Sunday, February 27, 2011

शारदा !

कृष्णा बाथरूम से नहाकर ज्यों ही बाहर अपने कमरे में पहुंचा और उसने तौलिये से अपने गीले बालों को हौले-हौले रगड़ना शुरू किया, तभी किचन से स्वाति ने भी कमरे में प्रवेश किया और बोली; सुनो जी, आज गणतंत्र दिवस की छुट्टी है, मार्केट बंद रहेगा। वो तो हरगणतंत्र दिवस पर  होता है, नया क्या है इसमें ?  कृष्णा  ने बिना स्वाति की तरफ देखे ही सवाल किया। नहीं मेरा कहने का मतलब यह था कि    तुम भी फ्री हो, क्यों न आज हम लोग माँ को मिलने चलें, हमारी शादी के बाद जबसे बेचारी जेल गई है, हम लोग एक बार भी उनकी कुशल-क्षेम पूछने नहीं गए। एक बार राहुल को तो उनसे मिला देते, वह भी दो-ढाई साल का हो गया है, उसने भी अभी तक अपनी दादी को नहीं देखा।

स्वाति की इस बात पर एक बार तो कृष्णा भड़क ही गया, और स्वाति की तरफ देखते हुए गुस्सैल अंदाज में बोला, यार मैं तुम्हे कितनी बार बता चुका कि मुझे नहीं मिलना किसी माँ-वां से, मेरी माँ पांच साल पहले मर चुकी, अब मेरी कोई माँ-वां नहीं है। कृष्णा की बात सुनकर, थोड़ा रूककर स्वाति  अपने दोनों हाथों से उसका बाजू पकड़ते हुए उसे पुचकारते हुए बोली "यार, वो तुम्हारी माँ है, तुम कैसे निष्ठुर बेटे हो। एक बार भी यह नहीं सोचते कि बिना उनकी बात सुने ही हम लोगो ने उनसे इसतरह किनारा कर लिया। कोई तो बात रही होगी जो तुम्हारी माँ ने इतना कठोर कदम उठाया। इतनी तो उनके लिए नफ़रत मेरे दिल में भी नहीं है, जो उनकी बहु हूँ, और जिसने अपने पिता को …......."

स्वाति ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी, उसके मोटे-मोटे नयन छलछला आये थे। यह देख कृष्णा नरम पड़ते हुए, अपनी हथेली से उसके गालो पर लुडक आये आंसूओं को फोंछ्ते हुए बोला, अच्छा बाबा,ब्लैकमेल करना तो कोई तुमसे सीखे। चलो ठीक है, अगर माँ से मिलने की तुम्हारी इतनी ही हार्दिक इच्छा है तो फटाफट नाश्ता तैयार करो। राहुल को जगाकर उसे भी तैयार कर लो, फिर चलेंगे। कृष्णा पर अपनी बात का असर होता देख स्वाति का चेहरा एक बार फिर से खिल उठा। अपने गालो को अपने दोनों हाथों से साफ़ करते हुए उसने उछलकर अपने से तकरीबन एक फुट लम्बे कृष्णा की गर्दन में अपने दोनों हाथ फंसाकर उसकी गर्दन नीचे खींचते हुए उसे थैंक्यू कहकर उसका माथा चूम लिया। उसके बाद वह वापस किचन में चली गई।

लेकिन भाग्य को तो शायद कुछ और ही मंजूर था। और कभी-कभार यह देखा भी गया है कि जिस बात का अचानक ही जुबां पर कभी कोई जिक्र आ जाए, उसके पीछे उससे सम्बंधित कोई अदृश्य घटनाक्रम या तो पहले ही घटित हो चुका होता है, या फिर घटित होने वाला होता है। कृष्णा के लिए किचन में चाय तैयार करते हुए इधर स्वाति इतने सालों बाद पहली बार अपनी सासू माँ से जेल में मिलने जाने के ख्वाब सजाते हुए अपने मानस पटल पर उस वक्त के भिन्न-भिन्न काल्पनिक परिदृश्य, जब वह अपनी सासू माँ से जेल में मिल रही होगी, किसी चित्रपट की तरह परत दर परत आगे बढ़ा रही थी, और उधर बाहर मेन गेट पर एक खाकी वर्दीधारी जोर-जोर से गेट का ऊपरी कुंडा खटखटा रहा था।

आवाज सुनकर स्वाति जब किचन से निकलकर घर के मुख्य द्वार पर पहुची, तो उसने देखा कि कृष्णा पहले ही आँगन के बाहर मेन गेट पर पहुँच चुका था, और उस खाकी वर्दीधारी से कुछ बातें कर रहा था। कुछ देर बातें करने के बाद जब वह खाकी वर्दीधारी वहाँ से चला गया तो कृष्णा भी घर के मुख्य द्वार की तरफ मुडा। भारी डग भरते हुए जब वह स्वाति के पास पहुंचा तो उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी। बिना एक पल का भी इन्तजार किये स्वाति ने आशंकित और कंपकपाती आवाज में पूछा; क्या हुआ, कौन था वो वर्दीधारी? कृष्णा ने तुरंत कोई उत्तर नहीं दिया और स्वाति को अन्दर चलने का हाथ से इशारा भर किया। ड्राइंग रूम में पहुंचकर दोनों साथ-साथ सोफे पर बैठ गए। जबाब सुनने को आतुर स्वाति ने फिर से वही सवाल दुहराया। कृष्णा ने सुबकते हुए अपना सर बगल में चिपककर बैठी स्वाति के सर पर रखते हुए कहा; जेल से था, मुझे तुरंत आने को कहा है....माँ ने कल रात को अपनी हाथ की नशे काटकर आत्महत्या कर ली। कृष्णा की यह बात सुनकर स्वाति हतप्रभ रह गई, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक पलटी इस तकदीर की बाजी पर वह खुद रोये या फिर कृष्णा को ढाढस बंधाये।

कुछ पल यों ही बेसुध बैठा रहने के बाद फिर कृष्णा उठा और स्वाति को राहुल के पास घर पर ही ठहरने की सलाह देते हुए जिला जेल जाने की तैयारी करने लगा। वहाँ पहुँचने पर वह सीधे जेलर के दफ्तर में घुसा। जेलर जोशी मानो उसी का इन्तजार कर रहे थे। उसे अपने सामने की कुर्सी पर बिठाते हुए जेलर ने कृष्णा से अपनी संवेदना व्यक्त की और उसे उसकी माँ का वह पत्र सौंपा, जिसे वह पिछली शाम को ही जेल के एक कर्मचारी को यह कहकर सौंप गई थी कि इसमें उसने अपने बेटे-बहु के लिए अपनी कुशल-क्षेम और पोते के लिए आशीर्वाद भेजा है, और इसे वह उन लोगो तक पहुंचा दे। आज सुबह तडके जब हमें इस घटना की जानकारी मिली, तब उस कर्मचारी ने यह पत्र मुझे दिया। लाश अभी पोस्टमार्टम के लिए गई हुई है, तुम्हे कुछ देर इन्तजार करना होगा, यह कहकर जेलर जोशी अपने काम में व्यस्त हो गए थे।

माँ का दाह-संस्कार संपन्न करने के उपरान्त रात को कृष्णा ने बड़े ही सलीखे से एक बंद लिफ़ाफ़े में रखा हुआ, माँ का वह ख़त खोला जो जेलर ने उसे सौंपा था। चिट्ठी क्या थी, बस एक तरह से २५ जनवरी २०११ का अपने हाथों का लिखा माँ का आत्म-कथ्य था। लिखा था;

बेटा,
मैं बहुत थक गई हूँ, विश्राम लेना चाहती हूँ। प्रभु के दर्शन की इच्छा ने मेरी भूख, प्यास और नींद भी छीन ली है। मैंने अपनी आत्मा के अन्दर बहुत से सवाल समेटकर रखे है, उस पार अगर सचमुच कोई अनंत-परमेश्वर है, और मेरा सामना वहाँ उनसे होता है, तो इन सवालों की पोटली को उनके समक्ष खोलूँगी जरूर। आशा करती हूँ कि मेरे इस पत्र को पढने के बाद तुम और स्वाति मुझे माफ़ कर दोगे।

लोग कहते है कि सब कुछ यहाँ भाग्य पर निर्भर होता है। लेकिन, मैं जब पलटकर देखती हूँ तो न जाने क्यों मुझे लगता है कि तमाम उम्र अपने भाग्य के दिन तो मैंने खुद ही तय किये। और आज फिर से आख़िरी बार भी वही दोहरा रही हूँ। इंसान क्या सोचता है और क्या हो जाता है। जानती हूँ कि जो कदम मैं उठाने जा रही हूँ, सामान्य परिथितियों में कोई भी विवेकशील पढ़ा-लिखा इंसान उसे पसंद नहीं करता। मगर कभी-कभी जीवन में वो मोड़ भी आ जाते है, जब क्या अच्छा है और क्या बुरा, जानते हुए भी इंसान खुद को मन के प्रवाह में बहने से नहीं रोक पाता।

बचपन में तुझे हमसे हमेशा यह शिकायत रहती थी कि इलाके के अन्य बच्चों की तरह हम लोग भी तुझे छुट्टियों में तेरे दादा-दादी, नाना-नानी से क्यों नहीं मिलवाने ले जाते। आज तेरी उस शिकायत पर अमल न करने की वजह भी मैं तुझे बताये देती हूँ। साथ ही स्वाति की वह शिकायत भी दूर करूंगी कि मैंने क्यों उसके पापा की ह्त्या की थी। हाँ, मेरे नन्हे पोते की भी जरुर मुझसे यह शिकायत होगी कि मैं उसे क्यों नहीं मिली, तो उसकी मैं इसबात के लिए जन्म-जन्मों तक गुनाहगार रहूंगी कि मैं उसकी शिकायत  दूर नहीं  कर पाई।

बेटा, तेरे नाना, यानि  मेरे पापा गरीब तबके के लोग थे, और मोदीनगर में एक टैक्सी ड्राइवर थे। वे मुख्यत: सूगर मिल के अधिकारियों को लाने, लेजाने का काम करते थे। हम लोग मोदीनगर में एक छोटे से मकान में रहते थे, जो मोदी भवन के ठीक सामने लक्ष्मी नारायण मंदिर के पास में था। चार भाईबहनो में मैं सबसे बड़ी थी, और मेरे पापा मुझे बहुत लाड देते थे। वे मुझे पढ़ा-लिखाकर एक सशक्त लडकी बनाना चाहते थे, अत: घर की प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी उन्होंने मुझे ग्रेजुएशन करवाया। खाली समय में वे मुझे टैक्सी चलाना भी सिखाते थे, उस जमाने में मुख्यतया दो तरह की ही गाड़ियां लोगो के पास थी, एक फिएट और दूसरी एम्बेसडर। मैं अपने कॉलेज की कबड्डी की एक कुशल खिलाड़ी भी थी।

फाइनल इयर के दौरान एक बार अंतर्राज्य खेल प्रतिस्पर्धा के लिए मैं और मेरी टीम के अन्य सदस्य महीने भर के कैम्प में दिल्ली गए हुए थे। जालिम दुनिया के फरेबों से बेखबर मैं पूरी लग्न से अपने खेल की प्रेक्टिस में जुटी थी कि वहीं एक सुन्दर, हट्टा-कट्ठा नौजवान मेरे इर्दगिर्द मंडराने लगा। मेरे खेल की तारीफ़ के बहाने वह मेरे करीब आया और बड़े ही शालीन ढंग से उसने अपना परिचय कीर्तिनगर, दिल्ली निवासी मनोज गुप्ता के रूप में दिया। अब वह हर रोज ही हमारे कैम्प के आस-पास मंडराने लगा था। एक दिन फिर वह हमारी खेल टीचर से मीठी-मीठी बाते कर मेरा पता भी पूछ बैठा। उसने मुझे बताया कि वह ब्रिटेन में नौकरी करता है, और अगले सप्ताह वह वापस ब्रिटेन चला जाएगा। फिर एक दिन वह थोड़ी देर के लिए आया और झट से यह कहकर चला गया कि वह सिर्फ मुझे बाय कहने आया था क्योंकि उसके पास अब समय कम है, उसे वापसी की तैयारी करनी है। और साथ ही यह भी बता गया कि उसके पिता जोकि एक जाने-माने व्यापारी है, मेरे पिता से मिलने मोदीनगर आयेंगे।

और फिर कुछ दिनों बाद एक दिन शाम को हमारे घर के आगे एक एम्बेसडर कार रुकी। एक ५८-६० साल का अधेड़ मेरे पिता के साथ हमारे घर आया। उसने खुद को मनोज का पिता बताया और कहा कि वैसे तो बराबरी में हम  लोग उनके मुकाबले कहीं भी नहीं ठहरते थे, लेकिन चूँकि हमारा लड़का आपकी बेटी को पसंद करता है, और उसे बोल्ड और निर्भीक लडकिया पसंद है, अत: बेटे की जिद के आगे मैं यह रिश्ता करने के लिए मजबूर हूँ। उस व्यक्ति ने आगे कहा ; हमें आपसे दहेज़ में कुछ भी नहीं चाहिए, और न ही हम किसी गाजेबाजे के साथ आयेंगे, मेरा बेटा साधारण ढंग से शादी करने का पक्षधर है। लेकिन आप यह भली प्रकार से समझ ले कि शादी के बाद आपकी बेटी को तुरंत मेरे बेटे के साथ ब्रिटेन रहने के लिए जाना होगा। बेटी के लिए एक अच्छा घर मिलने की आश में मेरे पिता ने भी तुरंत हामी भर ली।

और फिर करीब तीन महीने बाद तय-शुदा दिन पर दुल्हा मनोज गुप्ता दस-ग्यारह लोगो की एक बारात के साथ हमारे घर पर उतरा। घरवाले खुश थे कि उनकी बेटी एक बड़े घर में जा रही थी। और जल्दी ही विदेश भी चली जायेगी। भोर पर डोली विदाई हुई और मैं दुल्हन बनकर दिल्ली आ पहुँची। घर न जाकर बारात सीधे दिल्ली के एक होटल में गई। जहां न सिर्फ दिनभर, बल्कि रात दस बजे तक पार्टी चलती रही। इस बीच मैं यह नोट कर रही थी कि मेरा दुल्हा मुझसे मिलने कम और दुल्हे का पिता यानि मेरा तथाकथित ससुर, मेरे इर्द-गिर्द ज्यादा घूम रहा था। मेरे साथ विदा करने आया मेरा छोटा भाई और एक चचेरा भाई भी दिन में वापस मोदीनगर लौट चुके थे। फिर रात दस बजे तीन-चार कारों का काफिला कीर्तिनगर, मनोज के घर को चल पडा। घर पहुंचकर मैंने देखा कि घर पर कोई ख़ास चहल-पहल नहीं थी। मेरे अंतर्मन के चक्षु किसी संभावित खतरे से आशंकित थे। और फिर एक ३०-३५ साल की महिला मेरा हाथ पकड़कर ड्राइंग रूम से उस घर के बेसमेंट स्थित एक बड़े से कमरे में ले गयी, और मुझे रिलेक्स होकर बैठने की सलाह देकर खुद कहीं चली गई।

कमरा सामान्य ढंग से सजाया गया था। मैं दुल्हन के लिबास में सिमटी बेड के एक कोने पर बैठ गयी। रात करीब साढ़े बारह बजे मैं यह देख हतप्रभ रह गई कि उस कमरे में नशे में धुत हुआ मनोज का बाप घुस आया था। मै कुछ समझ पाती इससे पहले ही उसने अन्दर से दरवाजा बंद कर लिया। उसके हाथ में कुछ चाबियों के गुच्छे थे, उसमे से एक चाबी का गुच्छा उसने सामने पडी मेज पर रख दिया, वह कार की चाबिया थी। मैं बेड से उतर फर्श पर खडी हो गई। मै मनोज-मनोज चिल्लाना चाह रही थी, मगर डर के मारे मेरे मुह से शब्द ही नहीं निकल रहे थे। उसने लडखडाते हुए मुझे शांत रहने को कहा और हाथ में पकडे दूसरे चाबी के गुच्छे से सामने दीवार पर लगी लकड़ी की आलमारी खोलने लगा। बड़ी मुश्किल से वह  आलमारी खोल पाया और फिर आलमारी से ढेर सारे नोटों के बण्डल और गहने निकाल-निकालकर सामने पडी टेबल पर डालने लगा। फिर उसने आलमारी से एक शराब की बोतल और दो गिलास भी निकाले।

मै दरवाजे की तरफ भागी, मगर दरवाजे पर उसने ताली से अन्दर से लॉक लगा दिया था। वह उसी अवस्था में हँसते हुए मेरी तरफ  बढ़ा और मुझे बेड की तरफ खींच कर ले गया। मुझे बेड पर बैठने का इशारा करते हुए उसने उन नोटों के बंडलों की तरफ इशारा करते हुए अपनी अमीरी की डींगे हांकी और मुझे तरह-तरह के सब्ज-बाग़ दिखाए। फिर उसने जो खुद की कहानी सुनाई तो उसे सुनकर मैं दंग रह गई। उसने बताया कि न तो मनोज गुप्ता उसका बेटा ही था, और न शादी में आये मेहमान उसके कोई रिश्तेदार। सब किराए पर लिए गए आवारागर्द, चोर-मवाली थे। वह एक विधुर था और उसके एक बेटी भी थी, जिसकी शादी हो रखी थी। हवस के भूखे उस दरिन्दे इंसान को एक जवां बीवी चाहिए थी, और पैंसे के बल पर उसने मुझे पाने का वह सारा नाटक रचा था।

सारी परिस्थिति को समझने और उसकी नशे की स्थित को भांपने के बाद मैंने भी मन ही मन तुरंत एक फैसला कर लिया था, और दिमाग से काम लेने की ठान ली थी। वह लडखडाता हुआ ज्यों ही बेड पर बैठा, मैंने लपककर सामने रखी शराब की बोतल उठाई और एक बड़ा सा पैग बनाकर उसकी तरफ बढ़ा दिया। मेरे इस बदलाव पर वह खुश था। उसने मुझे भी शराब पीने को कहा, लेकिन मैंने ना में सिर्फ सिर हिलाया। एक-एककर वह तीन बड़े पैग पी गया और वहीं बेड पर एक तरफ को लुडक गया। मैंने हौले से वह शराब की बोतल उसके सिर पर दे मारी। यह सुनिश्चित करने के बाद कि वह पूर्ण अचेतन अवस्था में जा चुका है, मैंने सामने पडी चाबियों का गुच्छा उठाया और दरवाजे को खोलने की कोशिश करने लगी। शीघ्र ही दरवाजे की चाबी गुच्छे में से मुझे मिल गई। मैंने धीरे से दरवाजा खोला और बाहर बेसमेंट के हॉल का जायजा लिया, कही कोई आहट नहीं थी। मै फिर ऊपर सीढिया चढ़कर मुख्य दरवाजे तक पहुँची, दरवाजे पर भी अन्दर से लॉक लगा था, मैंने पास की खिड़की के शीशे से बाहर का जायजा लिया, बाहर गेट पर एक एम्बेसडर कार खडी थी। मै तुरंत ही फिर से बेसमेंट में गई और कमरे और आलमारी में रखे खजाने को वही रखे एक वैग में जल्दी-जल्दी समेट लिया और सामने टेबल पर पडी कार की और अन्य चाबियों का गुच्छा उठाकर गेट की तरफ लपकी।

दुर्भाग्यशाली पलों में मेरा यह तनिक सौभाग्य ही कहा जायेगा कि न सिर्फ़ मैं उस नरक से छूट्कर बाहर आ गई थी, अपितु कार की चाबियां भी मेरे पास मौजूद थी। मैंने तुरंत बैग को कार की पिछली सीट पर रखा और जल्दी से कार स्टार्ट कर उसे दिल्ली की सुनसान सड़कों पर दौडाने लगी। पिता का सिखाया ड्राविंग हुनर आज बहुत काम आ रहा था। करीब एक घंटे बाद मैं मोदीनगर के समीप थी, मगर मैंने घर न जाने का फैसला कर लिया था। मैंने कार हाइवे पर मेरठ की तरफ बढ़ा दी। और तडके ही विजय, यानि तुम्हारे पिता के मेरठ स्थित निवास पर पहुँच गई। यह भी बता दूं कि विजय मोदीनगर में हमारे पड़ोसी थे, और मुझसे शादी करना चाहते थे। वे अनाथ थे और अपने ननिहाल में पले-बढे थे। मगर उनके मामा इस रिश्ते के खिलाफ थे, अत: उन्होंने उनकी शादी दूसरी जगह कर दी थी।  लेकिन दूसरे प्रसव पर उनकी पत्नी चल बसी। तेरी बड़ी बहन संध्या मेरी अपनी कोख से नहीं जन्मी बल्कि  वह उसी माँ की प्रथम संतान है।

वहाँ पहुँचकर मैंने सारी वस्तुस्थित विजय को बतायी और इस शर्त पर उनसे शादी करने को राजी हुई कि हम इस शहर को छोड़कर तुरंत कही दूर किसी दूसरी जगह चले जायेंगे। विजय विधुर थे, और उनके समक्ष नन्ही संध्या का भी सवाल था, अत: वे मेरी हर शर्त को मानने के लिए तैयार थे। और तब हमने तुरंत ही मेरठ से सिफ्ट होकर नैनीताल से बारह किलोमीटर दूर किल्बुरी के समीप बसने का फैसला किया। दिल्ली से उठाकर लाई गई धन-दौलत हमारे खूब काम आई और तुम्हारे पिता पर्वतीय क्षेत्रों में एक होटल चेन खोलने में भी सक्षम रहे थे। और उनकी मौत के बाद अपने परिवार के लालन-पालन और तुम दोनो भाई-बहनो की शादि-ब्याह मे भी मुझे उस धन की बदौलत कोई दिक्कत नही हुई।

लेकिन मेरी किस्मत यंही तक मुझसे इंतकाम लेने से संतुष्ट नहीं थी। इस ऊँचे-नीचे जीवन सफ़र में चलते-चलते मैं उस मनोज गुप्ता की शक्ल-सूरत भी भूल गई थी, जिसने कभी मेरी जिन्दगी के साथ ऐसा खिलवाड़ किया था। किन्तु, फिर जिन्दगी ने एक और करवट ली और तुम अपनी जवानी में जिस लडकी के प्यार में फंसे, और जिसे तुमने अपनी जीवन संगनी बनाया, वह जब दुल्हन बनके हमारे घर आई तो अतीत का वह दैत्य भी पीछे-पीछे हमारे घर चला आया। तुम लोग हनीमून के लिए गए थे और मैं घर पर अकेली थी। वह दैत्य, जो अपने कुकृत्यों के बल पर अब एक विधायक था, न सिर्फ मेरे साथ लिए गए सात फेरों की दुहाई देकर उम्र के इस मोड़ पर भी मेरा जिस्म पाने की फिराक में था, अपितु अपनी विधायकी की धौंस देकर मुझे ब्लेकमेल भी करना चाहता था। मैंने उसी वक्त गंडासे से उसका क़त्ल कर डाला और यह सोचकर कि अगर मैंने खुद अपना जुर्म नहीं कबूला तो पोलिस तुम लोगो को परेशान करेगी, सीधे थाने जाकर आत्मसमर्पण कर दिया।

जो बात मैं तुम्हे आज बता रही हूँ, वह तब भी तुम्हे बता सकती थी। लेकिन इस डर से कि कहीं तुम इसका दोष स्वाति पर मढने लगो, मैं खामोश रही और सच कहूँ तो जो कदम अब उठा रही हूँ , इसी वजह से तब नहीं उठाया था। अब मैं सुनिश्चित हूँ कि तुम ऐसी कोई नादानी नहीं करोगे जिससे तुम्हारे और स्वाति के रिश्तों में कोई दरार आये। क्योंकि स्वाति भी एक समझदार लडकी है, और तुम्हारा पूरा ख्याल रखती होगी ऐसी मुझे उम्मीद है। यहाँ जेल में सभी लोग बहुत अच्छे ढंग से मेरे साथ पेश आते थे, और यहाँ तक कि तुम लोगो की कुशल-क्षेम भी मुझ तक पहुंचाते थे। मुझे मेरा दादी बनने की शुभसूचना  भी इन्ही लोगो ने मुझे दी थी। तुम्हे एक बार फिर से यह वचन देना होगा कि तुम उस मनोज गुप्ता के कुकृत्यों का कोई भी दोष उसकी बेटी को नहीं दोगे। मैं तुम्हारे सुखी-संपन्न पारिवारिक जीवन की एक बार फिर से कामना करती हूँ ! मेरे पोते को मेरा ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद देना।


तुम्हारी अभागन माँ ,
शारदा
स्थान और पात्र काल्पनिक !

11 comments:

Unknown said...

aaj ke samj ki adhunik kahani----
jai baba banaras---

Anil said...

Samaj ka daran..wah wah!

Patali-The-Village said...

आज के समाज की आधुनिक कहानी| धन्यवाद|

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi gahri kahani

kavita verma said...

ghatnapradhan rochak katha...

Sanju said...

बहुत रोचक और आधुनिक समाज की कथा...........

avanti singh said...

waah! bahut khub....

Unknown said...

बहुत सुंदर कहानी !!!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

रोचक कहानी..अच्छी प्रस्तुति,इस सुंदर कहानी के लिए बधाई,...

NEW POST ...काव्यान्जलि ...होली में...

Crazy Codes said...

achhi kahani....

virendra sharma said...

सत्य कथा सी ,भावबोध को साधे रही यह कथा ,सांस रोकके पढ़ गया .कसावदार ताना बाना है कथा का .प्रस्तुति बहुत ही संतुलित कहीं भी अतिश्योक्ति और कल्पना का सहारा नहीं .खुद बा खुद दौड़ती है कथा और उसका ताना बाना