Friday, August 8, 2008

धनसिंह- एक युद्धबंदी !

कुछ समय पहले, जब पंजाब के कश्मीर सिंह, जिंदगी की एक लम्बी जंग लड़कर पैंतीस साल बाद पाकिस्तानी जेल से रिहा होकर भारत लौटे, तो अचानक मेरे मस्तिस्क से धूमिल हो चुकी एक वृद्ध की कुछ तस्बीरे, जो मेरे दिमाग में तकरीबन १२-१५ साल पहले घर कर गई थी, मेरे जहन में फिर से हथोडे की तरह प्रहार करने लगी थी। अभी कुछ रोज पूर्व एक रिपोर्ट पढ रहा था, शीर्षक था; “सेना के तीनो अंगो में अधिकारियो की अभूतपूर्व कमी” वो एक कहावत है कि 'जब जागे तभी सबेरा' । रक्षा सम्बंधित सभी हल्कों में वर्षो से यह चर्चा और चिंता का विषय बना हुआ है कि देश में सेना के प्रति युवाओ में उत्साह निरंतर कम होता जा रहा है और जो अधिकारी सेना में हैं भी, वे समय से बहुत पहले ही स्वेच्छा से सेवानिवृत हो जा रहे है। और जिसका परिणाम है सेना में अधिकारियो की अभूतपूर्व कमी। और यह बात फिर से उजागर हुई, अभी हाल मे नई दिल्ली में जारी रक्षा सम्बन्धी संसदीय समिति की रिपोर्ट में। सेना में अधिकारियो की अभूतपूर्व कमी से परेशान एक संसदीय समिति ने रक्षा मंत्रालय से कहा है कि वह एक योजनाबद्ध ढंग से तुंरत कारवाही कर इस ओर ध्यान दे, और इससे सम्बंधित विसंगतियों और कमियों को तत्काल दूर करे ।

इस अभूतपूर्व कमी के कई कारण और खामिया समिति ने गिनाई है जिनमे से कुछ है ; युवाओ द्वारा सैन्य कैरियर को कम प्राथमिकता, चयन सम्बन्धी प्रक्रिया का कठोर होना और चयन तथा पदोन्नति का निष्पक्ष और पारदर्शी न होना । लेकिन इसके साथ ही मेरा मानना यह भी है कि देश और समाज में पनपती बहुत सी ऐंसी विसंगतिया भी इसका प्रमुख कारण है जो एक होनहार युवा शक्ति को सेना की ओर आकर्षित करने में अक्षम है। हम अपने रक्षा बजट में तो हर साल बड़ी-बड़ी रकम सेना और सैनिक साजो-सामान के लिए प्रावधान करते है लेकिन हकीकत में उसका कितना प्रतिशत उस कार्य में खर्ज कर पाते है, वह ज्यादा शोचनीय विषय है।

हमारे बहुत से रणबांकुरे थे, जो १९६५ और ७१ की लड़ाई में कहीं गुम हो गए थे और जिन्हें हम आज तक नही ढूंड पाए। एक-दो ही ऐंसे खुश नसीब थे, जो पुनः लौटकर घर आ सके, अन्यथा उन बदनसीबो का कौन , जिन्हें हमारी घटिया दर्जे की राजनीति और नौकरशाही ने उनकी भरी जवानी में ही जिंदा दफ़न कर दिया? और जिनके गरीब परिवारों को मात्र एक तक्मा और चंद रूपये पकडाकर हमेशा के लिए चुप करा दिया। इन स्वार्थी लोगो ने हमारे उन रण वाकुरो के उस त्याग और पराक्रम, जिसमे उन्होंने न सिर्फ़ लाहौर तक को अपने कब्जे में ले लिया था, अपितु पूरब और पश्चिम की दोनों सीमाओं पर कुल मिलाकर उनके एक लाख सैनिक अपने कब्जे मे लिए थे, महज सस्ती लोकप्रियता और दुनिया को अपनी दरियादिली दिखाने के लिए पाकिस्तान को वापस कर दिया, मगर अपने गुमशुदा जवानों ( प्रिजनर ऑफ़ वार) की ठीक से खोज ख़बर करना और समझौते के वक्त अदला बदली का सही मापदंड तय करना भी, मुनासिब न समझा ।

ऐंसा ही एक बदनसीब था, धनसिंह । सुदूर अल्मोड़ा की पहाडियों का निवासी । तीन बहनो का इकलोता भाई। गरीब परिवार की मजबूरिया और देशप्रेम की भावना उसे १२वीं पास करने के बाद रानीखेत खींच लायी। और वह सेना में भर्ती हो गया। अभी रंगरूटी पास ही की थी कि देश के पूर्वी और पश्चमी मोर्चे पर युद्ध के बादल छा गए। बाग्लादेश की आग पश्चमी मोर्चे पर भी पहुच गई, उसे जम्मू से लगी सीमा के एक मोर्चे पर भेज दिया गया। एक दिन जब उसे सेना की एक टुकडी के साथ दुश्मन की अग्रिम पोजिशन को पता लगाने भेजा गया तो दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध हुआ, उसके सभी साथी मारे गए, जिनकी लाशें बाद मे सेना को मिल गई, मगर धन सिंह की न तो लाश मिली और न फिर वह लौटकर आया।

माँ तो कुछ समय बाद ही बेटे के गम मे स्वर्ग सिधार गई, किंतु पिता जैसे-तैसे जिम्मेदारिया निभाता रहा। तीन बेटियों की शादी ही कर पाया था कि एकाकी जीवन और बेटे तथा पत्नी के गम में मानसिक संतुलन खो बैठा। १०-१२ साल पहले किसी काम से अल्मोड़ा गया था, वापसी पर अल्मोड़ा के रोडवेज़ बस अड्डे पर बस का इंतज़ार कर रहा था कि तभी मैंने देखा कि एक बूढा व्यक्ति हाथ मे थाली लिये उसे बजाकर और गाना गा कर भीख मांग रहा था। पास खड़े एक सज्जन, जिनसे मेरा परिचय रात को होटल मे हुआ था, ने उस बूढे व्यक्ति की कहानी मुझे बताई कि कैसे इसका बेटा १९७१ की लड़ाई में गुम् हो गया था। और उसके बाद ....................!

वृद्ध के दांत भी नही थे, और एक लडखडाती लय-ताल में वह वृद्ध कुछ इस तरह का पहाडी गीत गा रहा था: "त्वे जागदो रैयु धना, डाक की गाड़ी मा, तू किलाई नि आई धना, डाक की गाड़ी मा................................!" ( धन सिंह, मैं तेरा डाक गाड़ी से आने का इंतज़ार कर रहा था, मगर तू अब तक आया क्यो नही ?) ................ यह सब सुनकर मै भी एक गहरे भाव मे कहीं खो सा गया था, मैं बस एक लम्बी साँस लेकर रह गया। उन बूढी आंखो को आख़िर समझाता भी तो किस तरह कि तू अब अपने धना (धन सिंह ) का इंतज़ार छोड़ दे, तेरा धना, अब शायद कभी लौट्कर नही आएगा।

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