जाता, केसिना को हिदायत दे देता कि वह दरवाजा बंद रखे ताकि कोई चिम्पांजी अन्दर न आने पाये, साथ ही वह इससे चिंतित भी रहता, मगर केसिना और उस झुंड के एक मादा चिम्पैंजी, जो कि शायद उस झुंड की मुखिया थी, के बीच दोस्ती हो गई थी। हुआ यूँ कि जब भी वह मादा चिम्पैंजी उनके घर के पास आती, केसिना अन्दर से बचा हुआ मछलियों और जानवरों का उबला और भुना हुआ मांस, उसके पास पत्ते में रख देती, चूँकि वे विमान में पड़े नमक के उन ५-६ पैकेटों को बड़ी किफायत के साथ इस्तेमाल कर रहे थे, पकाने में न डाल वे मांस को उबल जाने के बाद उस पर हल्का नमक छिड़कते थे, इसलिए अभी भी ४ पूरे पैकेट बचे हुए थे। चिम्पैंजी को शायद उसी का स्वाद लग चुका था, अतः वह रोज केसिना के पास आ जाती और घंटो वहीँ बैठी रहती। बाकी चिम्पैंजियों का दल भी आस पास ही खेलता कूदता। कुछ ही दिनों में वह पूरा का पूरा दल मानो इन लोगो से पूर्णतया घुल-मिल चूका था और जैसे पहले, जब कभी विक्रम बाहर से अन्दर या फिर अन्दर से बाहर जाता था तो उसे देख ये चिम्पैंजी भागकर इधर-उधर पेडो के तनो के अगल बगल बैठ जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने डरना बंद कर दिया था और बेझिझक वही पर डटे रहते थे।

उस रोज तो विक्रम और केसिना के भी आश्चर्य का ठिकाना नही रहा, जब एक दिन शाम को वह मादा चिम्पैंजी दो मरी हुई जल मुर्गिया लेकर उसके पास आई और उसके गेट के सामने रख कर चली गई। वे दोनों समझ गए कि यह चिम्पैंजी क्या चाहती है। विक्रम हालांकि अपने लिए दिन में ही रात के भोजन का बन्दोबस्त करके रखा था, फिर भी उसने चाव से उन मुर्गियों को अंगारों में भुना और एक को दोनों ने खाया तथा दूसरी मुर्गी को भूनकर उस चिम्पैंजी के लिए रख दिया। अगले दिन जब चिम्पैंजी फिर से आई तो केसिना और विक्रम ने वह तंदूरी मुर्गी उसके पास रख दी, मुर्गी हाथ में ले चिम्पैंजी ने मुह से दो तीन जोर-जोर की आवाजे निकाली। थोडी देर में उसके साथी चिम्पैंजी भी आ गए थे। उन तीन-चार जिम्पैंजियो ने मिल बांटकर बड़े चाव से वह खाया और फिर कुछ देर के बाद वापस जंगल में चले गए। इसके बाद अगले दिन वह फिर से एक छोटा हिरन मारकर लाये और उसे भी केसिना के आगे पटक दिया। विक्रम का आज एक तरह से छुट्टी का दिन था क्योंकि कल की लायी हुई दो मछलिया अभी अन्दर पड़ी थी और ऊपर से हिरन भी आ गया था। उसने बड़ी तसल्ली से हिरन का मांस बनाया और चौडे-चौडे पत्तो में रखकर वहाँ मौजूद सभी चिम्पैंजी को अलग से वह मांस परोसा। अब तो यह एक सिलसिला सा बन गया था, विक्रम को भी मानो बीच-बीच में अवकाश मिलने लगा था, क्योंकि चिम्पैंजी शिकार करके घर पर ही लाकर उसका काम आसान कर जाते थे। वह मादा चिम्पैंजी तो अब इतनी ढीठ हो गई थी कि बाड़े को पार कर अन्दर केसिना के पास आ बैठती और घंटो उसके पास ही बैठी रहती। केसिना भी उसकी पीठ और सिर पर अपनी उंगलिया रगड़ती तो वह उसके आगे चौडी होकर, जमीन पर पैर पसार कर लेट जाती। आराम के पलो में विक्रम यह सब देखकर यही सोचने लगता कि वाकई में वह कहावत उन दोनों पर कितनी फिट बैठती थी कि 'जाको राखे साइयां, मार सके न कोई' ! इन विषम परिस्थितियों में कैसे उनकी सीमित ज़रूरत की लगभग सारी चीजे उन्हें प्राप्त हो गई, वह वाकई चकित करने लायक था। कभी वह सोचता कि इन घने जंगलो से बाहर निकलने के लिए वह जान की बाज़ी लगा दे, किंतु फिर बहुत से ख्याल उसे पैर पीछे खींचने पर मजबूर कर देते थे।

आख़िर वह दिन भी आ ही गया जिसका दोनों को बेसब्री से इंतज़ार था, और साथ ही दोनों को अन्दर ही अन्दर मानो किसी घातक बीमारी की तरह खाए भी जा रहा था। उन्हें विचलित कर रहा था कि क्या होगा और कैसे होगा? अगर कुछ गड़बड़ हो गई तो वो कहा दौड़कर जायेंगे? सिवाय भगवान् के और किससे मदद की गुहार लगायेंगे ? और अगर बात हाथ से निकल गई तो...? हे भगवान्! विक्रम अपने बालो को नोच लेता और माथा पकड़ कर बैठ जाता। रात से ही केसिना दर्द महसूस कर रही थी, विक्रम रातभर जागता रहा और उसके सिर और हाथो को अपने हाथो से सहलाते हुए, बस धीमे स्वर में कोई पुराना गीत गुन-गुनाता रहा था । इसी कसमकस में भोर हो गई थी, और कुछ देर बाद सूरज भी चढ़ आया था। केसिना की दर्द के मारे छटपटाहट और कराहे भी बढती जा रही थी, उसकी कराह सुनकर चिम्पैंजी का पूरा का पूरा झुंड भी लाईन लगाकर खामोश बाहर बैठा हुआ था, मानो इन्हे सब पता हो कि क्या होने जा रहा है, बीच-बीच में मादा चिम्पैंजी पैरो के बल खड़ी होकर अन्दर भी झाँक लेती थी और कभी विक्रम के उदास और चिंतिति चेहरे पर एक टक देखने लगती थी। विक्रम फर्श पर बैठा केसिना के सिर को अपनी गोदी में रख उसके माथे को सहलाते हुए रुक-रूककर वही गाना गुनगुनाये जा रहा था, फिर केसिना ने एक जोर की कराह भरी और तुंरत बाद एक नन्हे मेहमान की रोने की आवाज ने पूरे वातावरण को खुशनुमा कर दिया था। विक्रम हालाकि केसिना की कराह से इस कदर डर गया था कि उसकी बस जान निकलते निकलते रह गई, क्योंकि केसिना उसके तुंरत बाद बेहोश हो गई थी। मगर कुछ देर बाद जब विक्रम ने उसके मुह पर पानी के छींटे मारे और बोतल के ढ्क्कन से थोड़ा पानी लेकर उसके मुह में उडेला तो उसने आँखे खोल दी थी,और तब जाकर ही विक्रम की जान मे जान आयी और वह उस नन्हे मेहमान की ओर ठीक से देख पाया था। नन्हे मेहमान के रोने की आवाज सुनकर जैसे चिम्पैंजी ने पूरे जंगल में कोहराम मचा दिया था, वे इधर से उधर भाग रहे थे और अपने ऊपर घास फूस उछाल रहे थे, जैसे कि मानो नन्हे मेहमान के आने और सब कुछ ठीक-ठाक निपट जाने पर अपनी खुसी का इजहार कर रहे हों।

खैर, ऊपर वाले की कृपा से यहाँ भी सब कुछ ठीक-ठाक ही निपट गया था। विक्रम बार-बार ईश्वर को याद कर हाथ जोड़ उसका शुक्रिया अदा कर रहा था। उसके और केसिना के पहले बच्चे ने उसकी ही हथेलियों में इस धरा को अपना पहला नमन किया था। चिम्पैंजी के व्यवहार को देख विक्रम को मानो अब इस जंगल की जिंदगी से मोह सा होने लगा था। अपने नन्हे मेहमान को अपनी बाहों में पा, कुछ देर के लिए उसकी आँखों से आंसू भी छलक आए थे क्योंकि उसे अपने बेटे तेजा की याद आ गई थी, जब तेजा हुआ था तो किस तरह उसने घंटो नर्सिंग होम के कमरे के बाहर खड़े रह कर उस एक-एक पल को गुजारा था, और तब नर्स ने आकर उसको यह खुसखबरी सुनाई थी। फिर जब वह अन्दर गया था तो कैसे नेहा ने उसे ठेंगा दिखाया था कि उसकी जीत हुई है, क्योंकि वह लड़का चाह रही थी जबकि विक्रम लड़की की उम्मीद कर रहा था। धीरे-धीरे सब पटरी पर आने लगा था, विक्रम हर वक्त केसिना और नन्हे-मुन्ने की सेवा भक्ति में ही लगा रहता, खाने का वन्दोवस्त अमुमन चिम्पैंजी कर लेते थे। पांचवे दिन पर वह खुद जंगल गया और एक बड़ा सा हिरन मार लाया था और उसने वहाँ मौजूद सभी चिम्पैंजी को भर पेट मांस खिलाया था, मानो बेटे के होने की खुसी में दावत दे रहा हो।

और इस तरह फिर से घाना के उस दक्षिणी प्रदेश के जंगल में जिंदगी की जद्दो-जहद कुछ और आगे बढ़ी। विक्रम ने महसूस किया कि जहाँ एक बेटा मिल जाने से उसके समय को व्यतीत करने के लिए एक नायाब खिलौना भगवान और केसिना की तरफ़ से भेंट स्वरुप मिला था, वहीँ उसने यह भी महसूस किया कि अब वह भावनात्मक तौर पर ख़ुद को काफ़ी कमजोर भी महसूस करने लगा है। पहले जहाँ दिल में मरने-मारने का कोई विशेष खौफ नही रहता था, वहीँ अब बच्चे के आने के बाद से कुछ डर सा मन में घर कर रहा था। दिन गुजरे, बेटे और चिम्पैंजी के झुंड के नटखट व्यवहार को निहारते-निहारते कब डेड बर्ष गुजर गया, पता ही नही चला। समय का अहसास उन्हें तब हुआ जब केसिना ने एक बार फिर से उम्मीद से होने की बात विक्रम को बताई। यह सुनकर विक्रम सिर्फ़ मुस्कुरा भर दिया था और उसके सिर को सह्लाया। विमान के उस भाग में मिले अन्य यात्रियों के सामान में से उन्हें अगले कई सालो के लिए पहनने के कपड़े मिलगये थे, लेकिन उनमे ऐसा कोई कपड़ा नही था जो बच्चे के पहनने के काम आ सके। काफी दिमाग लगाने के बाद दोनों ने एक फैसला लिया। कुछ बड़ी कमीजों को फाडा गया, बाजुवो को अलग कर, कमीज के आगे और पीछे के पल्लुवो को दो अलग भागो में बाँट कर फिर उसे बच्चे की कमीज के नाप में तलवार से काट कर अलुमिनियम की ख़ुद की बनाई एक मोटी सुई से तुलप दिया और बाजुवो का उसके लिए तहमत या लंगोट बना डाला। जब वे लोग शिकार पर जाते तो पैराशूट के बचे हुए चिकने मजबूत कपड़े से विक्रम उसको आदिवासियों की तरह अपनी पीठ पर बाँध देता था।

पहले बेटे के दो साल के होने पर एक बेटी भी घर में आ गई थी, उसकी बारी भी वही सारी स्थिति उन दोनो के सामने रही, जो बेटे के समय रही थी। हां, चूँकि अब चिम्पैंजी पूरे परिवार से अच्छी तरह घुल मिल गए थे, इसलिए अबकी बार वे भी एकदम विमान के गेट पर ही आकर बैठ जाते थे। चूँकि बेटे के होने के बाद उसका नाम विक्रम ने हिन्दुस्तानी तर्ज पर प्रेमवन रखा था, जिसका मतलब था कि वह उन्हें वन में एक दुसरे के प्रेम के तौर पर मिला था, इसलिए विक्रम ने उसका नाम प्रेमवन रखा था। अबकी बार बेटी के होने पर विक्रम ही उसका भी कोई हिन्दुस्तानी नाम रखना चाहता था मगर जिद्दी केसिना ने पहले ही शर्त रख ली थी कि चूँकि लड़के का नामकरण विक्रम ने किया था इसलिए बेटी का नामकरण वह करेगी। अतः पहले से सोचे नाम के मुताविक केसिना ने उसका नाम रुसी परम्परा और नामो के मुताविक कैरिना रखा था, विक्रम के पूछने पर उसने उसे बताया कि कैरिना शब्द ग्रीक भाषा के शब्द ‘करेन’ से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है शुद्ध। बेटी के नामकरण पर भी विक्रम ने जी भरकर चिम्पैंजी के झुंड को दावत दी थी, इस जंगल में अब वही एक तरह से उनके नाते रिश्तेदार बनकर रह गए थे। दोनों पार्टियों के बीच अब इतना विश्वास बन चला था कि जब कभी केसिना और विक्रम को पास की नदी से पानी इत्यादि के लिए जाना पड़ता था तो वे विमान के उस हिस्से के अन्दर बच्चो को किवाड़ बंद कर, बाहर से चिम्पैंजी के भरोसे छोड़कर भी चले जाते थे।

बच्चे अब धीरे-धीरे बड़े होते जा रहे थे, विक्रम को उनके भविष्य की चिंता खाने लगी थी, वह दिन रात उस जंगल से बाहर निकलने के तरह-तरह के विकल्पों के बारे में सोचता रहता था, लेकिन बहुत सोच बिचारने पर भी बच्चो और केसिना के प्रति जंगली जानवरों का भय उसे किसी अंजाम तक नही पहुँचने देता था। कभी वह सोचता कि काश अगर ये चिम्पैंजी उसकी भाषा समझ पाते या फिर वह उनकी भाषा बोल पाता तो वह इनसे जरूर यह निवेदन करता कि किसी तरह उन्हें वह इस जंगल से निकलने में मदद करे। केसिना भी बच्चो की पढाई और उनके भविष्य के बारे में चिंतित रहने लगी थी, विमान के उस हिस्से में मिले कुछ और लोगो के सामान में से उन्हें कुछ नोट-बुक और किताबे भी मिली थी, साथ ही विमान की सीटो के पीछे की जेबों में भी उन्हें बहुत सी पेन पेन्सिल और नोट बुक तथा मैगजीन प्राप्त हुई थी। विक्रम और केसिना एक जागरुक माता-पिता की तरह अपने बच्चो को उन नोट बुक पर पढ़ना-लिखना सिखा कर अपनी तरफ़ से उन्हें शिक्षित करने की भरपूर कोशिश कर रहे थे। विक्रम अंग्रेजी, हिन्दी और गणित सिखाता तो केसिना अंग्रेजी और रुसी भाषा उन्हें सिखाती। केसिना ने तो विक्रम से हिन्दी भाषा का पिछले साढे तीन सालो में काफी अच्छा ज्ञान हासिल कर लिया था। जब वह बच्चो को दिन में रुसी भाषा सिखा रही होती थी तो विक्रम भी रुसी सीखने के लिए बच्चो के साथ बैठ जाता था। केसिना बच्चो को बेसिक बातें सिखाने के बाद विक्रम को भाषा की बारीकिया भी बताती कि रुसी भाषा एक खड़ी बोली के समान है और सपाट बोली जाती है जैसे कि नम्रता वाली अंग्रेजी भाषा में हम कहते है कि 'क्या आप कृपा कर मुझे एक गिलास पानी देंगे?' तो रुसी भाषा में इतना लंबा न जाते हुए सीधे कहा जाता है ' कृपया एक गिलास पानी दो!' अंग्रेजी भाषा के 'बी' को रुसी भाषा में 'भी' उच्चारित किया जाता है। इसी तरह 'ई' को 'ये' , 'एच' को 'एन', 'सी' को 'सै', व्हाइ को 'ऊ' और 'एक्स' को 'एच' उच्चारित किया जाता है। लिखते वक्त जहा 'या' शब्द प्रयुक्त होता है वहा अंग्रेजी वर्णमाला का 'R' प्रतिविम्बित या उल्टे रूप में लिखा जाता है साथ ही अंग्रेजी भाषा के 'डब्लू' को 'श' की तरह इस्तेमाल करते है। केसिना ने धीरे-धीरे रुसी भाषा की ऐसी ही अनेक बारीकिया और जानकारिया उनको समझा दी थी, और कुछ हद तक विक्रम भी रुसी भाषा लिखने पढने लगा था।

फरवरी २००८, इस हादसे को हुए अब करीब आठ साल गुजर चुके थे, बेटा प्रेमवन अब तकरीबन साढ़े छः साल का और बेटी कैरिना ४ साल की हो गई थी। कैरिना उस दिन थोड़ा अस्वस्थ थी, उसे तेज बुखार था। विक्रम का फर्स्ट ऐड बॉक्स ऐसे हालात् में काफी काम आता था। हालांकि भोजन की तलाश में जाते हुए अब बच्चे भी ज्यादातर विक्रम और केसिना संग पैदल ही रास्ता तय करते थे, लेकिन नन्ही कैरिना जल्दी थक जाती और पिता
के कंधे पर जा बैठती। चूँकि आज उसकी तबियत ठीक नही थी, अतः विक्रम ने केसिना को घर पर बच्चो के साथ ही ठहरने को कहा था और ख़ुद ही हथियार उठा जंगल को चला गया था। करीब तीन घंटे बाद जब एक खरगोश का शिकार करने के बाद वह वापस ठिकाने पर लौटा तो वहाँ का नजारा देख दंग रह गया। बाहर आहते में दो चिम्पैंजी बेहोश पड़े थे, पास में छुपे बैठे तीन-चार चिम्पैंजी विक्रम को देख, आस पास पड़ी झाडिया, घास-फूस और पत्थर उछाल कर छाती पीटते गुर्राने लगे थे। विक्रम ने केसिना को आवाज लगायी मगर कोई जबाब नही मिला, विक्रम समझ गया कि उसकी अनुपस्थिति में कोई बड़ी घटना घटित हो गई है। वह दौड़कर अन्दर गया तो कोई नही था और वहाँ सब कुछ बिखरा हुआ पड़ा था, वह केसिना और प्रेम का नाम लेकर जोर से चिल्लाया, मगर सब बेकार।

इस बीच उसके चिल्लाने से विमान के उस टुकड़े के ऊपरी सिरे से कैरिना के रोने की आवाजे आने लगी, विक्रम हांपता हुआ तेजी से ऊपर चढा, वहा सिर्फ़ कैरिना ही थी जिसे शायद केसिना ने सुला रखा था। उसको गोदी में उठा, नीचे उतारकर, विक्रम ने आस-पास के पूरे आँगन को और बाहर के इलाके को छान मारा,नन्ही कैरिना से भी उसकी मा और भैया के बारे मे पूछ्ने की कोशिश की, मगर केसिना और प्रेमवन का कहीं कोई आता-पता नही था। जहाँ पर वह मादा चिम्पैंजी और एक और चिम्पैंजी बेहोश गिरे पड़े थे, वहा पर की स्थिति को देखने से स्पष्ट होता था कि हमलावर के साथ चिम्पैंजी ने काफ़ी संघर्ष किया होगा। विक्रम ने कैरिना को पीठ पर बाँधा और बदहवास सा केसिना को आवाजे मारता हुआ इधर उधर भागने लगा। तभी उसे कुछ सूझा तो वह दौड़कर अन्दर गया और एक पानी की बोतल उठा लाया। मादा चिम्पैंजी के पास पहुँच उसके शरीर को टटोला, उनके उठते पिचकते पेट को देख कर साफ़ था कि उनकी साँसे चल रही थी, पूरे शरीर पर सिर्फ़ दो ही जख्म थे। उसने चिम्पैंजी के मुह पर पानी के छींटे मारे और उन जख्मो पर पानी डाला तो जख्मो से एक सफ़ेद किस्म का तरल पदार्थ बहने लगा। विक्रम समझ गया कि चिम्पैंजी पर हमला किसी मानव ने किया है और जो तीर इस्तेमाल किए गए होगे, उनमे एक ख़ास किस्म का जहरीला पदार्थ लगा होगा जो शरीर पर चुभते ही खून में मिलकर, लगने वाले को बेहोश कर देता है, उसने आस पास पड़े सभी तीर समेटकर अपने पास रख लिए।

इस बीच उसने देखा कि मादा चिम्पैंजी के शरीर में हरकत होने लगी है, उसने तुंरत ही पास ही बेहोश पड़े दूसरे चिम्पैंजी के घावों पर भी पानी डाला ताकि जहर बह जाए, फिर उसके चेहरे पर भी पानी के छींटे मारे। कुछ ही देर में दोनों चिम्पैंजी को होश आ गया, खौफ और गुस्सा उनके चेहरों से स्पष्ट होता था। विक्रम ने पास पड़े एक ट्रे पर बोतल का पानी डाला और चिम्पैंजी के सामने रख दिया। मादा चिम्पैंजी ने ही पानी पिया दूसरे ने नही। विक्रम ने जब हाथो के इशारे से चिम्पैंजी को पूछा की केसिना और प्रेम कहाँ है तो मादा चिम्पैंजी उठ खड़ी हुई और जोर-जोर की आवाजे लगाने लगी, आसपास मौजूद चिम्पैंजी का पूरा झुंड इक्कठा हो गया था। बिना देरी किए ही मादा चिम्पैंजी ने विक्रम का हाथ अपनी ओर खींचा, मानो उसे अपने साथ आने के लिए कह रही हो। विक्रम उसके इशारे को समझ गया था, उसने अपनी तलवार और धनुषबाण उठाये और आगे-आगे मादा चिम्पैंजी और उसके पीछे विक्रम तथा चिम्पैंजी का पूरा झुंड गुर्राते हुए जंगल में एक तरफ़ को तेजी से बढ़ने लगा। मादा चिम्पैंजी इस तरह उस खास दिशा की ओर तेजी से बढ़ रही थी मानो उसको सब मालुम था कि आक्रमणकारी किस ओर गए है। विक्रम चिंतित मुद्रा में आगे आने वाली चुनौतियों के बारे में सोचता, इधर उधर देखता, आगे बढ़ रहा था, कैरिना उसकी पीठ पर ही फिर से सो गई थी। दो घंटे तक लगातार जंगलो के बीच चलते-चलते वो करीब सात-आठ किलोमीटर का सफर तय कर चुके थे।अचानक एक ऊँचे टीले के पास मादा चिम्पैंजी रुक गई, विक्रम आगे कुछ देखने की कोशिश कर रहा था कि दौड़कर आगे गए दो युवा चिम्पैंजी पुनः दौड़ते हुए वापस आए और गुर्राने लगे, शायद इन सभी को उस हमलावर की गंध महसूस हो गई थी। मादा चिम्पैंजी ने भी एक धीमी गुर्राहट की और विक्रम की तरफ़ देखा, और फिर धीरे- धीरे आगे बढ़ने लगी ।

करीब दस कदम और आगे बढ़ने पर एक उबड़-खाबड़ पगडण्डी ढलान पर एक छोटी सी घाटी की तरफ़ जाती थी, वहा पहुँच मादा चिम्पैंजी फिर से रुक गई, झुंड के अन्य सदस्य भी बहुत ही धीमी चाल से डरे हुए अंदाज में कदम बढ़ा रहे थे। विक्रम, मादा चिम्पैंजी से कुछ आगे बढ़ नीचे को देखने लगा, और उसने जो नीचे का नजारा देखा तो उसका अंग-अंग गुस्से से फड़कने लगा। अगर उस समय उसके पास कोई बन्दूक होती तो बिना कुछ सोचे वह उन पर हमला कर देता। क़रीब २०-३० मीटर की दूरी पर अफ्रीकी आदिवासी जाति के लगभग आठ लोग बैठे थे, उनके कुछ के ही शरीर पर टांगो के ऊपर एक खास किस्म का केंट नामक पारंपरिक बुनाई से बुना हुआ कपड़ा लुंगी की तरह पहना हुआ था। कुछ जो युवा किस्म के आदिवासी थे वो लगभग नग्नावस्था में थे। एक ने सिर पर विक्रम की वह कमीज बाँध रखी थी, जो वह उस विमान वाली जगह से उठा लाया था। पास ही केसिना और विक्रम के बैग पड़े थे, उन्हें भी वो लोग वहाँ से अपने साथ उठा लाये थे। केसिना के हाथ पैर सामने से बांधकर, दोनों हाथो और पैरो के बीच से बांस का एक लट्ठा फंसाकर उसे दो पेडो के नोकीले तनो के बीच झुलाया या यूँ कहे कि लटकाया हुआ था, और प्रेमवन को एक उम्रदराज आदिवासी ने ख़ुद पकड़ा हुआ था, जो धीरे-धीरे रोने पर लगा था। विक्रम समझ गया कि चूँकि ये लोग विमान के उस टुकड़े के ऊपरी सिरे में नही गए, इसलिए सोयी हुई कैरिना को नही देख पाये, नही तो उसे भी साथ ले गए होते। शायद ये लोग यहाँ पर कुछ देर आराम के लिए बैठे थे। उनकी कद काठी और बनावट के हिसाब से विक्रम अंदाजा लगा रहा था कि ये वहां के दक्षिण तटीय प्रदेशो में पाये जाने वाली फ़न्ते और ग्यामन जाति के आदिवासी ही होंगे, क्योंकि इनके बारे में विक्रम ने ८-९ साल पहले डिसकवरी चैनल पर एक चलचित्र देखा था।


विक्रम एक अजीब सी कशमकश में पड़ गया था कि क्या करे? उन पर सीधा हमला करना बच्चे और केसिना के लिए भी घातक हो सकता था। और अगर वह उनके सामने जाता है तो वे उसे भी बंधक बना लेंगे, और फिर न जाने किस तरह पेश आए, क्योंकि उसे याद था कि उस डोक्यूमेंट्री में जो उसने टीवी पर काफ़ी साल पहले देखी थी, यह भी बताया गया था कि ये आदिम जाति के लोग इंसानों का मांस भी खाते थे। यह विचार मन में आने पर एक बारी उसके रोंगटे खड़े हो गए थे। कुछ सोचकर उसने धैर्य से ही काम लेने का निर्णय लिया, अतः उसने धीरे-धीरे धनुष पर बाण चढाये और उनकी तरफ़ बढ़ने लगा, उन लोगो के मुह नीचे घाटी की तरफ को थे, अतः वे विक्रम को नही देख पा रहे थे। उनके एकदम करीब पहुँचने पर विक्रम ने जैसे ही गले से एक बनावटी खांसी की, वे एकदम चौंककर खड़े हो गए और सबने अपने हथियार विक्रम की ओर तान दिए। विक्रम बचाव के लिए पहले से ही एक पेड़ के तने की ओंट में था,उसने धनुष पर से अपनी पकड़ ढीली करते हुए उस कबीले के सबसे अधिक उम्र के उस व्यक्ति की ओर चेहरा घुमाया जो प्रेम को हाथ से पकड़े था और उसकी तरह हाथ जोड़कर बोलने और इशारे करने लगा कि वह मेरा बेटा है और मेरी पीठ पर इसकी बहन है। विक्रम सतर्क रहते हुए नीचे झुका और एक बार उसने उसे फिर से अभिवादन की मुद्रा में हाथ जोड़े। उस व्यक्ति ने कुछ समझते हुए अपनी भाषा में अपने साथियो को कुछ कहा, शायद हथियार न चलाने का उनको निर्देश दिया था। फिर विक्रम की तरफ़ मुखातिव होते हुए उसने अपनी भाषा में कुछ कहा और हाथ से इशारा करने लगा, शायद वह कह रहा था कि तुम अपने हथियार फ़ेंक दो।

विक्रम ने फिर से हाथ जोड़कर उसको केसिना की तरफ़ इशारा करके हाथो से भिन्न तरह की मुद्राए बनाते हुए, केसिना को खोलने का आग्रह किया, और धनुष एक तरफ़ को बिल्कुल समीप में ही फ़ेंक दिया, ताकि वह यह समझ सके की इसने उसकी बात का सम्मान किया है। विक्रम के इस नुख्से ने काम किया, और कबीले के उस व्यक्ति ने दूसरे को अपनी भाषा में कुछ कहा और उसने केसिना को आजाद कर दिया और साथ ही विक्रम की ओर घूमकर अपनी भाषा में कुछ कहते हुए उन्हें बार बार नीचे घाटी की तरफ़ हाथ की उंगलियों से कुछ इशारा किया। विक्रम ने बिना मौका गवाए झुककर फिर से उसकी तरफ़ हाथ जोड़े। उसने प्रेम को भी छोड़ दिया था और प्रेम दौड़कर रोते हुए अपने पापा के पास आ गया था। कबीले के उस मुखिया ने इशारे से विक्रम को आगे आने को कहा, और विक्रम ने भी तुंरत वैसा ही किया। वह जानता था कि जरा सी चूक से बात बिगड़ सकती थी।

उसने कुछ लम्हों के लिए जिंदगी को एक बार फिर से भाग्य के भरोषे छोड़ने का निश्चय कर लिया था, वह जानना चाहता था कि आगे ये लोग क्या करते है, उसके बाद ही वह कोई निर्णय लेगा। एक अपने सदस्य को उसने विक्रम और केसिना के आगे-आगे रहने को कहा और फिर विक्रम और केसिना से इशारो में उसके पीछे चलने को कहा। विक्रम ने एक नज़र ऊपर पेडो के पीछे बैठे चिम्पैंजी पर डाली, जो पेडो के पीछे रहकर यह सब नजारा देख रहे थे। विक्रम ने उनकी तरफ़ देखते हुए हाथ से उनको इशारा किया और फिर अपने हाथ को मुह पर लाकर चूमा, मानो उनका धन्यवाद अदा कर रहा हो। कबीले के लोग एक बार फिर से उसकी यह हरकत देख कर सतर्क हो गए और हथियार उठा लिए, विक्रम ने पुनः हाथ जोड़े और उनको चिम्पैंजी की तरह इशारा करते हुए इशारो में ही समझाया कि वे चिम्पैंजी है और आपका कुछ नही बिगाडेंगे। कुछ आस्वस्थ होने के बाद कबीले के मुखिया ने अपनी भाषा में कुछ कहते हुए चलने का इशारा किया। केसिना ने भी विक्रम की ही तर्ज पर चिम्पैंजी को हाथ हिला अभिवादन किया।जब वे चलने लगे तो विक्रम ने देखा की वह अधेड़ सा दीखने वाला कबीले का सरदार पैरो से कुछ अपाहिज सा है क्योंकि वह चलते वक्त दोनों टाँगे एक भुजाकार आकृति में जमीन पर रखता था, साथ ही वह यह देखना भी नही भूला कि उन आदिवासियों ने उनके बैग उठाये या फिर वहीँ छोड़ दिए। दो युवा आदिवासियों ने दोनों बैग और एक बड़ा सा हिरन, जिसे वे जंगल से मारकर लाये थे, उन्होंने उस बांस के लठ्ठे पर लटका दिए थे ,जिसपर पहले वे केसिना को लटकाकर लाये थे।

करीब आधा-पौन घंटे के उबड़खाबड़ रास्तो के पैदल सफर के बाद वे लोग घनी झाडियों और पेडो के बीच खुले मैदान में बसी एक झुग्गी-झोपडी नुमा छोटी सी बस्ती में पहुंचे। बस्ती के समीप पहुचते ही बच्चो और महिलावो का एक झुंड रास्ते में उन्हें देखने के लिए आ गया। विक्रम और केसिना अपने प्लान के मुताविक अपने चेहरे और हावभावों से, अपनी मुख मुद्रा से ऐसा प्रर्दशित कर रहे थे जैसे वे किसी तनाव में नहीं है और इनके साथ खुद ही आ रहे है, और उनको यह नही महसूस होने देना चाह रहे थे कि वे डरे हुए है, और किसी दबाब में एक बंधक की भांति वहा लाये गए है, अतः दोनों ने,अगल बगल खड़े होकर तमाशा देख रहे उन बच्चो और महिलावो को हाथ हिला-हिलाकर अभिवादन किया। साथ ही इससे यह भी माहोल बन रहा था कि उस जगह के सभी लोग उनके साथ बिना हिचक दोस्ताना तरीके से पेश आ रहे थे।

बस्ती के बीचोंबीच पहुँच एक बड़ी सी झोपडी के समीप जाकर उस कबीले के मुखिया ने रुकने का इशारा किया। आगे झोपडी के बाहर आहते में एक मोटा ५५-६० साल के लगभग उम्र का व्यक्ति खटियानुमा किसी चीज़ पर लेटा हुआ था, उस मुखिया ने झुककर उसे सलाम किया और अपनी भाषा में कुछ बोला। वह व्यक्ति उठ बैठा और वह भी कुछ बोला, उसके बोलने के अंदाज से विक्रम को समझते देर न लगी कि इन आदिवासियों का असली मुखिया यही व्यक्ति है, मुखिया ने खांसते हुए विक्रम और केसिना को घूरा और फिर हाथ के इशारे से उन्हें अपने पास आने को कहा। विक्रम ने केसिना से धीरे से अंग्रेजी में कुछ कहा और दोनों ने उस व्यक्ति के समीप पहुंचकर झुककर उसे प्रणाम किया। उस व्यक्ति का वह काला कठोर चेहरा कुछ ढीला पड़ा, मानो उनके इस अभिवादन से खुस हुआ हो, लेकिन उसके चेहरे पर देखने से ऐसा लगता था कि वह काफ़ी समय से बीमार है। विक्रम और केसिना इन्ही खयालो में डूबे थे कि उस मुखिया को एक जोर की लम्बी खांसी आ गई, वह जब लगातार खांसता रहा तो विक्रम ने केसिना से कहा कि मेरा उसको छूना शायद उसे अच्छा न लगे इसलिए तुम उसकी नब्ज देखो। वह मुखिया खांसे जा रहा था, तभी केसिना ने आगे बढ़कर उसकी हाथ की नब्ज़ को अपनी उंगलियों से दबाकर परखा तो वह बुखार से तप रहा था, केसिना ने विक्रम से कहा कि इसे तो बहुत तेज बुखार है। विक्रम ने केसिना को पूछा कि जो फर्स्ट ऐड बॉक्स उसने सुबह करीना को दवाई देने के लिए निकाला था वह उसने कहाँ रखा था? केसिना ने बताया कि उसने वह बैग में रख दिया था।

सभी कबीलाई विक्रम, केसिना, उनके बच्चो और मुखिया की खटिया के इर्दगिर्द घेरा बनाये खड़े थे। विक्रम ने एक अनुभवी राजनयिक की भांति उस मुखिया को एक बार पुनः सलाम किया और दोनों हाथो के इशारे से उस व्यक्ति को, जो जंगल से उसे मुखिया की तरह साथ लाया था, अपना बैग उसे देने का आग्रह किया। वह विक्रम के इशारे को समझ गया था, अतः उसने एक युवा आदिवासी को वह बैग वहा लाने को कहा, वह युवक दौड़ कर दोनों बैग उसके पास ले आया। विक्रम ने बैग से दवा का बॉक्स निकाला और उसमे से बुखार की एक दवा की गोली निकाल पीने का पानी लाने का इशारा किया, युवक मटका भर पानी ले आया। विक्रम ने वह दवा की गोली उस मुखिया के हाथ में थमा उसे इशारे से निगल जाने को कहा । मुखिया कुछ देर तक विक्रम को और उस दवा को निहारता रहा और जब विक्रम ने पुनः इशारे से उसे भरोषा दिलाया कि कुछ नही होगा, मैं यहाँ पर हूँ तो उस मुखिया ने पानी के संग उस दवाई को खा लिया।विक्रम ने उसे लेट जाने का इशारा किया और पास रखा एक ऊनी चादर उसके ऊपर ओढ़ दिया। पैदल सफ़र और मानसिक थकान से चूर केसिना और विक्रम वहीँ उसकी खटिया के पास ही जमीन पर बैठ गए। अब तक के इनके व्यवहार से विक्रम को इतना तो यकीन हो गया था कि अकारण यह लोग उन पर हमला नहीं करेंगे, फिर भी वह चौकन्ना था। करीब आधे घंटे तक इन्तजार करने के बाद वह मुखिया उठकर पुनः बैठ गया, उसका शरीर पसीने से तर था और परिणाम स्वरुप बुखार गायब। उसकी खुसी का अंदाज़ विक्रम ने इस बात से लगाया था कि उन्हें जमीन पर बैठा देख मुखिया ने अपनी भाषा में डांटते हुए पास खड़े दो आदिवासियों को बांस की पत्तियों और छिलकों से बना आसन लाकर विक्रम और केसिना के लिए बिछाने को कहा था। धीरे-धीरे शाम घिर आई थी, चूँकि कबीलाई आदिवासी अँधेरा होने से पहले ही रात का खाना खा लेते हैं, अतः मुखिया के आदेश पर विक्रम और बच्चो के लिए मिटटी के मटके नुमा बर्तनों पर मक्के की रोटी और गोश्त परोषा गया। मुद्दतो के बाद ,आज विक्रम और केसिना को रोटी नसीब हो रही थी, दिनभर से भूखे बच्चो और विक्रम-केसिना ने बड़े चाव से और तसल्ली से खाना खाया। उसके बाद मस्का लगाने के लिए विक्रम ने थोडी देर तक मुखिया के पैर दबाये और उसके सिर की मालिश की तो मुखिया गदगद हो गया। उसने अन्य लोगो से बगल की झोपडी में उनके लिए विस्तर लगाने का निर्देश दिया। हालांकि बिस्तर लगाने का फरमान जा चूका था, मगर चूँकि बच्चे वही उनकी गोद में सो गए थे, इसलिए सुरक्षा कारणों को भी ध्यान में रखकर विक्रम और केसिना देर रात तक मुखिया के पास ही बैठे रहे, और आखिर में फिर उसे एक और बार दवा खिलाई।

आधी रात के करीब जब केसिना को भी नींद की झपकिया आने लगी तो वे उठकर पास की झोपडी में चले गए, जहां पर उनके लिए वही परंपरागत चटाई बिछायी गयी थी। विक्रम ने केसिना से कहा की इन अनजान आदिवासियों की जगह पर हम बेफिक्र होकर नहीं सो सकते, अतः पहले दो तीन घंटो के लिए तुम सो जावो और उसके बाद थोडा सा मैं सो लूँगा। इसतरह उनकी वह पहली रात आशंकाओ के विपरीत ठीकठाक गुजर गयी। उस आदिवासी इलाके की दूसरी भोर काफी मनमोहक थी। पेडो के झुरमुट से झांकती सूरज की पहली किरणे उस जंगली कबीले इलाके को, जहा तक नजर जा सकती थी, सौन्दर्यमय बना रही थी। कबीले का मुखिया भी एक तरह से पूर्ण स्वस्थ होकर बस्ती में चहल कदमी कर रहा था। देर से सोने की वजह से विक्रम कुछ देर से ही जागा, तब तक सूरज पूरा निकल आया था। मुखिया झोपडी के पास आकार अपनी भाषा में एक आवाज लगाकर अभी-अभी वहाँ से गया था। विक्रम उठने के बाद परिवार संग वस्ती से थोडी दूर एक नाले के पास नित्यकर्म के लिए गया था। बच्चो को खुले मैदान में बिठा, केसिना पास की झाडियों में गयी। अभी मुश्किल से पाच मिनट भी नहीं हुए होंगे की विक्रम ने झाडियों के पीछे से केसिना की घुटी-घुटी सी चीख सुनी तो चौंक गया, और दोनों बच्चे उठा, तेजी से उस तरफ भागा। उस झाडी के पीछे पहुंचकर, जहां केसिना नित्यकर्म के लिए गयी थी, विक्रम क्या देखता था कि तीन मुस्टंडे आदिवासी युवक केसिना को पकड़ उसका मुह दबा, उसके साथ जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहे थे, और केसिना अपने को उनके चंगुल से छुडाने का भरसक प्रयास कर रही थी। शायद उन्होंने विक्रम को नहीं देखा था, इसलिए विक्रम ने बच्चो को पास के एक पेड़ के पीछे बिठाया और प्रेमवन को धीरे से कैरिना को सँभालने और आवाज न करने की हिदायत देकर उनकी तरफ लपका। केसीना के ऊपर झुके दो आदिवासी युवको को पीछे से उनके सिर के बाल पकड़कर उसने ऊपर उठाया और कोहनी से दोनों की छाती पर जोर से वार कर दूर धकेल दिया। तीसरा जो , अपने को छुडाने के लिए छटपटा रही केसिना का मुह दबाये था, उसके पीछे से विक्रम ने एक जोर की लात मारी तो वह आगे सिर के बल लुड़क कर सीधा खडा हो गया। बगल से वे दोनों युवा आदिवासी भी खड़े हो गए थे, विक्रम ने बरसो पहले सीखे जूडो कराटे के हुनर को आज पूरी तरह यहाँ अजमाया और दस मिनट में ही तीनो को धुन डाला। दो को वही छोड़, एक को दबोचकर विक्रम फिर वस्ती में मुखिया के पास पहुंचा और उसे इशारे से सारी वस्तुस्थिति समझाई। मुखिया उस युवक पर आग बबूला हो गया और अपना कृपाण निकाल लाया। यह देख वह युवा आदिवासी थर-थर काँपने लगा और अपनी भाषा मे कुछ कहकर गिडगिडाने लगा। शायद जिंदगी की भीख मांग रहा था, विक्रम ने मुखिया के समक्ष चिरपरिचित अंदाज में हाथ जोड़ उसे क्षमा कर देने का आग्रह किया। मुखिया ने विक्रम की बात मानते हुए उस युवा आदिवासी को डांटते हुए वहाँ से भाग जाने को कहा।

मुखिया, विक्रम और उसके परिवार पर पूरी तरह से मेहरबान था। हर रोज सुबह वह बारी-बारी से अपने कुनवे के पास मौजूद दुधारू मवेशियों का दूध, विक्रम के बच्चो के लिए भिजवाता था। केसीना और विक्रम अब मुखिया से काफी घुलमिल गए थे, उन्होंने बात-बात में महसूस किया था कि मुखिया अपने-आप में एक अच्छा कलाकार है। अतः वे मुखिया को अपनी बात अब ज्यादातर जमीन में मिटटी में तरह-तरह के चित्र बनाकर समझाते थे। बाद में विक्रम को पता चला था कि जिन आदिवासी युवको ने केसीना पर हमला किया था, वे उस बस्ती के नहीं अपितु उसके पास वाली दूसरी वस्ती के थे, और यह नहीं जानते थे कि विक्रम और उसका परिवार, मुखिया का मेहमान बन के इस वस्ती में रह रहे है। विक्रम हर समय अब इसी ताक में रहता था कि किस तरह वह मुखिया को समझाए कि वह उन्हें इस जंगल से बाहर किसी शहर में पहुचने में मदद करे। अभी उन्हें इस बस्ती में आये १२ दिन ही हुए थे कि एक दिन शाम के वक्त उन्होंने देखा कि फिर से बस्ती के सारे आदिवासी एक झुंड बनाकर खड़े हो रखे थे। विक्रम ने समीप जाकर वस्तु स्थिति समझनी चाही तो उसके यह देखकर खुसी का ठिकाना नहीं रहा कि कुछ दूरी पर पांच-छः अंग्रेज से दीखने वाले लोगो का एक दल उस वस्ती की और बढ़ रहा था।जब भी कोई अनजान बाहरी लोग इन आदिवासियों की बस्तियों में आते है तो ये अपने हथियार उठाकर सतर्क हो जाते है, और जो कि इनके लिए जरुरी भी था। लेकिन जब वे लोग बिलकुल समीप पहुँच गए तो आदिवासी यह देखकर सामान्य से हो गए कि उनके साथ उनकी आदिवासी जाति का भी एक जाना पहचाना व्यक्ति शामिल था जो कि पढा-लिखा था, और ऐसे लोगो के साथ दुभाषिये और गाइड का काम करता था।

ज्यूं ही वे लोग बहुत समीप पहुचे, विक्रम ने हाथ हिलाते हुए उन्हें हाई-हेल्लो कहा। आदिवासी कभी विक्रम तो कभी उस दल का मुह ताकते थे। विक्रम ने देखा कि उनमे तीन पुरुष और एक महिला यूरोप के थे और दो अफ्रीकी मूल के थे, जिनमे से एक भेष-भूषा से उनका सुरक्षा गार्ड सा लग रहा था और आधुनिक रायफल हाथ में थामे था, तथा दूसरा वह गाईड था जो इसी कबीलायी जाति से सम्बद्ध था। इस तरह कुल छः लोग थे। विक्रम ने उन्हें अपना नाम परिचय बताया और उन्हें उस मुखिया के पास उसकी झोपडी में ले गया। फिर उस दुभाषिये गाइड ने मुखिया से उन सब का परिचय करवाया। विक्रम ने केसीना और बच्चो को आवाज देकर झोपडी से बाहर बुलाया और उनका परिचय भी अपने परिवार से करवाया। वे सभी लोग इस बात से हैरान थे कि एक एशियन और एक यूरोपियन युवती अपने परिवार संग यहाँ पर इन लोगो के बीच कैसे? अतः उन्होंने कौतुहलबश दनादन सवाल दागने शुरु किये। कुछ सुस्ताने पर विक्रम ने उन्हें सारी कहानी सुनाई तो वे लोग सुनकर द’ग रह गए और आँखे फाड़-फाड़ कर विक्रम, केसीना और उनके बच्चो को देखने लगे। उन्होंने अपना परिचय केसीना को देते हुए बताया कि वे यूरोप के एक प्रमुख वन्यजीव सस्थान से है और खासकर चिम्पैजी पर अनुसंधान के सिलसिले में इन जंगलो में आये है। केसीना भी आज एक मुद्दत के बाद अपने पुराने एसेंट (लहजे) में किसी से बात कर रही थी, और उसे अच्छा महसूस हो रहा था। केसिना और विक्रम ने जब अपनी सारी आपबीती उन्हें सुनाई तो वे भी भाव-विभोर हो उठे और दोनों को गले से लगाया ! वे उन दोनों की हिम्मत की बार-बार सराहना करते नही थक रहे थे, और साथ ही उन्हें यह भी ढाढस बंधा रहे थे कि उनके बुरे दिन अब ख़त्म हुए। हम लोग तुम्हे तुम्हारे घर तक पहुंचाने में पूरी मदद करेंगे। उस दल ने उस रात वहीँ पर रुकने का निश्चय किया।

केसीना और उस दल की महिला सदस्य शीघ्र ही दोस्त बन गए थे। केसीना को भी आज मानो अपने दिल के अन्दर बर्षो से दबाये हुए उसके सारे दुख-दर्द को सुनने वाला कोई मिल गया था, अतः वे लोग देर रात तक बातो में लगे रहे। उससे अपने दिल की सारी बाते कहने के बाद केसीना अन्दर से काफ़ी हल्का महसूस कर रही थी। वह युवती केसीना के उस आश्चर्यचकित कर देने वाली जीवन कहानी को सुनकर बहुत ही प्रभावित हुई थी और बीच बीच में केसीना को उसके हिम्मत की दाद देते हुए नही थकती थी। केसीना भी उसे पाकर बार-बार मन ही मन अपने भगवान् को याद कर उसका शुक्रिया अदा करती थी। उसे पूर्ण विश्वास हो चला था कि अब शीघ्र ही वह अपने माँ-बाप के पास लन्दन पहुँच जायेगी।

सुबह उठकर फ़्रेश होने के बाद, वे सभी लोग वहाँ इकठ्ठा हो गए। उन्होंने जब विक्रम को बताया कि वे चिम्पैंजी पर अध्ययन करने यहाँ आये है और तीन-चार दिन ठहरेंगे तो विक्रम ने उन्हें भरोषा दिलाया और कहा कि समझो उनका यह काम एक बहुत ही अच्छे ढंग से निपट गया है, उसने उन्हें अपने साथ रह रहे उन चिम्पैंजी की कहानी सुनाई। चिम्पैंजी के बारे में विक्रम की बात सुन वह पूरा दल उत्साह से भर गया था, और वे भी मान बैठे थे कि उनका यह मिशन पूरी तरह सफल रहेगा। सफ़र पर निकलने से पहले विक्रम ने उस दल के दुभाषिये को निवेदन किया कि चूँकि वह इन आदिवासियों की भाषा अच्छी तरह से जानता है, अतः वह उन आदिवासियों के मुखिया और उस व्यक्ति को जिसने जंगल में विक्रम का आग्रह मानकर केसिना के हाथ पैर खोल दिए थे, उन्हें तहे दिल से शुक्रिया उनकी तरफ से अदा करे। दुभाषिये ने जब विक्रम की बात उन तक पहुंचाई तो मुखिया और उस व्यक्ति ने विक्रम की तरह देख अपने दोनों हाथ खड़े किये। विक्रम ने झट से जाकर मुखिया के पैर छुए और उस व्यक्ति को गले लगा लिया, वह व्यक्ति विक्रम का यह स्वाभाव देख अपने आंसू नहीं रोक पाया। विक्रम ने कहा कि वह उन लोगो को जिंदगी भर नहीं भूल पायेगा क्योंकि हालांकि शुरु में उसे उन पर तब गुस्सा आ रहा था, जब वे केसिना और उसके बेटे को उठा कर ले आये थे, मगर अब वह सोच रहा था कि वे लोग तो उनके लिये भगवान बन कर आये थे। ऐसा नहीं होता तो आज इन यूरोपियन लोगो से उनकी मुलाकात शायद कभी नहीं हो पाती, इसलिए जो हुआ था, वो अच्छे के लिए ही हुआ था।

विदाई के वक्त हाथ हिला-हिला कर उन सभी ने आदिवासियों से विदा ली। विक्रम को जंगल के उस रास्ते का ठीक से पता नहीं था, जहा पर वह विमान का टुकडा था, इसलिए दल के मुखिया से कहकर उन्होंने वस्ती से दो आदिवासियों को भी अपने साथ ले लिया था। उस पूरे डेड-दो घंटे के उबड़खाबड़ और ऊँचे नीचे सफ़र में विक्रम के दोना बच्चे, प्रेमवन और कैरिना को उन दोनों आदिवासियों ने अपने कंधे पर ही बिठाये रखा। जब सभी लोग विक्रम और केसिना के उस पुराने ठिकाने के पास पहुंचे तो विक्रम और केसिना को एक बारी लगा कि मानो वे लोग पुनः अपने घर लौट आये है। वहाँ पहुँच केसिना ने उन्हें अपना वह पूरा घर दिखाया, जिसमे वे आठ सालो से रह रहे थे, हर उस चीज़ के बारे मे उनको बारीकी से समझाया, जो उन्होंने उस दौरान प्रयोग की थी। वे सभी विक्रम और केसिना की बाते सुन-सुनकर और उस जगह की स्थिति देखकर हैरान थे, और बार-बार उनकी हिम्मत की दाद देते नहीं थकते थे। वहाँ पहुँचने में काफी वक्त लग गया था और अब शाम होने में कुछ ही घंटे बाकी थे, अतः सभी ने अपना अपना सामान जमाना शुरु कर दिया था। टेंट गाड़ने की उन्हें जरुरत नहीं थी, क्योंकि उस विक्रम की बनायीं हुई चार दिवारी और विमान के उस टुकड़े के अन्दर काफी जगह थी। खाने के लिए हालांकि उस दल के पास प्रयाप्त खाना था फिर भी विक्रम अपने उस पुराने शिकार के मैदान से रात के खाने के लिए गोश्त भी ले आया था। एक जो चिंता अब उसे सता रही थी वह यह थी कि अब तक उन चिम्पैंजी का झुंड उसे कही नजर नहीं आया था, जिसके लिए यह दल उनके साथ आया था। शाम को उसने अपने उन परंपरागत बर्तनों में गोश्त और अन्य चीजे पकाई, और फिर रात का भोजन कर वे सभी लोग आराम करने लगे। विक्रम ने गोश्त का एक बड़ा हिस्सा जान बूझकर बचा लिया था।

अगली सुबह विक्रम और केसिना के लिए कोई अलग नहीं थी क्योंकि वे इस माहौल में पूरी तरह रचे बसे थे। जरुरी कामो से निपट, विक्रम ने केसिना को उसी पुरानी आवाज और अंदाज में मादा चिम्पैंजी को बुलाने के लिए आवाज लगाने को कहा, जो वह पहले अक्सर किया करती थी। केसिना ने जोर से आवाजे लगायी, मगर चिम्पैंजी का कोई अता पता नहीं था। दोनों उस जगह से हटकर काफी दूर तक गए और वहा से भी आगे घाटी में जहां तक आवाज पहुँच सकती थी, उन्होंने आवाज मारकर उस मादा चिम्पैंजी को बुलाने की कोशिश की, मगर कोई सुराग हाथ न आया। विक्रम थोडा परेशान लग रहा था, मगर केसिना ने उसे समझाया कि वह परेशान न हो, अगर चिम्पैंजी उस इलाके से कहीं बहुत दूर न गए हो तो दोपहर के समय उस नदी के तट पर पानी पीने के लिए ज़रूर इकठ्ठा होंगे, जहा वे पहले रोज जाते थे। करीब आधा घंटा गुजर जाने के बाद जब सभी लोग झोपडी नुमा किचन के इर्दगिर्द बैठकर नाश्ता कर रहे थे, कि तभी विक्रम को बाहर झाडियों मे कुछ हलचल होने और पत्तो पर किसी भारी वजन वाले जानवर के पैर पड़ने से उत्पन्न आवाज सुनाई दी। विक्रम नाश्ता छोड़ तेजी से गेट की ओर लपका, और बाहर मादा चिम्पैंजी को देख कैसिना को पुकारते हुए बाहर चिम्पैजी की ओर दौडकर गया और उसे अपने गले से लगा लिया। सभी लोग अब तक उस गेट के समीप आ चुके थे, चिम्पैंजी और विक्रम के आपसी प्यार को देख सभी गदगद थे, और मुस्कुरा रहे थे। केसिना ने भी लपककर मादा चिपैंजी को गले लगाया, लेकिन इस बीच चिम्पैंजी की नजर और लोगो पर भी पड चुकी थी, और वह सहम कर उल्टे पाँव पीछे हटने लगी। केसिना और विक्रम तुंरत भांप गए कि यह क्यों पीछे हट रही है। विक्रम ने केसिना को उसे रोके रखने को कहा और दौड़कर अन्दर गया और रात का बचाया हुआ गोश्त, जो कि उसने यही सोचकर बचाया था कि सुबह चिम्पैंजी आएगी तो उसे दूंगा,लाकर उस ट्रे समेत चिम्पैंजी के सामने रख दिया और उसका सिर सहलाने लगा । चिम्पैंजी कुछ देर तो सहमी सी उस ट्रे और उन लोगो को देखती रही, मगर जब विक्रम ने उन्हें एक एक कर उसके पास आने और एकदम सामने आकर उसे हाथ हिलाकर हाय कहने को कहा और जब उन लोगो ने वैसा ही किया तो चिम्पैंजी कुछ सामान्य हो गयी! गोश्त के एक दो टुकड़े खा उसने मुह से धीमी आवाज निकाली तो कुछ देर बाद आस-पास पेडो के झुरमुट के पास छुपा पूरा झुंड वहाँ आ गया और गोश्त खाने लगा। विक्रम ने उस यूरोपीय दल से भी उनके पास मौजूद मूंगफली और चिप्स के पैकेट से भी मुठ्ठी भर मुगफली और चिप्स लाकर उनके सामने रखने को कहा। बस फिर क्या था, वे लोग कुछ ही पलो में उन चिम्पैंजी संग अच्छी तरह से घुल मिल गए।

विक्रम और केसिना के सहयोग से चिम्पैंजी और वन्य जीवो पर उम्मीद से कहीं अधिक सामग्री इकठ्ठा कर लेने पर वन्यजीव अनुसंधान से सम्बंधित वह पूरा का पूरा यूरोपियन दल खुश था। केसिना और विक्रम ने भी पिछले आठ सालो के दौरान इन जीव जन्तुवो के अपने डिजीटल कैमरे में उतारे कुछ बहुत ही दुर्लब चित्र उन लोगो को दिए ! यहाँ आये उन्हें अब चार दिन हो गए थे, अतः वापसी की तैयारी शुरु हुई। अगले दिन सुबह होते ही वे लोग अपने गंतव्य की और चल पड़े। उस जगह को छोड़ते वक्त, जहाँ विक्रम और केसिना की आँखों में एक अजीब सी उदासी थी, वहीँ मन के किसी कोने में यह खुशी की उमंग भी कुलाचे भर रही थी कि जल्दी ही वे अपनों के पास होंगे, इस जंगल से दूर एक शहर में, जहां उन्हें रोज मर्रा की जिंदगी जीने के लिए हर रोज जीना और मरना नहीं पड़ेगा, जहां उनके पास जीवन की जरुरी वस्तुवो का अभाव नहीं होगा, और खासकर एक दिन गुजरने पर शाम को अगले दिन के लिये एक बड़ा शून्य उनकी आखो के आगे नहीं आएगा। चिम्पैंजी का पूरा दल भी एक उदासी भरी नजरो से उन्हें जाते देख रहा था, विक्रम और केसिना ने आज जी भरकर उस मादा चिम्पैजी और अन्य चिम्पैंजी को गले लगाकर दुलारा था, शायद यह अब उनकी आखिरी मुलाकात थी, उनका दिल तो कर रहा था कि उन्हें भी अपने साथ ले चले, मगर जिनकी खुद की जिंदगी अभी भी एक बड़े प्रश्न चिन्ह के साथ मझधार मे लटक रही थी, वे भला उनको कैसे और कहाँ ले जाते? साथ ही वे यह भी जानते थे कि इन चिम्पैंजी का असली और महफूज़ घर, ये जंगल ही है। आधे रास्ते मे उन दो कबीलायी युवको से विदा लेने के बाद, जिन्हे वे लोग जंगल मे रास्ता दिखाने के लिये साथ ले गये थे। चलते-चलते करीब चार घंटे के पैदल सफर के बाद वे आखिरकार समुद्र के एक छोर पर थे। घाना के दक्षिणी तटीय शहर एल्मिना के तट के समीप का इलाका, केसिना ने देखा कि समुद्र किनारे एक छोटा जहाज लंगर डाले खडा था, उसे समझते देर न लगी कि यही इनका जहाज होगा।

सभी लोग जहाज में सवार हो इंग्लॅण्ड की और प्रस्थान कर गए। जहाज धीरे-धीरे गन्त्व्य को निकल पडा, बैठे-बैठे अब केसिना को मन ही मन विक्रम से बिछड़ने का डर सताने लगा था। वह किसी भी कीमत पर उसे खोना नही चाहती थी, उन आठ सालो में वे दोनो एक दूसरे के जितने करीब रहे, जितना प्यार उसे विक्रम से मिला था, वह उसे १७ सालो में अपने माँ- बाप से भी नही मिला था। इन सालो में दोनों ने जितने करीब से एक-दूसरे का सुख और दुःख, जिंदगी और मौत को साथ साथ महसूस किया था और उसका मुकाबला किया था, हर कष्ठ मे भागीदार बने थे, वह कभी न भुला सकने वाला एक खट्टा मीठा अनुभव था।

जहाज आइवरी कोस्ट होता हुआ इंग्लैंड के तटीय शहर डयमचर्च के लिए चल पड़ा था, और करीब सात दिन के सफर के बाद सेंट पीटर पोर्ट होता हुआ इंग्लिश चैनल को पार कर डयमचर्च पंहुचा। पोर्ट पर अनुसंधान दल की भरपूर मदद और सहयोग के सहारे उन्हें लन्दन शहर में प्रवेश करने का, न सिर्फ़ एक वैध प्रवेश पत्र मिल गया था, अपितु दल द्वारा मीडिया को बताई गई उनकी सच्ची कहानी, और उस दल द्वारा उन जंगलो में खीची गयी तस्वीरे और विडियो रिकार्ड्स अगले दिन जब स्थानीय अखबारों में प्रकाशित हुए और टीवी पर इससे सम्बंधित खबरे प्रचारित हुई, तो पूरे शहर ने ही उन्हें सिर आखों पर बिठा दिया था। विक्रम और केसिना दोनो को अनुसन्धान दल का शुक्रिया अदा करने और उनसे विदा लेने के बाद केसिना के परिवार को ढूंडने में भी कोई खास दिक्कत नही हूई, अपनी एक मात्र औलाद को फिर से जिन्दा पाकर उसके माँ-बाप का तो खुसी का कोई ठिकाना ही नहीं था वे अपने भाग्य की इस मेहरबानी से गद-गद थे । उन्होंने विक्रम और अपने दोनों पोता-पोती को भी सहर्ष सर-आँखों पर बिठा दिया। बच्चे तो मानो इस सर्वसंपन्न नए संसार को पाकर अपनी पिछली दुनिया ही भुला बैठे थे। दो चार दिन तसल्ली से आराम फरमाने के बाद अब केसिना भी अपने पुराने अंदाज में आ गयी थी। घर पर पुराने दोस्तों और जान पहचान वालो का ताँता लगा था। विक्रम ने यह भी महसूस किया कि वह केसिना को जितना समझदार समझता था वह उससे भी कहीं बढ़कर थी। दोस्तों के समक्ष अपने पति और बच्चो को मिलाते वक्त जिस शालीनता और सौम्यता का परिचय वह देती थी और जिस चतुराई से वह विक्रम का एक अनोखे अंदाज में परिचय कराती थी। विक्रम को समझते देर न लगी कि वह एक बहुत ही चतुर महिला है। इन पिछले १० दिनों में उसने कहीं पर भी विक्रम को यह महसूस नहीं होने दिया कि अपने परिवार से मिल जाने के बाद केसिना के बर्ताव या व्यवहार में उसके प्रति कोई परिवर्तन आया है, उल्टे पति की तारीफों को वह निराले अंदाज में पेश करती।

चूँकि विमान हादसे से पहले केसिना इस शहर में करीब ४-५ साल रह चुकी थी, अतः शहर के हर कोने से वाकिफ थी। साथ ही केसिना यह भी जानती थी कि विक्रम भी बच्चो की ही भांति, पहली बार लन्दन आया था। इसलिए केसिना ने विक्रम और बच्चो को हर रोज लन्दन और आसपास के इलाको में मौजूद सभी प्रमुख जगहों पर घुमाया। केसिना के पिता ने केसिना की वह कार अपने गैरेज में बडे ही सुन्दर ढंग से सजो कर रखी थी, जिससे वह बहुत लगाव रखती थी और हादसे से पहले घर पर छोड़ गयी थी। सर्विस के बाद उसकी कार एकदम नयी कार को मात देती दीख रही थी, अतः केसिना जहां भी जाती, अपनी इस प्रिय कार में ही अपने परिवार को घुमाने ले जाती। लंदन के टेम्स नदी पर बने पुल का अवलोकन करना विक्रम और बच्चो के लिए एक सुखद अनुभव रहा। यह पुल दो भागों में बना हुआ है, जो जहाज के आवागमन के लिए बीच से खोला जा सकता है। इसके अलावा बच्चो और विक्रम के लिए दूसरा आकर्षण रहा, लंदन-आय के नाम से प्रसिद्ध विशाल हवाई-झूला। इस हवाई-झूले से लगभग सारा का सारा लंदन देखा जा सकता है तथा इसका एक पूरा चक्कर लगाने में करीब ४५ मिनट लगतें हैं। इसके बाद का जो दूसरा मनोरंजक पडाव था, वह था बकिंघम पैलेस । पैलेस देखने का आनंद तब दुगुना हो जाता है जब सुबह चेंज ऑफ गार्ड देखने का मौका मिलता है। संगीतमय परेड करते हुए महल की ओर जाते हुए रायल गाड्र्स को देखने के लिए हजारों की तादात में लोग रोजाना वहा उपस्थित होते हैं। शाही महल तथा शानदार परेड देखने के बाद तो बच्चे हतप्रभ थे, क्योंकि पहली बार उन्हे यह अजनवी दुनियां देखने को मिल रही थी। उसके बाद केसिना उन्हें प्रसिद्ध हिस्ट्री-म्यूजियम तथा जियोग्राफी-म्यूजियम भी ले गयी। उस शानदार रख रखाव वाले विशाल संग्राहालय में अपार ज्ञान है।

विक्रम ने पहले सुना था कि लन्दन में एक खुबसूरत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी है, और साथ ही एक ऐसा भाग भी है जिसे लोग मिनी-इंडिया कहते हैं। इस जगह का नाम है साउथ-हाल। विक्रम को याद था कि जब विमान हादसा हुआ था, तब उसके पर्स में तकरीबन ८०० अमेरिकन डालर बचे थे, जो उसने बैग की जेब के अन्दर यह सोचकर रख दिए थे कि अब इस जंगल में इनका क्या काम? जब उसे उनका ध्यान आया तो उसका चेहरा खिल उठा। हालांकि केसिना ने तो पिछले आठ सालो में कभी नहीं बताया था, और उन जंगली हालात के मद्देनजर, न ही कभी विक्रम ने पूछने की जरुरत ही समझी थी कि उसका जन्मदिन कब आता है? मगर अब परिस्थितिया बदल चुकी थी। उसकी सास, यानि केसिना की मम्मी ने कल ही रात्रि भोज की टेबल पर याद दिलाया था कि परसों केसिना का जन्मदिन भी है, यह सुनकर विक्रम इसी कशमकश में था कि आखिर जन्म-दिन का वह केसिना को क्या तोहफ़ा देगा? यूँ तो उनके पास वहाँ पर कोई कमी नाम की चीज़ ही नहीं थी, मगर सास-ससुर के पैसो से खरीदकर विक्रम केसिना को तोहफा देना किसी भी नजरिये से उचित नहीं समझता था। यह जान कर कि उसके पास भी अपने ८०० डॉलर है, उसकी चिंता जाती रही। उसने केसिना को कहा कि वह उन्हें घुमाने साउथ-हाल ले चले। केसिना दोपहर के भोजन के बाद उन्हें साउथ-हाल घुमाने ले गयी। वहाँ के बाजार भी अमूमन हिन्दुस्तानी सामान से ही पटे पड़े रहते है। ब्रिटेन मे बसने वाले भारतीय अक्सर अपनी जरुरत का हिन्दुस्तानी सामान खरीदने यही पर आते है, अतः विक्रम की दिली ख्वाइश थी कि एक बार केसिना को अपने हिन्दुस्तानी लिवास, साडी-ब्लाउज में देखू, मगर चूँकि वह यह भी जानता था कि न तो केसिना साडी ठीक से बाध पाएगी और ना ही उसे बदन पर संभाल पाएगी, इसलिए उसने केसिना के लिए अपनी पसंद का एक पंजाबी सूट-दुपट्टा खरीदा।

आज केसिना का जन्मदिन था, सुबह-सबेरे विक्रम ने केसिना को अपने अंदाज में सर्वप्रथम जन्मदिन की बधाई दी थी। फिर नहा-धोकर केसिना को उसने वह पंजाबी सूट पहनने को कहा। केसिना ने जब शूट पहना तो विक्रम कुछ पल को उसे ही निहारता रहा था, और फिर उससे लक्ष्मीनारायण मंदिर चलने को कहा। सिर में दुपट्टा ओढ़ने तथा माथे पर बिंदिया लगाने के उपरांत, दुपट्टे के अन्दर केसिना के भूरे बालो के छुप जाने से, केसिना एक खुबसूरत विशुद्ध भारतीय नारी ही नजर आ रही थी। वहाँ उसकी पहचान की जो भी स्त्री उसे देखती, मुंह से बस 'वॉउ' शब्द निकालते हुए उसे चूम लेती थी। लक्ष्मीनारायण मंदिर पहुंचकर विक्रम ने पूजा-अर्चना की, केसिना हालांकि एक यूरोपियन महिला होते हुए भी, पति के आचरण के मुताविक ही, वह सब कुछ कर रही थी, जो वहा विक्रम कर रहा था। आखिर वह भी अब एक हिन्दू परिवार से सम्बद्ध हो चुकी थी। रात को पार्टी में भी दोनों ने उसी लिबास में बच्चो , दोस्तों और परिवार संग फोटो खिंचवाए। विक्रम आज उसे हर सम्भव ख़ुशी देना चाहता था। अतः वह पल-पल उसके साथ था और उसे कहीं भी यह महसूस नहीं होने देना चाहता था कि उसके मन के अन्दर क्या कुछ पक रहा है। पार्टी ख़त्म होने पर जब मेहमान विदा हो रहे थे, तो उसकी पुरानी स्पेनिश मित्र ने उन्हें अगले दिन शाम को रात्री-भोज पर अपने घर आमंत्रित किया था। विक्रम चूँकि एक अजीब किस्म के मानसिक द्वंद से गुजर रहा था, अतः उसने फोन कर केसिना की मित्र से अस्वस्थ होने का बहाना कर खुद उपस्थित न हों पाने के लिए क्षमा मांगी और केसिना तथा बच्चो संग अपनी सास को जाने का आग्रह किया। उन लोगो के पार्टी में चले जाने के बाद अब घर पर विक्रम और उसके ससुर ही मौजूद रह गए थे।

अब बारी विक्रम की थी, अपने दिमाग के घोडे दौडाने की। वह सोच में पड़ा रहता था, कि अब किस तरह मैं इन्हे छोड़कर वापस अपने देश जाऊ ? कुछ दिनों से उसकी परेशानी उसके माथे पर साफ़ झलकती थी और वास्तविकता से बेखबर उसके बच्चो, प्रेमवन और कैरिना ने तो दोपहर में पूछ ही लिया था कि पापा आप जंगल से यहाँ आने पर खुश नहीं है क्या ? आपको जंगल की बहुत याद आती है? तो उसने सीधा जबाब न देकर उन्हें यह गाना सुनाया था;
मेरे प्रेमवन, मेरी कैरिना, तुम्हे क्या बताऊ मैं इस घड़ी
दिल में मेरे है कौन सी, जज्बात की उलझन बड़ी
मेरे इस सफर में न जाने क्यो, मुश्किलें इतनी पड़ी
कि है जिंदगी फिर इक नए , मोड़ पर आकर खड़ी
आ गयी फिर से मेरे इम्तहान की नयी इक घड़ी
मेरे प्रेमवन, मेरी कैरिना, तुम्हे क्या बताऊ मैं इस घड़ी
कशमकश में हूँ जी रहा कि साथ मै किसके रहूँ
दिल में है इक दर्द जो, कहूं भी तो किससे कहूँ
इक तरफ़ मेहरबानिया किसी की मुझ पर बड़ी
मेरे प्रेमवन, मेरी कैरिना, तुम्हे क्या बताऊ मैं इस घड़ी

हैं और भी सिवा तुम्हारे इस सफर का प्यार मेरा
करती होंगी राह तककर बेताविया,कंही इन्तजार मेरा
बन गए तुम भी मेरी जिंदगी की इक लड़ी
मेरे प्रेमवन, मेरी कैरिना, तुम्हे क्या बताऊ मैं इस घड़ी.......!

इस छोटे से १०-१५ दिन के पडाव में विक्रम ने यह भी नोट किया था कि उसके ७०-७५ वर्षीय वृद्ध ससुर एक बहुत ही सुलझे किस्म के इंसान थे, और हर बात को बड़े ही ठंडे दिमाग से सुनते और समझाते थे। घर पर बच्चे भी इसीलिए अधिकांशत: नाना पर ही चिपके रहते थे। चूँकि शाम के खाने पर घर में सिर्फ ससुर और जवाई यानी विक्रम और केसिना के पिता ही थे, अतः विक्रम ने अपने दिल का बोझ हल्का करने का यह उचित अवसर समझा, यू भी विक्रम को उदास देख पहले ही उसके ससुर दो-तीन बार उसकी उदासी का कारण पूछ चुके थे। विक्रम और उसके ससुर ने जब भोजन कर लिया तो खाने की टेबल पर ही विक्रम ने एक भारी स्वर में अपने ससुर को संबोधित किया, पापा, मैं आप से अपने दिल की कुछ उलझने बांटना चाहता हूँ । उसके ससुर ने बिना कोई हाव-भाव में परिवर्तन लाये शांत स्वर में कहा कि बेटा मैं भी नोट कर रहा था कि तुम कुछ दुखी हो, इसलिए जो भी तुम कहना चाहते हो निसंकोच कह डालो। विक्रम ने अपनी पिछली जिंदगी की सारी कहानी अपने ससुर को सुना डाली, और कहा कि मै नेहा और केसिना दोनो मे से किसी एक को नही चुन सकता । परिस्थितियो ने भले ही मुझे ऐसे मुकाम पर ला खडा कर दिया हो, मगर मै दोनो मे से किसी एक को नही छोड सकता हूं । उसकी बात सुनने के बाद उसके ससुर उसकी तरफ देख थोडा मुस्कराए और फिर उन्होंने कहना शुरु किया; बेटे ! मेरी कहानी तुम से ज्यादा भिन्न नहीं है, मैं तब ७-८ साल का था जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान १९४१-४२ में जर्मन सेनावो ने मास्को पर आक्रमण किया था। इस भयंकर युद्ध में मेरे अलावा मेरे परिवार के दो सदस्य, मेरे दादाजी और मेरे चाचाजी को छोड़कर सब लोग मारे गए थे। हमने इधर-उधर छिपकर किसी तरह अपनी जान बचायी थी। दो तीन सालो तक दर-दर की ठोकरे खायी और फिर १९४६ के आस-पास मेरे दादाजी और चाचाजी ने मिलकर मास्को में एक कपडे की दुकान खोली। लेकिन कुछ समय बाद ही मेरे चाचा भी दुनिया से चलते बने थे।

अब घर की सारी जिम्मेदारियां मेरे ऊपर आ गयी थी, दादाजी बूढे हो चले थे, अतः कई बार उनकी बीमारी पर घर और दूकान दोनों का काम मुझे खुद ही संभालना पड़ता था। जैसे-तैसे मैं बड़ा हुआ, इन हालात में ही स्कूल की पढाई भी पूरी की। मैं तब सत्रह साल का था, जब मेरे दादा जी ने मेरी शादी, मेरी हमउम्र, फयिना से कर दी थी। उस दौर की अन्य रुसी महिलाओं की भांति फयिना भी एक मजबूत और कठोर दिल महिला थी। उसने भी द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मन सेनावो की बर्बरता झेली थी, और अपने बहुत से सगे- सम्बन्धी खोये थे। दरह्सल रुसी क्रांति और द्वितीय विश्व युद्ध की मार ने, वहाँ महिला पुरुष के अनुपात में एक बहुत बड़ा अंतर ला दिया था। पुरुषो की कमी के कारण धीरे-धीरे महिलावो ने वो सारे काम करने शुरू कर दिए थे, जो सामान्यत पुरुष किया करते है, और यही वजह थी कि महिलाये धीरे-धीरे न सिर्फ आत्मविश्वास से परिपूर्ण और स्वाभलंबी होती गयी, बल्कि कठोर दिल भी हो गयी। मेरी शादी के कुछ ही महीनो बाद दादाजी भी चल बसे। फयिना ने वक्त और हालात के मुताविक न सिर्फ घर, अपितु दुकान को भी एक प्रभावी ढंग से मेरे साथ संभालना शुरु कर दिया था। शीघ्र ही हमारे व्यवसाय ने तेजी पकड़ी और एक दिन ऐंसा भी आ गया कि हम सर्वसंपन्न हो गये थे। हमने शादी के बाद से अब तक का जीवन कठोर मेहनत और जिंदगी की मुश्किलों से लड़ने में ही लगा दिया था। अब हमने एक सुन्दर घर भी मास्को में खरीद लिया था, अतः फयिना और मैं अपने पहले बच्चे के सपने देखने लगे थे।गर्मियों के दिन थे, अतः हमने छुट्टी पर मास्को से बाहर जाने का प्लान बनाना शुरु किया, यूँ भी शादी के बाद से हम मास्को से बाहर नहीं गये थे, अतः बहुत सोच विचार कर हमने तत्कालीन सोबियत संघ के एक प्रान्त और अब के उज़बेकिस्तान घूमने का प्लान बनाया।

जुलाई का महिना था, इस समय का मौसम न सिर्फ मास्को में बल्कि उज़बेकिस्तान में भी एक उपयुक्त समय माना जाता है, न अधिक ठण्ड, न गर्मी। १९ जुलाई,१९७६ को हम मास्को से उजबेकिस्तान के लिए रवाना हुए। वहाँ पहुच एक होटल में पांच दिन के लिए कमरा बुक किया, और फिर हमने उजबेकिस्तान के प्रमुख शहर और अब उसकी राजधानी तासकंद के अनेक म्यूजियम घूमे। तासकंद मध्य एशिया के सबसे पुराने शहरो में से एक शहर है, पांच दिन हम तासकंद में ही लुफ्त उठाते रहे और फिर छठे दिन एक और शहर के लिए निकल पड़े। २८ जुलाई, १९७६, फयिना और मैं इस फुरसत के एक-एक लम्हे को जी भर के जी लेना चाहते थे। मगर वहाँ भी बदनसीबी मेरा पीछा कर रही थी, रेस्टुरेंट से खाना खा अभी हम कमरे पर ही लौटे थे कि होटल की बिल्डिंग हिलने लगी। सामने बोर्ड पर रखा टीवी नीचे फर्श पर आ गिरा था, फयिना मेरे आगे पहले कमरे में घुसी थी और कमरे के दूसरे छोर पर खिड़की के परदे को फैला रही थी, मैं अभी कमरे के दरवाजे पर ही था। अनिष्ट की आशंका को ध्यान में रख, मैंने फयिना को लगभग चिल्लाते हुए बाहर निकल आने को कहा। फयिना सकपकाई सी ज्यूँ ही बाहर आने को मुडी कि कमरे की दीवार का वह हिस्सा गिर गया, जिसके सामने फयिना खड़ी थी। मैं इस अचानक आई विपत्ति से बौखला सा गया था, मैंने होटल के स्टाफ को आवाज लगायी लेकिन कोई मदद न मिली। फयिना मलवे के नीचे फर्श पर दबी पड़ी थी, मैंने तेजी से खुद ही ईंट-पत्थरो को हटाना शुरु किया, मगर जब तक मैं फयिना को उस मलवे में से बाहर निकाल पाया, बहुत देर हो चुकी थी, फयिना दम तोड़ चुकी थी। मैं अपना माथा पीटकर रह गया, बाद में मुझे पता चला कि यह एक बहुत तीव्र भूकंप था जिसमे उज्बेकिस्तान के हजार से अधिक लोगो की जान चली गयी थी।

मैं अर्ध- विक्षिप्त अवस्था में वापस मास्को लौट आया, दो साल तक मैं पागलो की भांति फयिना को ही ढूडता रहा। कहीं भी भीड़ में कोई मुझे फयिना जैसी औरत नज़र आती तो मैं फयिना का नाम पुकारते हुए दौड़कर उसके पास जा पहुँचता था। इस दौरान मेरी यह हालत देख, मेरे एक मित्र ने मेरी काफी मदद की, उसने मुझे हर संभव आर्थिक मदद भी पहुंचाई। वह भी अब इस दुनिया में नहीं है। १९७८ में उसी ने मुझे केसिना की माँ और तुम्हारी सास जेलेना से मिलाया था। हालांकि जेलेना, फयिना की तरह मजबूत दिल महिला नहीं है फिर भी उसने हर अच्छे-बुरे वक्त में मेरा साथ दिया और उसी की बदौलत मैं मास्को में फिर से अपना व्यापार जमा पाया। हमारी शादी के तीन -चार साल बाद केसिना हुई तो धीरे-धीरे हमारे घर में फिर से खुशहाली आने लगी और हमारा कारोबार आगे बढा। पंद्रह साल पहले १९९३ में मैंने यहाँ लन्दन में भी अपने व्यवसाय की एक इकाई खोल डाली। जेलेना मास्को में कारोबार को देखती थी और मैं यहाँ लन्दन में अपना कारोबार देखता था, कुछ सालो के बाद आगे की पढाई के लिए केसिना भी मेरे साथ यहाँ आ गयी थी। वह पढने में काफी होशियार थी, अतः मैंने उसे प्रोमिस किया था कि अगर मिडटर्म परीक्षा में उसके अच्छे मार्क्स आये तो मैं उसके एक हफ्ते के लन्दन से बाहर घूमने का इंतजाम करूँगा। ज्यों ही परिणाम निकला और उसके अब्बल मार्क्स आये थे, प्रोमिस के मुताविक वह घूमने निकल पड़ी, और तभी.........!

विक्रम के ससुर ने आगे बोलना शुरु किया, बेटा ! तुम्हारे पास भी अभी एक बहुत लम्बी-चौडी जिंदगी जीने के लिए पड़ी है परिस्थितियों के मद्देनजर, न तुमने नेहा के साथ कोई दगा किया और न केसिना के साथ कोई नाइंसाफी। तुम बेकसूर हो, लेकिन अब जो तुम्हारे सामने हालात है उसके बीच कहीं न कही तुम्हे कुछ समझौते करने पड़ेंगे। कुछ पाना है तो कुछ खोना भी पड़ेगा, लेकिन समझदारी इसमें है कि कम खोकर अधिक कैसे पाया जाए ? तुम्हें पूरे तौर पर केसिना को भी अपनी इस दुविधा से रूबरू होने के लिए, उसे ठंडे दिमाग से समझाना चाहिए और मुझे पूरा यकीन है कि केसिना एक समझदार लड़की है, उसे इन सब बातो को समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। मैं भी अपने तौर पर उसे समझाऊंगा कि तुम्हारा इंडिया जाना भी एक जरुरी बात है। अब दूसरे पहलु पर आता हूँ, तुम केसिना से सलाह कर इंडिया जाओ, मगर जहां तुम्हे अपनी पहली पत्नी नेहा उसके बच्चे और परिवार के अन्य सदस्यों का ख़याल रखना भी जरुरी है, वही बिलकुल वही बात केसिना और उसके बच्चो के बारे में भी तुम्हारा समझना जरुरी है। मैं अब बूढा हो चला हूँ, अतः वापस मास्को जाने का प्लान बना रहा हूँ, वहा पर भी मेरा अपना बिजनेस है, अतः उचित यही रहेगा कि तुम इंडिया जाकर अपने परिवार को भी यहाँ पर ले आवो और केसिना संग मेरे इस बिजिनेस को संभालो। विक्रम के ससुर आगे कुछ ओर बोलना चाहते थे कि तभी बाहर से दरवाजे की घंटी बजी, विक्रम के ससुर बोले लगता है वे लोग पार्टी से वापस आ गये है, चलो देखते है।

काफ़ी सोच विचार के बाद उसी रात को विक्रम ने अपने मन की बात केसिना को बताई तो वह फफककर, उससे लिपटकर रो पड़ी। उसे तो तब से ही यह डर सता रहा था, जब वे लोग घाना के जंगलो से वापस लौटने को हुए थे कि पता नही कब विक्रम उससे दूर चला जाएगा। विक्रम ने भी उसकी भावनावो को समझ उसे प्रेम से समझाया बुझाया और अपने मन की सारी बात तथा रात को डाईनिंग टेबल पर उसके पिता के साथ उस बारे में हुई बात की चर्चा और उनके सुझाव, सभी उसने केसिना के समक्ष रख दिए। केसिना भी जानती थी कि इसमे विक्रम का कोई दोष नही, दोनों हालात के मारे थे । लोग अक्सर आसानी से कह डालते है कि अब इन बातो का क्या फायदा, मगर जो इंसान इन परिस्थितयों से गुजरता है उसके लिए गुज़रे हुए कल को भुला पाना कितना कठिन है, वही इंसान जान सकता है। इंसान के मन के विचार जैसे समुद्र की लहरें हैं, एक को रोकिये दूसरी आ जाती है और कभी थमती ही नहीं। काफ़ी आनाकानी और ना-नुकुर के बाद दोनों के बीच यह सहमती हुई कि विक्रम अपने घर हिन्दुस्तान जाकर, घर वालो को सारी परिस्थिति से अवगत कराएगा और फिर नेहा और परिवार को साथ लेकर वापस केसिना और बच्चो के पास लन्दन आ जायेगा और फिर दोनों परिवार साथ में ही लन्दन में रहेंगे और समय समय पर हिन्दुस्तान आते जाते रहेंगे। केसिना इस बात के लिए भी तैयार थी कि यदि जरुरी हुआ तो दोनों परिवार लन्दन में अलग-अलग स्थानो पर भी रह सकते है, लेकिन वह विक्रम को सदा के लिए कभी नहीं छोड़ सकती। विक्रम को केसिना के इस सहयोग की इतनी उम्मीद नहीं थी, केसिना से हुए वार्तालाप के बाद वह खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था, और काफी दिनों के बाद वह आज चैन की नींद सो पाया था। अगले दिन से ही उसके भारत जाने की तैयारियां शुरु हो गयी थी, केसिना ने खुद ही वर्जिन अटलांटिक की उड़ान से उसकी लन्दन से दिल्ली तक की टिकट बुक करवाई थी।इसके बाद आज पुनः वह उसको साउथ-हाल के एक बाज़ार में ले गयी थी और विक्रम और अपनी पसंद के कुछ कपडे नेहा, उसके बच्चे और विक्रम की माँ के लिए खरीदे थे, बच्चे की पसंद का कुछ और सामान खरीदने के बाद केसिना और विक्रम ने एक बड़ा बैग तैयार कर लिया था। केसिना खुद ही विक्रम के पहनने के अतिरिक्त कपडे बैग में संभालती थी और विक्रम की तरफ देख रो पड़ती थी, विक्रम समझ रहा था कि इस वक्त केसिना के दिलो-दिमाग में कौन सा तूफ़ान उमड़ रहा होगा, अतः वह चुप था। जिस दिन केसिना ने विक्रम की टिकट आरक्षित की थी उसके चार दिन बाद की फ्लाईट में ही सीट उपलब्ध हो पायी थी। जहां एक ओर विक्रम के लिए समय का कोई महत्व नहीं रह गया था क्योंकि उसने केसिना को तो यह कहकर पटा लिया था कि वह नेहा को भी यहीं ब्रिटेन लेकर आ जायेगा, मगर उसके दिल के किसी कोने में यह द्वंद भी उछाल मार रहा था कि नेहा और घर वाले इस बात को पता नहीं किस रूप में लेते है और अगर नेहा ने उसके प्लान के मुताविक चलने से इनकार कर दिया तो ? इसलिए चार दिन का यह समय धीरे-धीरे गुजर रहा है या फिर तेज-तेज, इसका उसके लिए कोई अर्थ नहीं रह गया था, जबकि दूसरी तरफ केसिना के लिए विक्रम के साथ का एक-एक पल कीमती हो गया था। वह भी अनेको अनिश्चित्तावो से घिरी हुई थी, एक औरत के लिए इस तरह के निर्णय ले पाना उतना आसान नहीं होता जितना कि पुरुष को। बीच बीच में वह जब भी विक्रम को बच्चो संग एकांत में खेलते देखती उसे भावनात्मक तरीके से बच्चो को यह कहकर कि पापा के साथ जितना मुमकिन है जी भर के खेल लो, ब्लैक मेल करने से नहीं चूकती थी। आखिर विक्रम की विदाई का दिन भी आ ही गया, एअरपोर्ट के लिए प्रस्थान करने से पहले एक बार फिर से विक्रम के सास-ससुर ने उसे काफी समझाया था कि उसका हर एक निर्णय, हर एक कदम बहुत सी जिंदगियों के लिए अब कीमती बन गया है, अतः वह समझदारी से काम ले। साथ ही उन्होंने विक्रम से उसका भारत का पूरा पता और सगे संबंधियों के नाम अपनी डायरी में लिखे और विक्रम को भी यह बताया कि अगर उसे लौटने में देर हो जाए, तो शायद वे लोग उसे यहाँ नहीं मिलेंगे इस लिए उन्होंने उसे अपने मास्को स्थित ठिकाने का पता और टेलीफोन नबर लिखवाए थे।

विक्रम को सी-आफ (विदा) करने के लिए केसिना और बच्चे, लन्दन के हीथ्रो एयरपोर्ट तक आये थे, केसिना के लिए तो यह पल ऐसा था, मानो खुद तिलक लगा पति को युद्ध के मैदान में भेज रही हो। विक्रम के लिए भले ही ऐसा न हो मगर केसिना के लिए यह एक युद्ध जैसी स्थिति ही थी। बच्चे हालांकि पिता के अपने देश जाने की बात सुनकर उदास जरूर थे, मगर उम्र के हिसाब से उन्हें इस बात की गंभीरता का कोई अहसास नहीं था। पोर्ट पर पहुच, जब केसिना ने कार पार्किंग में लगाई और सभी कार से बाहर उतरे तो केसिना एक बार पुनः विक्रम से लिपट कर रोने लगी थी, विक्रम ने किसी तरह उसको समझाबुझाकर चुप कराया। नन्ही कैरिना भी माँ को रोता देख, रोने लगी थी, अतः विक्रम ने कैंटीन से चॉकलेट ली और तब उसे चुप कराया। विक्रम के लिए भी इस पल बच्चो और केसिना से नजरे मिलाना मुश्किल हो रहा था। कई बार तो उसके दिल में आता कि अब जब नेहा और उसके परिवार के अन्य लोग उसे मृत समझ चुके है, तो क्यों न वह उनके लिए सदा के लिए मृत ही बन कर रह जाए और यहीं इन लोगो के पास ही ठहर जाये, मगर अगले ही पल उसका दिल कहता कि यह उसके लिए उचित नहीं होगा और नेहा और परिवार के साथ धोखा करने जैसा होगा। उसका दिमाग एक बड़ी अजीब कशमकश में उलझा हुआ था। आखिर में एयरपोर्ट के मुख्य लौंज में प्रवेश का वक्त भी आ गया। पास से उसने एक ट्रौली उठाई और अपना सामान उसमे रखने लगा। आशंकित और दुखी केसिना ने अपने तरकश का आखिरी बाण भी विक्रम पर छोड़ दिया, उसने विक्रम को वेटिंग लांज में घुसते वक्त अश्रुपूर्ण नजरो से देखते हुए कहा " इफ यू डू नोट क्विक्ली रिटर्नड टु, आई विल कमिट सुसाइड, आफ्टर किल्लिंग बोथ यौर किड्स " ( तुम जल्दी नही लौटे तो मैं तुम्हारे दोनों बच्चो को मारकर खुद आत्महत्या कर लूंगी। ) विक्रम उसके इन शब्दों को सुनकर एकदम टूट गया और रोते हुए केसिना को सीने से लगा लिया। कुछ देर तक फिर वह उससे और बच्चो से अपनी सारी प्रोमिस(वायदे ) दोहराता रहा कि कुछ भी हो जाए, वह लौटकर उनके पास जरूर आएगा। उसने केसिना से सब्र से काम लेने और ऐसा कोई भी कदम न उठाने का बचन लिया, कि अगर कुछ समय लग भी जाए, तो भी वह ऐसा कोई कदम नहीं उठाएगी।

आखिरकार बड़े बिचलित मन से विक्रम ने वर्जिन अटलांटिक की उस लन्दन-दिल्ली की सीधी उड़ान के विमान में प्रवेश किया।विमान उड़ा तो उसे आठ साल पुराना वह सारा नजारा, उसकी स्मृति पटल पर छा गया, कैसे और कब उसने दिल्ली से आइवरी कोस्ट का सफ़र पूरा किया था और फिर किस प्रकार वह उस केनिया एयर लाईनस के विमान मैं बैठा था और फिर........! पूरा विवरण उसकी आँखों के सामने था। कुछ देर बाद जब एयर होस्टस ड्रिंक का आर्डर लेकर सर्व करने आई तो उसने जल्दी जल्दी विह्स्की के दो पैग लिए, ताकि मस्तिष्क को कुछ शांति मिले, मानसिक रूप से कुछ दिनों से वह इतने तनाव में और इतना थका हुआ था कि उसके तुंरत बाद उसकी आंखे लग गयी। रात करीब सवा बारह बजे वह दिल्ली पहुंचा, जरुरी कस्टम चैकिंग और अन्य प्रक्रियावो से गुजर, वह जब गैलरी चढ़कर आगमन कक्ष की तरफ बढा तो उसने देखा कि उस पैसेजे के दोनों तरफ लोग अपने-अपनों का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे, कुछ होटलों के कर्मचारी और टैक्सी ड्राईवर भी हाथो में तख्ती लिए उसपर अपने आने वाले गेस्ट का नाम लिखकर, उसे आगंतुक की तरफ दिखाते थे। विक्रम लगेज टार्ली ठेलते हुए हौले-हौले आगे बढ़ रहा था और सोच रहा था कि अगर आज परिस्थितिया भिन्न नहीं होती तो इतने सालो बाद लौटने पर उसके सगे-संबंधियों का भी यहाँ पर उसके इंतज़ार के लिए हुजूम उमड़ा पड़ा होता। वह अपनी किस्मत पर रुक-रूककर मंद-मंद मुस्करा देता था। आठ साल पहले जो सगे संबंधियों के टेलीफोन नंबर उसे याद थे, ब्रिटेन से उसने उनपर संपर्क साधने की भी कोशिश की थी, मगर वे सब नंबर अब या तो बदल चुके थे या लग नहीं रहे थे।

एअरपोर्ट से बाहर निकलते-निकलते उसे रात के दो बज चुके थे। उसे ध्यान आया कि गुजरे वक्त में, जब वह दिल्ली में नौकरी करता था, और जब कभी वह कहीं से लौटकर आता था तो पोर्ट पर ही मौजूद एक के .के. ट्रेवल एंड टूर नाम की फर्म से अक्सर टैक्सी किराये पर लेता था। अतः पूछताछ सहायता केंद्र से उसने उस कंपनी का टेलीफोन नंबर पता किया और उससे फ़ोन कर एक टैक्सी अपने गाँव के लिए बुक कराई। जब टैक्सी का ड्राईवर टैक्सी लेकर वहाँ पहुंचा, जहां विक्रम इंतज़ार कर रहा था तो विक्रम को देखकर वह एकदम चौंक गया। वह वही राम सिंह था जो अक्सर पुराने समय में उसे दिल्ली अथवा दिल्ली से बाहर घुमाने ले जाता था। विक्रम को देखते हुए उसने नमस्कार किया और लडखडाती जुबान में पूछने लगा कि आप तो .....आप तो ......! , विक्रम बोला, हाँ, मैं तो मर गया था, मगर फिर से जिन्दा हो गया हूँ। विक्रम ने यह बात जितनी सहजता से बोली थी, हिमांचल का रहने वाला बेचारा राम सिंह उतनी सहजता से उसे पचा नहीं पाया था। वह भूत-प्रेत में विश्वास करता था, अतः उसने जाने से मना कर दिया। विक्रम ने उसे समझाया कि राम सिंह, तुम जो समझ रहे हो, बात दरहसल वह नही है, मैं मरा नहीं था। फिर विक्रम ने संक्षेप में अपनी पूरी कहानी उसे सुनाई और उसे अपने मालिक से बात करवाने को कहा, राम सिंह ने मोबाइल पर विक्रम की अपने मालिक से बात करवाई, विक्रम ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत कराया, तब जाकर मालिक के कहने पर राम सिंह चलने को तैयार हुआ। १२वी पास राम सिंह को विक्रम ने उसकी तसल्ली और उसे संकोच मुक्त करने के लिए वे पेपर दिखाए, जो उसे ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त ने जारी किये थे, ओर जो खबर उनके लौटने पर वहाँ के अखबारों में छपी थी, उन्हें पढ़कर रामसिंह की जान में जान आई, और वह गंतव्य के लिए निकल पड़ा।

गंतव्य की ओर बढ़ते हुए, भोर होने पर करीब सात-साढे सात बजे वे लोग ऋषिकेश को पार कर गये थे और अब गाडी घुमावदार पहाडी सडको पर आगे बढ़ रही थी। वैसे तो विक्रम इन्ही पहाडो की गोद में पला बढ़ा था और न जाने कितनी बार इन रास्तो से गुजरा था, मगर आज तकरीबन आठ साल के बाद फिर से उन्ही रास्तो पर ऊँचे नीचे पहाड़, कभी हलके और कभी गहरे हरे, भोर की किरणों में कहीं सतरंगी छठा बिखेरते, कभी भूरे, कभी जामुनी, कभी काले से. उन पहाड़ों पर चढ़ती उतरती तीखी ढलान वाली सड़कें, जहाँ से नीचे गिरो तो कई सौ मीटर नीचे खाईयों में जा गिरो, विक्रम की टैक्सी इन्ही रास्तो से होती हुई हौले-हौले मंजिल की तरफ बढ़ रही थी। पहाड़ों की संकरी घाटियों के आस पास के सीडी नुमा खेतो पर स्थानीय पहाडी लोगो के परिवार मेहनत से काम करते दीखते थे। सड़क के आस पास के जंगलो में जानवरों को चरवाते बच्चे, जो गुज़रती टैक्सी को देख कर हाथ हिला कर स्वागत कर रहे थे। टैक्सी की खिड़की से पहाडी की ऊँची चोटी के करीब से दिखती बहुत नीचे घाटी में घुमावदार नदी और उस पर बने पुल को ऊँचाई से देखना और फिर थोड़ी देर के बाद ढलानों से उतरकर, उसी पुल से गुजरते हुये फिर से ऊपर ऊँचे पहाड़ की चोटी को देखना, विक्रम के अन्दर एक अजीब सा कौतुहल पैदा कर रहे थे। वह पिछला सब भूलकर अपना ध्यान इसी पर केन्द्रित कर रहा था कि नेहा कहाँ होगी? उसके गाँव में उसके माता पिता के पास अथवा अपने मायके में? तेजू अब दस साल का हो गया होगा, मुझे पहचानेगा भी या नहीं, जब तक मैं गाँव पहुचूंगा, वह स्कूल जा चूका होगा। माँ-पिताजी और गाँव वाले मुझे देखेंगे तो कैसे प्रतिक्रिया देंगे ? फिर वह मन ही मन भगवान् से प्रार्थना करने लगता कि हे भगवान् !जब मैं गाँव पहुचू तो मुझे मेरे सारे अपने सगे-सम्बन्धी सकुशल मिले !

इन्ही शुभ-अशुभ खयालो में डूबे विक्रम की टैक्सी जब गाँव की पहाडी चोटी की धार पर पहुंची और सामने जब उसे अपना गाँव दिखाई दिया तो वह मन ही मन आनंदित हो उठा। लेकिन उसे नहीं मालूम था कि उसकी किस्मत अभी उसके साथ कुछ और भद्दे मजाक करने वाली थी, ऐसे भद्दे मजाक जिसकी उसने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। उसके उस पहाडी गाँव के बीचों-बीच से सड़क जाती थी। जैसे ही वह गाँव में पहुँचा और टैक्सी रुकी तो गाँव के कुछ बच्चे और युवक टैक्सी के पास इस कौतुहलबस पहुँच गये कि इसमें उनके गाँव का कौन आया है। जैंसे ही टैक्सी रुकी और वह नीचे उतरा तो उसे जानने वाले लोगो में जैसे खलबली मच गई। जो बच्चे टैक्सी के पास पहुँच गये थे उन्हें बडे-बुजुर्गो ने आवाज मार कर वापस बुला लिया था। खासकर छोटे बच्चो को सबने घर के अन्दर बंद कर दिया था। कुछ सयानी महिलाये अपने बच्चो को समझा रही थी कि अभी उसके नजदीक मत जाना, हो सकता है कि यह विक्रम का भूत हो। यह सुनकर बच्चे भी सहम गये थे और घरो के अन्दर जा छुपे थे। विक्रम ने टैक्सी ड्राइवर, राम सिंह को कुछ कहा और धीरे-धीरे डग बढाता हुआ अपने खलियान के मुहाने की तरफ बढ़ने लगा। करीब आठ साल के अन्तराल के बाद आज वह अपने गाँव लौटा था, वो बच्चे जो कभी छोटे थे, अब बड़े हो गए थे ! कभी गोद से न उतरने वाले अचरज से देखते पौधे अब पेड़ बन चुके थे। सभी चिर-परिचित चेहरे दिखे, मगर सब पहले सा नही था। उसे वहां न दिखा तो वो अपने ख़ास जिनकी आस लिए वह इस तरह दौड़ा चला आया था, घर में सन्नाटा छाया था , उसने पहले माँ को पुकारा, फिर पिता को पुकारा, फिर नेहा और फिर अपने छोटे भाई को आवाज लगाइ, लेकिन कोई जबाब नही मिला। गाँव वाले अपने घरो के अन्दर से साँस रोके, गर्दन बाहर निकाल, यह सब देख रहे थे। फिर पड़ोस के एक वृद्ध चाचा ने हिम्मत दिखाई और बाहर निकल उससे पूछा कि क्या तुम विक्रम हो? विक्रम ने हाँ में जबाब दिया और अपने घर वालो के बारे में पूछा। उसके चाचा ने उससे पूछा कि तुम तो एक विमान दुर्घटना......... ! विक्रम ने बीच में ही उनकी बात काटते हुए कहा कि हाँ ऐंसा हुआ था, लेकिन वह बच निकला था, उसने उन्हें पूरी कहानी समझाई। उसकी कहानी सुन चाचा हैरान थे। वे उसे हाथ पकड़कर अपने मकान के छज्जे में ले गए और वहाँ बिठाकर, अपने घरवालो को उसके लिए पानी का गिलास लाने को कहा।

जब विक्रम कुछ देर वहाँ बैठ सुस्ता लिया तो उसने चाचा से अपने घर वालो के बारे में फिर पूछा कि उसके घर के लोग कहाँ गए? मम्मी-पापा कहाँ है, नेहा कहाँ है, छोटा भाई विनोद कहा है? विक्रम देख रहा था कि वृद्ध चाचा की बुझी हुई आँखे छलछला आई थी, हाथो से आंसू फोंझते हुए उन्होंने अपने दिल की तसल्ली के लिए विक्रम से एक बार फिर पूछा कि तू सच बोल रहा है कि विमान हादसे में तू बच गया था? विक्रम बोला, चाचाजी मैं जीता जागता आपके सामने खडा हूँ, इससे बड़ा और क्या सच हो सकता है। यह भरोंसा हो जाने के बाद कि वह विक्रम ही है, उन्होंने बोलना शुरु किया, बेटा, समझ में नही आता कि किस्मत तेरे साथ ऐसे भद्दे मजाक क्यो कर रही है। तेरे मरने की ख़बर मिलने के बाद, तेरे माँ-बाप और तेरी पत्नी नेहा, एकदम टूट कर रह गए थे।भाई साब (विक्रम के पिता) तो कुछ समय बाद तेरे ही गम में चल बसे, उन्हें दिल का दौरा पड़ा था।दो साल बाद जब तेरा छोटा भाई विनोद नौकरी लग गया तो नेहा के घरवालो........, वृद्ध चाचा कहते-कहते रुक गए और असहाय सी नजरो से विक्रम को देखने लगे। विक्रम ने जोर देकर चाचा से आगे की बात बताने को कहा..,चाचा कुछ देर खांसने के उपरांत बोलने लगे, बेटा, नेहा की जिंदगी का सवाल था, और तेरे छोटे से बच्चे के भविष्य की भी चिंता थी..... भाभीजी (विक्रम की माँ) और तेरे भाई की रजामंदी से, तेरे बेटे के भविष्य का ख़याल रखते हुए, नेहा की शादी तेरे छोटे भाई विनोद से कर दी गई और अब उन दोनों के भी दो बच्चे है। तेरा छोटा भाई आजकल पूना में एक कंपनी में नौकरी करता है, तेरी माँ भी उन्ही के साथ रहती है, वैसे तो कभी कभार गर्मियों की छुट्टियों में वे लोग इधर घुमने आ जाते थे, परन्तु दो सालो से वे लोग भी इधर नही आये। दो साल पहले जब वे आये थे, तो तेरे बेटे को देख हम लोग कहते थे कि हुबहु विक्रम पर गया है। सात आठ साल का हो गया था, और मजे में था। पिछली दफ़ा तो नेहा भी विनोद के साथ काफी खुश नजर आ रही थी।

चाचा के मुख से यह शब्द सुनकर विक्रम के पैरो तले से मानो जमीन खिसक गई । चाचा के वे अंतिम शब्द कि नेहा भी विनोद के साथ काफी खुश नजर आ रही थी.... काफी खुश नजर आ रही थी….. काफी खुश नजर आ रही थी, बार-बार उसके कानो और मस्तिस्क पर हथोडे की तरह प्रहार कर रहे थे। वह हक्का-बक्का, मुह खोलकर चाचा के चेहरे को ही ताकता रह गया था। उसकी समझ में नही आ रहा था कि कुदरत द्वारा लिखी इस नई कहानी पर वह रोये या फिर हँसे। जिस बोझ को वह इस सारे सफर के दौरान दिल में लिए फिर रहा था कि कैसे वह नेहा का सामना करेगा, और कैसे केसिना और अपने बच्चो के बारे में नेहा को बताएगा, वह बोझ मानो किसी ने उसके दिल से उतार कर वहाँ किसी पहाडी ढलान पर नीचे लुढ़का दिया हो। वह एक अजीब सी कशमकश महसूस करने लगा, उसे लगा कि वह अगर यहाँ पर ज्यादा देर ठहरा तो उसका दिल काम करना बंद कर देगा। मन ही मन, कभी उसे नेहा और अपने छोटे भाई पर गुस्सा आ रहा था तो साथ ही यह तस्सली भी हो रही थी कि चलो कम से कम नेहा को अपने एकाकी जीवन से तो मुक्ति मिली। तेजू को भी पिता का प्यार मिलता रहा, वह कल्पना के सागर में यह भी देखने की कोशिश कर रहा था कि जो नेहा कभी उसके वगैर एक पल भी जी नहीं सकती थी, वह विनोद के साथ कैसे समझौता कर गई होगी? फिर वह सोचने लगता कि हो सकता है कि न चाहते हुए भी छोटे भाई ने बड़े भाई के परिवार को सहारा देने के लिए अपनी खुशियों की कुर्बानी दे दी हो।

लन्दन से चलते वक्त विक्रम के मन में हालांकि बहुत कुछ अफ़सोस, फ़िर भी एक उत्साह, उर्जा और आठ साल के विरह के बाद अपने परिवार से मिलन की एक अजीबोगरीब ख़ुशी अथवा मन की उमंग-स्फूर्ति थी, मगर यहाँ पहुँच सब ठंडा पड़ गया था। अब जब परिस्थितियाँ ही कुछ ऐंसी हो गई थी कि कोई भी कसूरबार नहीं ठहराया जा सकता था तो उन परिस्थितियों से समझौता करने के सिवाए कोई और चारा भी नहीं था। फिर वह कभी सोचता कि अगर केसिना उसकी जिंदगी में नहीं आती, तो आज यहाँ पर यह सब कुछ जान, उसकी मनस्थिति क्या होती? उसके शरीर पर क्या गुजरती, वह अपनी त्रिशन्कु जिन्दगी लेकर कहाँ जाता? क्या यह सब जानने के बाद भी वह अपने छोटे भाई विनोद के पास नेहा को मांगने चला जाता? उसे लगने लगा था मानो महा भारत का धर्म युद्ध वही लड रहा है ! एक लम्बी साँस लेने के बाद वह उठ खड़ा हुआ। चाचा ने उसे कुछ दिन, उनके पास ही रुकने को कहा लेकिन अब वह वहाँ पल भर भी रुकना नही चाहता था, आखिर जो सवाल उसके मन में उमड़ रहे थे उनका जबाब शायद चाचा भी नहीं दे पाते। अत: वह चाचा के चरण छुकर, घर से कुछ दूरी पर खड़ी टैक्सी की और बढ़ने लगा। दो चार कदम चलने के बाद वह कुछ देर रूककर पीछे को मुड़ा, मानो कुछ सोच रहा था और चाचा से यह कहना चाहता था कि जब कभी नेहा और परिवार के सदस्य इस गाँव में आए तो उनसे मेरे इस लौट आने का जिक्र मत करना। मगर फिर यह सोच कि अब नेहा के लिए उसके आने या न आने का महत्व ही क्या रह गया होगा, वह फिर मुड़ा और वहाँ से निकल पड़ा। टैक्सी के पास पहुँच उसने टैक्सी ड्राईवर, राम सिंह से वापस दिल्ली चलने को कहा। रामसिंह भी सड़क पर मौजूद गाँव के कुछ युवको से बतियाने और वहा मौजूद हालत को देखकर थोडा बहुत समझ गया था कि परिस्थिति क्या है, अतः बिना कोई सवाल किये उसने गाड़ी घुमा दी ।

विक्रम ने एक बार पुनः पहाडो की उन खुबसूरत वादियों में बसे अपने उस छोटे से गाँव के एक छोर से दूसरे छोर तक के सभी गिने चुने घरो पर एक सरसरी निगाह दौडाई और टैक्सी का दरवाजा खोल, पिछली सीट पर बैठ गया। राम सिंह ने गाडी हौले से आगे बढा दी। गाँव से निकलते समय विक्रम उदास व भारी मन से शायद अब आखिरी बार अपने उन खेत-खलियानों, और बीरान पड़े घर को नम आँखों से निहार रहा था, जहां कभी उसने अपने बचपन का एक बड़ा वक्त गुजारा था, जहां के खलिहानों में खेल वह बड़ा हुआ था, और जहां से करीब दस साल पहले वह बड़े धूमधाम से बारात लेकर नेहा के घर पर गया था। और फिर एक वक्त वह था, जब किस्मत की आंधी ने उसे अपने परिवार, गाँव तथा देश से न सिर्फ बिछुडा दिया था, अपितु घर वालो के हाथो इसी गाँव में उसके जीते जी, उसका अंतिम क्रिया-क्रम करने को भी मजबूर कर दिया था और आज वह एक जिन्दा मूरत की तरह अपने पूरे होशोहबास में ख़ुद ही सदा के लिए गाँव, गली , खेत, खलिहान और देश सब कुछ छोड़ रहा था। उसने तुंरत वापस केसिना के पास चले जाने का निश्चय कर लिया था, और देखा जाए तो इसके अलावा उसके पास और कोई चारा रह भी नहीं गया था ।

गाडी थोडा और आगे बढ़ी, और गाँव की पग्डन्डी छोड, मुख्य सड़क पर पहुँच उसने अपनी रफ़्तार पकड़ ली, मनोरंजन हेतु एवं माहौल को हल्काफुल्का बनाने के लिए राम सिंह ने गाडी का स्टीरियो चला दिया। स्वर्गीय गीतादत्त का गाया हुआ कागज़ के फूल का एक प्यारा सा बहुत पुराना गाना बज रहा था। टैक्सी की पिछली सीट पर पीछे सिर टिकाये विक्रम ने आंखे मुंदी तो नेहा की आठ साल पुरानी तस्वीरे उसकी आँखों के सामने एक चक्र सा बना कर घूमने लगी,उसे लगा, मानो नेहा स्वयं उस टैक्सी की खिड़की के शीशे से अन्दर झांकती हुई, उसे उदास आँखों से देखते हुए, बहुत धीमी आवाज मे गुनगुना रही हो; वक्त ने किया क्या हसीं सित्तम, तुम रहे न तुम, हम रहे न गम.......! विक्रम को भी लग रहा था कि वाकई वक्त ने बहुत ही अजीबोगरीब सित्तम उनके साथ कर दिया, एक ऐसा सित्तम जिसकी शायद कोई इन्सान सहज परिस्थितियो मे कल्पना भी न कर सके। गीत के बोल मानो तब उसके जीवन की इस अजीबोगरीब कहानी को ही केन्द्रित कर लिखे गए हों।

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7 comments:

अर्शिया said...

Saarthak evam samay saapechh rachnaa.
( Treasurer-S. T. )

Mumukshh Ki Rachanain said...

समय बड़ा बलवान है, यही मर्ज़ दिखता है, यही दावा भी करता है, मठं भी लगता है, इसकी हर करतूत इन्सान के समझ के बहार की ही होती है, यही शाश्वत सच है, और स्वीकार करना ही पड़ेगा.
एक सार्थक और बढ़िया कहानी, विचार को लघु उपन्यास का रूप देने हेतु धन्यवाद, उम्मीद है की आप इसमें अभी और विस्तार कर इसे उपन्यास का भी रूप दे सकते हैं, क्योंकि संभावना काफी दिखती है...............

पी.सी.गोदियाल said...

चंद्रमोहन गुप्तजी एवं अर्शिया जी,
हौसला अफजाई के लिए आप दोनों का बहुत -बहुत शुक्रिया ! कभी कभार पाठक वर्ग की सिर्फ एक प्रेरणा बड़े टॉनिक का काम कर जाती है !

vikram7 said...

सार्थक और बढ़िया कहानी के लिये बधाई

alka sarwat said...

कल मैंने तीन बार में आपका ये लघु उपन्यास पढा ,कल्पनाओं का बहुत सजीव चित्रण है ,मानो आप इस कथा के एक चरित्र रहे हों , हो सकता है कि मेरा अनुमान गलत हो, मगर नायक को अजीब दुविधा में डाल दिया.. खैर ......
शुभकामनाएं

अर्कजेश said...

इसके पहले कि पोस्ट पढ गया ।
इसे पूरा नहीं पढ पाय हुं अभी । कई बार आना पडेगा । वैसे इसे आप किश्तों में देते तो अच्छा रहता ।

Anshuman said...

बहुत अच्छी कहानी...और सर्वोत्तम अंत..लिखते रहिए और छपवाइए भी..बहुत अच्छा लगा...