Tuesday, September 8, 2009

लघुकथा- कमीना शेर !

अभी शादी हुए मात्र चार ही साल तो हुए थे! बहुत खुश रहती थी ऋचा अपने उस भरे पूरे परिवार के साथ ! पति के साथ ही उसी दफ्तर में नौकरी करती थी! बेटा जब तीन महीने का था, दोनों बेफिक्र हो उसे उसके दादा- दादी के पास छोड़ उसी बाइक में सवार हो ऑफिस आते-जाते, जो ऋचा को उसके मामा ने शादी पर उपहार में दी थी! ऋचा के जेठ-जेठानी भी दोनों बैक मैं नौकरी करते थे, घर में हर तरफ खुशहाली थी! मगर अचानक एक दिन न जाने उनकी खुशहाली को किसकी नजर लग गई ! ऋचा फिर एक बार उम्मीद से थी, और तबियत ढीली होने की वजह से उस दिन छुट्टी कर गई थी ! दीपक सुबह अकेले ही ऑफिस गया था! और शाम को लौटते वक्त ब्लू लाइन बस रूपी काल का ग्रास बन गया!

अशक्त ऋचा बहुत तड़पी! बार-बार सिर पीटकर किस्मत को यही कोसती रही कि मैं क्यों नहीं आज दीपक संग दफ्तर गई ! खैर, समय बलवान होता है, और उसके समक्ष सभी को झुकना पड़ता है! कुछ दिनों के रोने पीटने के बाद घर के हालात कुछ सामान्य तो हुए, मगर अमूमन जैसा कि देखने में आता है, हवाए अब बदली-बदली सी थी!सास-ससुर और घर के अन्य सदस्यों का बर्ताव एकदम अलग था, ऋचा के साथ ! तंग आकार ऋचा उस घर को सदा के लिए छोड़, पिता के घर वापस आ गई !

दोनों बच्चो, प्रतीक और दीपिका को नाना-नानी की देखरेख में छोड़ उसने फिर से अपनी नौकरी ज्वाइन कर ली ! लेकिन बूढे माँ-बाप दिन रात इसी चिंता में डूबे थे कि हमारे बाद ऋचा किस तरह इतना लंबा जीवन सफ़र तय करेगी? काफी सोच विचार कर, और गहमा-गहमी के बाद उन्होंने ऋचा को दोबारा शादी के लिए राजी कर लिया था ! अखबारों में इश्तिहार दिए गए, लेकिन कोई सुयोग्य रिश्ता नहीं मिला! फिर एक दिन शाम को कालोनी के पार्क में बैठे-बैठे मोहल्ले के एक अन्य वृद्ध सज्जन ने उन्हें अपनी जान-पहचान में एक रिश्ता बताया!

साहिबाबाद के एक स्टील प्लांट में मैनेजर, मुकेश सिंह एक नहीं, अपितु दो बार का विधुर था ! पहली शादी के चंद रोज के बाद कुल्लू में हनीमून के दौरान ही एक दुर्घटना में पत्नी को खो देने के बाद, उसने दूसरी शादी की थी, मगर प्रसव के दौरान वह भी चल बसी ! माता-पिता द्बारा प्रारम्भिक जांच पड़ताल के बाद मुकेश और ऋचा की मुलाकात कराई गई, और दोनों ने एक दूसरे को पसंद कर लिया! मुकेश को ऋचा की सारी शर्ते भी मंजूर थी! अतः साधे ढंग से दोनों की शादी करा दी गई! प्रारम्भिक छह महीनो तक तो ऋचा ने अपने दोनों बच्चे, सात साल के प्रतीक और तीन साल की ऋचा को माँ-बाप के पास ही छोडे रखा, लेकिन मुकेश की बच्चो के प्रति आत्मीयता और लगाव को देख, अच्छी तरह से आस्वस्थ हो जाने के बाद, जुलाई में अपने घर के नजदीकी पब्लिक स्कूल में दोनों का दाखिला करवा कर अपने साथ ले आई थी! करीब दो महीने तो सब कुछ सामान्य चला, बच्चे भी नए घर में काफी खुश थे!

मगर जंगल के उस नए राजा के दीमाग में तो कुछ और ही पक रहा था! चूँकि शेरनी ने उससे पहले ही यह शर्त मनवा ली थी कि उसके इन दो बच्चो के अलावा तीसरा नही ! मगर जंगल का वह कमीना राजा कैसे दूसरे शेर के बच्चो को अपना बच्चा मान लेता! उसे तो अपना बंश आगे बढाने की चिंता खाए जा रही थी! शैतानी दिमाग झाडियों में पड़े-पड़े तरकीबे सोचने में लगा था! और फिर उसके दिमाग ने वह शैतानी चाल चलने की सोच डाली जिसकी शेरनी ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी! कमीने शेर को तो बस शेरनी को किसी तरह आगे संतान उत्पत्ति के लिए विवश करना था! स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चे सीधे क्रेच में जाते थे, और शाम को जब ऋचा घर लौटती तो उन्हें भी साथ घर ले आती ! एक दिन जब शेरनी भोजन की तलाश में गई थी, मौका पाकर शेर ने दोपहर के समय ही बच्चो को क्रेच से उठा लिया और फिर ...................! पुलिस ने नाले से दोनों बच्चो के अवशेष निकाल पोस्ट मॉर्टम के लिए भेज दिए थे ! पुलिस की शक्ति बरतने के बाद मुकेश ने भी सच्चाई उगल दी थी, और जड़-पत्थर बनी ऋचा सोच रही थी कि एक शिक्षित और सभ्य सा दिखने वाला इंसान भी कहां तक अपने कमीनेपन की हदे लाँघ देता है !

10 comments:

Mithilesh dubey said...

गोदियाल जी बहुत ही मार्मिक रचना प्रस्तुत की है आपने। अगर देखा जाये तो आपकी ये रचना कहीं-न-कहीं समाज व किसी व्यक्ती के दुसरे रुप को भी दर्शा रही है। जिसे हम चेहरे रुपि नकाब की वजह से पहचान नही पाते।

संगीता पुरी said...

समाज में होते हैं ऐसे लोग .. गलत नहीं लिखा है आपने .. बहुत सुंदर प्रस्‍तुतीकरण !!

कुश said...

समाज का घिनौना रूप दर्शाती हुई..

Mumukshh Ki Rachanain said...

कथनी और करनी का अंतर एक बार पुनः स्पष्ट हो गया. कब तक चमड़े की ज़बान की यूँ ही उतारती रहेगी इज्ज़त इन्सान (या कहें हैवान) की करतूतें.

कहाँ बहुत ही मार्मिक बन पड़ी.............

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

दिगम्बर नासवा said...

SAMAAJ MEIN FAILE IN BURAAIYON KO UJAAGAR KARTI MAARMIK RACHNA HAI ..... INSAAN KI HAIVAANIYAT KA ROOP DIKHAATI KAHAANI ........

Shashidhar said...

Bhai ab kya kahen......

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

गोदियाल जी!
लघु-कथा बहुत मार्मिक है।
बधाई!

डॉ टी एस दराल said...

पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ. बहुत ही मार्मिक द्रश्य प्रस्तुत किया है. सच है इंसान में ही शैतान भी छुपा रहता है. अफ़सोस की अक्सर बाहर से नज़र भी नहीं आता.

vikram7 said...

उफ...काश यह कहानी ही हो,हकीकत नही ,मार्मिक रचना

प्रसन्न वदन चतुर्वेदी said...

बहुत ही मार्मिक रचना....बहुत ही अच्छी लगी ये रचना...आजकल की सच्चाई को प्रदर्शित करती रचना....